ऐसे तो कोई धोबी भी, किसी मैले व भारी कपड़े को सिला पर नहीं पटकता, जैसे वीर अंगद लंकापति रावण को, उसी की ही सभा में पटक रहे हैं। रावण ने देखा, कि यह वानर तो बड़ा ढीठ है। वश में आ ही नहीं रहा। लगता है, इसे मेरे बल का तनिक भी ज्ञान नहीं है। अगर सचमुच ही इसने मेरे पराक्रम की झाँकी नहीं देखी, तो क्यों न पहले इसे मेरे असीम बल के इतिहास से, मैं स्वयं ही परिचित करवा दूँ। यह विचार कर रावण बोला-
‘सुनु सठ सोइ रावन बलसीला।
हरगिरि जान जासु भुज लीला।।
जान उमापति जासु सुराई।
पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढ़ाई।।’
इन पंक्तियों में रावण का अहंकार सिर चढ़ कर अपना प्रदर्शन कर रहा है। रावण बोला, कि हे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान रावण हूँ, जिसकी भुजाओं की लीला कैलास पर्वत जानता है। जिसकी शूरता उमापति महादेव जी जानते हैं, जिन्हें मैंने अपने सिर रुपी पुष्प चढ़ाकर पूजा था।
यहाँ रावण ने वास्तव में अपने बल व भक्ति अथवा ज्ञान का बखान नहीं किया था, अपितु अपनी मूर्खता का ही बाज़ार सजाया था। कारण कि रावण के यह शब्द, कि ‘मेरे बल की महिमा कैलास जानता है’। रावण ने केवल यह पंक्ति कही। लेकिन पूरा प्रसंग नहीं कहा था। प्रसंग यह था, कि एक बार रावण के मन में यह शूल उत्पन्न हुआ, कि मेरे त्रिलोक पति होने का अर्थ ही यह है, कि संपूर्ण जगत में मेरे बल के समक्ष टिकने वाला कोई नहीं है। सर्वत्र मेरे ही नाम का डंका बजता है। लेकिन तब भी मेरी महिमा इतनी नहीं, जितनी कि मेरे गुरु भगवान शंकर की है। क्यों न कुछ ऐसा हो जाये, कि संसार के साथ-साथ, भगवान शंकर भी मेरे बल का लोहा मानें। तो इसके लिए क्या किया जाये? मेरे विचार से, क्यों न मैं कैलास पर्वत को ही अपनी विशाल व बलवान भुजाओं से उठा लूँ। कारण कि संपूर्ण जगत में यह प्रसिद्ध है, कि कैलास पर्वत की गोद में, भगवान शंकर बिराजे हुए हैं। इस तर्क के आधार पर तो, कैलास पर्वत भगवान शंकर से भी बड़े हुए। क्योंकि जैसे माता अपने बालक को अपनी गोद में उठाती है, तो यही सिद्ध होता है, माँ बड़ी है, और पुत्र छोटा है। कैलास पर्वत ने भी, भगवान शंकर को अपनी गोद में उठा रखा है, तो कैलास पर्वत बड़े व शम्भु नाथ छोटे ही सिद्ध हुए न? ऐसे में अगर मैं, भगवान शंकर को उठाने वाले कैालास को ही अपने कंधों पर उठा लूँ, तो स्वाभाविक ही संपूर्ण जगत में मेरी कीर्ति का प्रसार हो जायेगा।
रावण अपनी ही धुन में रमा हुआ है। रावण कैलास को जब उठाने लगा, तो उसके मन में एक और विचार आया। जिसे सोच कर वह और प्रसन्न हो उठा। विचार यह, कि रावण ने देखा, कि अरे! मेरी इस क्रिया में तो आम के आम तो हैं ही, साथ में गुठलियों के दाम भी हैं। वह ऐसे, कि मैं कैलास पर्वत को उठाते हुए, केवल कैलास पर्वत को ही थोड़ी न उठाऊँगा, साथ में स्वयं शंकर को भी तो अपने कंधों पर उठा रहा होऊँगा। इस महान दृष्य के सुखद परिणामों के बारे में तो मैंने सोचा ही नहीं था। कारण कि कैलास पर्वत को, भगवान शंकर सहित अपने कंधों पर उठा लेना, अर्थात इसका सीधा-सा तात्पर्य निकला, कि जिन भगवान शंकर ने संपूर्ण जगत के भार को, अपने कंधों पर उठा रखा है, मैंने उन्हीं भगवान शंकर को, अपने बलवान कंधों पर उठा लिआ है। ऐसे में तो यही सिद्ध होगा, कि मैं भगवान शंकर से भी अधिक बलवान हूँ।
क्या रावण के ऐसे विचारों में कोई सत्यता थी? रावण कितने बड़े भ्रम में था, इसका अनुमान उसे रत्ती भर नहीं था। आगामी अंक में हम इसी विषय पर मंथन करेंगे। जय श्रीराम---क्रमशः
- सुखी भारती