एमएसपी की गारंटी देने वाला कानून बनाना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है

By डॉ. आशीष वशिष्ठ | Feb 20, 2024

भारत एक लोकतांत्रिक देश है और संविधान के तहत देश के हर नागरिक को शांतिपूर्ण आंदोलन और प्रदर्शन करने का मौलिक अधिकार है। लेकिन, न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी कानून की गारंटी के लिए आंदोलनरत किसान शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगें मंगवाने के पक्षधर नहीं दिखते। सरकार बातचीत के माध्यम से समस्या सुलझाना चाहती है। लेकिन किसान नेताओं के तेवरों और मांगों की लंबी सूची के दृष्टिगत इस बात की संभावना न्यून है कि बातचीत से ये मसला निपटेगा। वास्तव में किसान नेता भी जानते हैं कि एमएसपी कानून की गारंटी देना इस सरकार तो क्या किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है।


किसानों के असली इरादों को उनकी तैयारियों को देखकर समझा जा सकता है। जिस तरह ट्रैक्टर ट्रालियों में महीनों का राशन और दूसरा जरूरी सामान लेकर वो घरों से निकले हैं, उससे साफ है कि उनकी मंशा समझौते की नहीं, टकराव की है। वो चाहते हैं कि गलती से शासन प्रशासन के हाथों कोई ऐसा काम हो जाए, जिससे वो और उनका पूरा इको सिस्टम सरकार को किसान विरोधी साबित कर सके। ये सारी कवायद चुनाव से पहले माहौल खराब करने और सरकार की छवि को ठेस पहुंचाने की दिखाई देती है।  

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किसान समस्या का हल चाहते तो बातचीत में विश्वास करते। वो तो दिल्ली की तरफ हजारों की भीड़ लेकर ट्रैक्टर ट्रालियों, गाड़ियों और अन्य साधनों से दिल्ली की ओर ऐसे बढ़े मानो उन्हें किसी विदेशी सरकार से निर्णायक संघर्ष करना है। किसान नेता जब मीडिया या किसी सार्वजनिक मंच से बोलते हैं तो ऐसा व्यवहार करते हैं कि मानो केंद्र सरकार उनकी सबसे बड़ी दुश्मन है। मीडिया से बातचीत के समय किसान नेताओं और उनके समर्थकों की भाषा, बॉडी लैग्वेंज और भाषणों की टोन ऐसी होती हैं मानो किसी दुश्मन देश की सरकार को वो चेतावनी दे रहे हों। करोड़ों नागरिकों द्वारा निर्वाचित सरकार, जो बातचीत के लिए हमेशा तैयार है, उसके प्रति किसान नेताओं का अनादर का भाव कदम कदम पर दिखाई देता है।


किसान नेता अपने आंदोलन को अराजनीतिक बताते हैं। लेकिन राजनीतिक संगठनों के साथ उनके रिश्ते जगजाहिर हैं। इसीलिए कहा जा रहा है कि किसान आंदोलन तो बहाना है- असली काम तो मोदी सरकार को हटाना है। लोगों में चर्चा इस बात को लेकर है कि आखिर बिना राजनीतिक दलों के समर्थन के इतना बड़ा आंदोलन इतनी जल्दी कैसे खड़ा हो सकता है। 2020 में तीन कृषि कानूनों को लेकर पंजाब के 34 किसान संगठन विरोध कर रहे थे, जबकि यह आंदोलन मात्र कुछ किसान संगठनों द्वारा ही किया जा रहा है। तो क्या यह सही है कि इस बार का आंदोलन किसी विशेष उद्देश्य से हो रहा है?


भारतीय किसान यूनियन सिद्धूपुर के प्रधान जगजीत सिंह डल्लेवाल इस बार किसान आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरे हैं। जिस तरह पिछली बार गुरुनाम सिंह चढ़ूनी और राकेश टिकैत थे इस बार डल्लेवाल हैं। उनके मुंह से किसान आंदोलन की सच्चाई निकल गई है। डल्लेवाल का एक वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है, जिसमें वह कह रहे हैं कि राम मंदिर बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ग्राफ बहुत बढ़ गया था, उसे नीचे लाना है। आंदोलन में शामिल पंजाब के किसान नेता तेजवीर सिंह का एक वीडियो बहुत तेजी से वायरल हो रहा है जिसमें वो किसान आंदोलन के जरिए देश की सरकार बदलने की बात कर रहे हैं। इतना ही नहीं वो किसान आंदोलन को विपक्ष की लड़ाई लड़ने वाला भी बता रहे हैं। मतलब साफ है कि कहीं न कहीं किसान नेताओं को एक बात समझाई गई है कि ये लड़ाई किसानों के अधिकारों और एमएसपी की गारंटी के लिए नहीं है बल्कि इन मुद्दों के नाम पर सरकार को ही बदलना है।


