By डॉ. रमेश ठाकुर | Nov 17, 2021
मोहम्मद शरीफ के नाम की चर्चा इस वक्त हर कोई कर रहा है। चर्चा होनी भी चाहिए, दरअसल वो जो कर रहे हैं, दूसरा कोई करता भी नहीं? उन्हें लावारिस पार्थिव शरीरों का मसीहा कहते हैं। कहीं भी लावारिस शव दिखाई दे जाए या उसकी सूचना उन्हें मिल जाए, वहां पहुंच जाते हैं और उन शवों का उनके धर्मानुसार व रीति रिवाज से अंतिम संस्कार का प्रबंध करते हैं। ऐसा वह सालों से करते आए हैं। उनके इस मानवीय कार्य के लिए केंद्र सरकार ने इस बार पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा है। सम्मान पाकर मोहम्मद शरीफ कैसा महसूस कर रहे हैं, इसको लेकर डॉ. रमेश ठाकुर ने उनसे बात की। पेश हैं बातचीत के मुख्य हिस्से-
प्रश्नः कैसा महसूस कर रहे हैं ‘पदमश्री’ पाकर आप?
उत्तर- केंद्र सरकार का तहेदिल से शुक्रिया। सम्मान मिलने के बाद अपनी जिम्मेदारी को बढ़ा हुआ महसूस कर रहा हूं। दरअसल, ये सम्मान मैं उन सभी शवों को श्रद्धांजलि के रूप में अर्पित करना चाहूंगा जिनका मैंने अभी तक अंतिम संस्कार किया है। शरीर में जब तक मेरी सांसें हैं, मैं ये कार्य करता रहूंगा। मुझे शुरू से ऐसा लगता रहा है कि पार्थिव देह का अंतिम संस्कार उनका अंतिम अधिकार होता है। इसलिए उनको उनका अंतिम अधिकार हम जीवित लोगों को देना चाहिए। लावारिस शवों को देखकर मुंह नहीं फेरना चाहिए। लावारिस शव के अंतिम संस्कार से बड़ा पुण्य दूसरा कोई नहीं हो सकता।
प्रश्नः अभी तक कितने लावारिस शवों का आप अंतिम संस्कार कर चुके हैं?
उत्तर- मोटे तौर पर करीब 25 हजार का आंकड़ा तो मुझे पता है, इससे ज्यादा ही होगा। लावारिस शवों में प्रत्येक धर्म-समुदाय के लोग होते हैं, उनमें मासूम बच्चे भी। अस्पताल वाले भी कभी कभार मासूम नवजात नौनिहालों के शवों को ऐसे ही फेंक देते हैं। मैं अस्पतालों के आसपास ज्यादा चक्कर काटता रहता हूं। जहां भी कोई बड़ी थैली पड़ी दिखाई देती है, मैं उसे खोलकर देखता हूं। ऐसी थैलियों में नवजात बच्चों के शव ज्यादातर पाए जाते हैं। उन्हें बाइज्जत उठाकर मैं सुपुर्द-ए-खाक करता हूं। जिस धर्म में ऐसा संस्कार किया जाता है, उन्हें मैं उसी रीति रिवाज से मुकम्मल तरीके से करता हूं।
प्रश्नः ऐसा करने में आपका कोई सहयोग भी करता है या नहीं?
उत्तर- मैं अकेला ही काफी हूं। अब बढ़ती उम्र और ढ़लते शरीर के चलते शवों को कंधों पर नहीं उठा पाता हूं, लेकिन मेरे पास ठेला है जिस पर रखकर मैं शवों को कब्रिस्तान, शमशान घाट आदि तक ले जाता हूं। चिता के लिए लोग लकड़ी व कफन जरूर मुहैया करा देते हैं, पर शवों के पास कोई नहीं आता। कुछ नेक बंदे सहयोग भी करते हैं।
प्रश्नः लावारिस शवों के अंतिम संस्कार करने का विचार कैसे आया?
उत्तर- देखिए, जनाब बात कुछ वर्ष पूर्व की है। मेरा एक मझला पुत्र जिसकी उम्र कोई 27-28 वर्ष रही होगी। अचानक उसका इंतकाल हो गया था। तभी से मैंने लावारिस शवों का संस्कार करने का प्रण लिया था। मैं लावारिस लाशों को अपना पुत्र मानकर अंतिम संस्कार करता हूं। देखिए, जब तक हम दूसरों की समस्याओं को निजी समस्या मानकर नहीं चलेंगे, आप कुछ अच्छा नहीं कर पाएंगे। सालों पहले शुरू किया ये काम आज भी जारी है। मेरे दो और पुत्र हैं, एक मैकेनिक है और दूसरा ड्राइवर। दोनों मेरे इस कार्य से बेहद खुद होते हैं। शवों के संस्कार में आना वाले खर्च को भी वही उठाते हैं। उनका मुझे भरपूर सहयोग मिलता है।
प्रश्नः कोरोना काल में भी आपने कई शवों का संस्कार किया था?
उत्तर- जी हां, अप्रैल-मई के महीने में मैंने सबसे ज्यादा शवों का अंतिम संस्कार किया था। वो बहुत डरावना वक्त था। जब चारों तरफ शवों की कतारें दिखाई दे रही थीं। 20-25 ऐसे दिन बीते जब मैंने एक दिन में पांच से दस शवों का दाह संस्कार किया। ठीक से तो याद नहीं, लेकिन कोरोना की दूसरी लहर में भी करीब चार या साढ़े चार सौ लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार किया था। मैं अयोध्या के खिड़की अली बेग क्षेत्र में रहता हूं। जहां आसपास उस वक्त कई मौतें हुईं, शवों को उठाने के लिए लोगों के फोन लगातार आते थे। कोरोना बॉडी को भी मैंने अपने हाथों से उठाया, लेकिन शुक्र है खुदा का, मुझे कुछ नहीं हुआ।
प्रश्न- पिछले वर्ष भी आपको पद्मश्री देने की बात हुई थी?
उत्तर- जी बिल्कुल! पिछले वर्ष भी सरकार ने मुझे ये सम्मान देने की घोषणा की थी। लेकिन तब मैं कोरोना के चलते दिल्ली नहीं जा सका था। तबीयत बहुत खराब थी, कुछ महीनों से मैं बीमार अब भी हूं। पैर में तकलीफ है जिसका इलाज घर पर ही चल रहा है। लेकिन इस बार मैंने दिल्ली जाने का फैसला किया, राष्ट्रपति भवन से मेरे लिए हर जरूरी इंतेजाम किए गए। पद्मश्री मिलने से पूरा परिवार बेहद खुश है। ऐसे सम्मान पाने की हम कल्पना तक नहीं कर सकते। मैं सरकार को धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने मुझे इस लायक समझा।
-बातचीत में जैसा डॉ. रमेश ठाकुर से कहा।