सज्जनों विगत अंकों से हम पढ़ रहे हैं कि श्री हनुमान जी जीव को ब्रह्म से मिलाने हेतु प्रतिक्षण तत्पर रहते हैं। श्रीराम अपनी वन यात्रा में श्री हनुमान जी से भी मिलन करते हैं और सुग्रीव से भी। सुग्रीव से मुलाकात में भगवान श्रीराम की वार्तालाप का आप अवलोकन करेंगे तो इस वार्ता का विषय वैसा बिलकुल भी नहीं जैसे श्री हनुमान जी विशुद्ध आध्यात्मिक नाता गांठने के लिए जाने जाते हैं। क्योंकि श्रीराम जी से जब भी जीव का नाता बनता है तो वह भक्ति का ही नाता बनता है। जिसमें संसार का समस्त माया−मोह परे छूट जाता है। और केवल ईश्वर ही ईश्वर का बोलबाला होता है। लेकिन श्रीराम जब सुग्रीव से मिले तो उसको कहीं भी कुछ ऐसा नहीं कहते कि सुग्रीव संसार तो माया है, बंधन है और मुझे पाने के लिए तुझे इसका मोह त्यागना ही होगा। फिर शायद यह भी कह देते कि चलो आधी माया−मोह तो तुम्हारी पहले से ही समाप्त हो गई है क्योंकि तुम्हारा राज्य व पत्नी तो बालि ने पहले से ही छीन रखे हैं। तो अब मेरी भक्ति करने में तुम पूर्णतः स्वतंत्र हो। प्रभु श्रीराम जी ने सुग्रीव से यह भी नहीं कहा कि चलो यह भी अच्छा ही हुआ कि तुम तो पहले ही वनों में निवास कर रहे हो। वरना भक्ति करने हेतु तो बड़े−बड़े तपस्वी भी वनों का ही रूख कर रहे हैं। उलटे प्रभु श्रीराम जी तो सुग्रीव से यह कहते हैं कि सुग्रीव! भला तुम वनों में क्या कर रहे हो− 'कारन कवन बसहु बन मोहि कहहु सुग्रीव' अर्थात तुम वनों में आखिर क्या कर रहे हो? क्योंकि श्री हनुमान जी तो मुझे यह कह कर लाए हैं कि यहाँ उनके राजा रहते हैं। और राजा तो राजमहल में होते हैं। यूं कंन्दराओं में नहीं! क्योंकि कंदराएँ तो बनवासियों का प्रिय स्थल हुआ करती हैं। यूं ही प्रभु यह कहते हैं तो सुग्रीव उनके समक्ष अपनी संपूर्ण गाथा कह सुनाता है कि कैसे बालि ने उसकी पत्नी और राज्य उससे छीन लिए और उसे वनों में छुपकर रहने के लिए विवश कर दिया−
रिपु सम मोहि मारेसि अति भारी।
हरि लीन्हसि सर्बसु अरु नारी।।
कहा कि उसने मुझे बहुत अधिक मारा भी। तो प्रभु कहते हैं कि सुग्रीव अब तुम किंचित मात्र भी चिंता न करो। क्योंकि मैं आ गया हूँ। मेरे बल के भरोसे तुम अपनी समस्त चिंता छोड़ दो। मैं सब प्रकार से तुम्हारी सहायता करूँगा और बालि ने तुम्हें मारा है न, तो ठीक है फिर मैं एक ही बाण में बालि का वध कर डालूंगा−
सुनु सुग्रीव मारिहऊँ बालिहि एकहिं बान।
ब्रह्म रूद्र सरनागत गऊँ न उबरिहिं प्रान।।
देखिए श्रीराम सुग्रीव के साथ कितनी मनोवैज्ञानिक उपचार पद्यति का प्रयोग कर रहे हैं। उन्हें पता है कि सुग्रीव बालि से अत्यंत भयभीत हैं एवं इतना भयभीत कि मेरे और लक्ष्मण में भी बालि के ही किसी षड्यंत्र की परछाई देख रहा है। ऐसे में मैं इसे ब्रह्म का उपदेश कहाँ समझ आएगा। इसलिए पहले तो मैं इसका यह भ्रम दूर करूँ और उन्होंने सुग्रीव को कह दिया कि मैं बालि को केवल एक ही बाण से मार डालूंगा। एवं ऐसा मारूंगा कि भागकर वह ब्रह्मा, विष्णु या महेश जी की शरण भी गया तो उसकी कहीं पर भी रक्षा नहीं हो पाएगी। प्रभु ने सोचा कि चलो सुग्रीव का भय तो अब मेरी इस घोषणा से ठीक हो ही गया होगा। लेकिन बालि ने सुग्रीव की पत्नी जो छीन ली है इसका दुख वह भूल ही नहीं पा रहा है। फिर पत्नी के पश्चात् और भी कई गुप्त−प्रकट दुःख होंगे जो सुग्रीव अभी हमसे कह नहीं पायेंगे। तो क्यों न मै कह दूं कि चलो सुग्रीव एक−दो पक्ष में मैं क्या सहायता का वचन दूँ। लो मैं तो तुम्हारी सब और से ही अब सहायता करूँगा−