यही नहीं किसान आंदोलन को कवर कर रहे बहुत से यूट्यूबरों, मीडिया हाउसेस के वीडियो देखने को मिल रहे हैं जिन्हें देखकर आप यही कह सकते हैं कि किसान आंदोलन भ्रमित है या गलत लोगों के हाथ में है। बहुत से किसान इंडिपेंडेंट पंजाब या खालिस्तान की बात करते हुए मिलते हैं। कुछ तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल करते हुए मिल जाते हैं। इन किसानों के मन में एमएसपी पर गारंटी की डिमांड कम, केंद्र सरकार को बदलने का जज्बा काफी है। इनमें से कुछ में नरेंद्र मोदी के लिए इतनी नफरत भरी हुई है जैसे किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ता अपने विरोधी दलों के नेताओं के बारे में रखता है। बल्कि राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं में भी अपने विरोधी दल के नेता के लिए मरने-मारने की बात नहीं होती। यहां तो किसान मरने-मारने की बात भी कर रहे हैं। पंजाब में पीएम मोदी का काफिला रोकने की जिम्मेदारी लेने वाले संगठन भारतीय किसान यूनियन क्रांतिकारी संगठन भी इस आंदोलन में शामिल है।


आंदोलन शुरू होने से 2 दिन पहले जिस तरह कांग्रेस नेता राहुल गांधी का ट्वीट किसान आंदोलन को समर्थन करते आ गया था उससे भी इस संदेह को बल मिला कि यह आंदोलन किसानों के अधिकार के लिए नहीं बल्कि मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए ज्यादा है। कांग्रेस नेता रमनदीप सिंह मान पर आरोप है कि वो कांग्रेस और किसान नेताओं के बीच कड़ी का काम कर रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र पांचजन्य के हैंडल ने उनके कई ट्वीट्स की कड़ी का थ्रेड बनाकर अपने हैंडल पर डाला हुआ है। इस थ्रेड से पता चलता है कि कांग्रेस नेता दीपेंद्र हुड्डा ने किस तरह रमनदीप सिंह के साथ मिलकर किसान आंदोलन को खड़ा किया।


जब चार साल पहले तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में राजधानी को लगभग 13 महीने तक बंधक बनाए रखा गया था। धरना-प्रदर्शन और आंदोलन के बहाने अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए किसान संगठनों की ओर से बनाए गए माहौल का ही नतीजा था कि केंद्र सरकार को उन तीन कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था, जिन्हें कृषि और कृषक समुदाय के लिए क्रांतिकारी माना जा रहा था।


सच्चाई यह है कि पिछली सरकारों ने जो कुछ किसानों की भलाई के लिए किया, वर्तमान सरकार ने उससे बढ़कर ही किया है। आंकड़ें इसके प्रत्यक्ष साक्षी हैं। ये भी सच्चाई है कि किसानों की भलाई के लिए काफी कुछ किया जाना बाकी भी है। असल में, जब आंखों में विरोधी चश्मा चढ़ा हो और दिमाग में रटी रटाई स्क्रिप्ट तैर रही हो तो बातचीत से मामला हल कहां होने वाला है? सरकार चाहे जितने भी उपाय और मजबूरियां बता दे, किसान नेताओं को तो अपनी बात पर अड़े रहना है। शायद उनके राजनीतिक आकाओं की ऐसी ही मंशा होगी।


किसान हमारे देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। पिछले सात दशक से जिस तरह की कृषि नीति देश में अपनायी गयी है, उन नीतियों से किसानों की स्थिति तो नहीं सुधरी है, न ही उनको उनकी उपज का वाजिब दाम ही मिल पाता है। लेकिन किसानों के ही फ़सलों से कृषि तंत्र पर क़ब्ज़ा जमाए बिचौलियों और कारोबारियों की आर्थिक सेहत हमेशा ही बल्ले-बल्ले रही है। कृषि क्षेत्र में सुधार और बिचौलियों को सिस्टम से बाहर करने के लिए ही सरकार तीन नये कृषि कानून लेकर आई थी। लेकिन ये भ्रम फैलाया गया कि नये कानून किसान विरोधी हैं। सरकार ने भी दबाव में आकर कानून वापस ले लिये। जानकारों का मानना है कि, नये कृषि कानून लागू हो गये होते तो किसानों की कई समस्याओं का हल स्थायी तौर पर हो जाता।


किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिले, उनका जीवन सुधरे और वो भी पूरे मान सम्मान के साथ जीवन बिताएं, इसमें किसी को कोई परेशानी नहीं है। किसानों को भी तनातनी और राजनीति छोड़कर बातचीत से मसला हल करने को प्राथमिकता देनी चाहिए। हिंसा और उपद्रव से किसानों की छवि तो खराब होती ही है, देश के साधनों और संसाधनों का नुकसान होता है और आम नागरिकों को भी परेशानियां पेश आती हैं। सरकार को सहानुभूति पूर्वक किसानों की व्यावहारिक मांगों को स्वीकार करना चाहिए। शांति और सद्भाव का माहौल ही किसी देश के विकास को गति प्रदान करता है।


-आशीष वशिष्ठ

(लेखक वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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