सखा सोच त्यागहु बल मोरे।
सब बिधि घटब काज मैं तोरे।।
आप सोचिए सुग्रीव कितना सहमा, डरा व असुरक्षित महसूस कर रहा होगा कि प्रभु भक्ति व साधना की कोई बात ही नहीं कर रहे। बस भरोसा करवा रहे हैं कि तू चिंता भला क्यों करता है। मैं हूँ न, मैं सब विधि से तुम्हारे काम आऊँगा। हालांकि उनका मूल उद्देश्य तो यही है कि सुग्रीव को आध्यात्मिक जीवन में उतीर्ण करना है। नर व नारायण सेवा में संलग्न करना है। लेकिन सुग्रीव पहले इस के योग्य बने तो सही। क्योंकि निःसंदेह जीव के मानव जीवन का एक ही मूल उद्देश्य है और वह है ईश्वर की भक्ति। लेकिन आवश्यक नहीं कि यह माया त्यागने के पश्चात ही शुरू होती है। अपितु माया व राज−पाट मिलने के पश्चात् भी भक्ति करना अति सुलभ है। बस एक ही शर्त है कि अपनी समस्त माया का प्रयोग ईश्वरीय पथ की साधना के निमित्त प्रयोग करते हुए आगे बढ़ें−
न जग छोड़े न हरि त्यागो, ऐसे रहो जिंदगानी में।
दुनिया में ऐसे रहो जैसे कमल रहता है पानी में।
कमल अपनी खुराक कीचड़ से ही लेता है। वहीं पलता−बढ़ता है, लेकिन सदा कीचड़ से निर्लिप्त रहता है। क्योंकि वह अपना संबंध सीधे सूर्य से जोड़े रखता है। यद्यपि हो सकता है कि हमारे मन में यह प्रश्न आ जाए कि भला संसार की माया में रहकर भी कोई, कैसे ईश्वर की सेवा व भक्ति कर सकता है ? ऐसा ही प्रश्न एकदा भक्त त्रिलोचन जी के मन में भी आया था। जब वे भक्त नामदेव की भक्ति के महान किस्से सुनकर उनके दर्शन हेतु गए तो उनका यह मिथ्या भ्रम टूट कर चकनाचूर हो गया। क्योंकि उन्होंने तो यह सुना था कि भक्त नामदेव चौबीसों घंटे भक्ति−साधना में ही लीन रहते हैं। और यहाँ तो मैं सुबह से ही देख रहा हूँ कि नामदेव जी तो कपड़ा छपाई में ही लीन हैं। रात होने को है और वे अभी भी शायद और काम करने की धुन में हों। अवश्य ही चारों ओर इनके बारे में झूठ फैलाया गया कि नामदेव जी आठों पहर भक्ति में ही लीन रहते हैं। यह तो धेखा है, पाप है। लेकिन कुछ भी हो मैं उन्हें अवश्य ही प्रश्न करूँगा−
नामा माइआ मोहिआ कहै त्रिलोचनु मीत।।
काहे छीपहु छाइलै राम न लावहु चीतु।।
अर्थात् हे नामदेव जी! आपको तो माया ने मोह रखा है। आप यह छपाई का कार्य कर रहे हो। क्या आप राम जी के ध्यान में अपना चित्त नहीं लगाते? यह सुनकर नामदेव जी मुस्कुरा पड़े। और भक्त त्रिलोचन जी को संबोधित करते हुए फुरमान करने लगे−
नामा कहै त्रिलोचना मुख ते रामु सम्हालि।।
हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि।।
अर्थात् हे त्रिलोचन भाई! अपना मन निरंतर प्रभु से जोड़कर रखें और हाथ पैर से काम भी करता रह। भगवान श्रीराम सुग्रीव को इसी साधना−पद्धति की ओर लेकर जा रहे हैं। लेकिन क्या सुग्रीव तुरंत श्रीराम जी की सीख मान लेता है? अथवा नहीं! जानने के लिए अगला अंक अवश्य पढ़ें...क्रमशः... जय श्रीराम
-सुखी भारती