By अभिनय आकाश | Nov 22, 2021
आप अक्सर राजनीतिक चर्चाओं में स्कूल में कॉलेज में बहुत सारी बातें करते होंगे। बहुत सारे शब्द सुनते होंगे। उस दौरान दो शब्द से भी आप जरूर रूबरू होते होंगे- दक्षिणपंथ और वामपंथ। 18वीं सदी में जब फ्रांस में क्रांति हुई तो वहां के सेंट्रल हॉल में नेशनल असेंबली में वहां का अभिजात्य वर्ग बैठा। पढ़े लिखे लोगों ने वहां बैठकर सोचा कि देश को चलाने के लिए संविधान की जरूरत है। वहां का सिटिंग अरेंजमेंट प्लान किया हुआ नहीं थी। जो वहां का अमीर वर्ग था वो दाहिनी तरफ बैठा यानी दक्षिण की तरफ बैठा। जो गरीब, मजदूर या आम लोग थे वो बाई तरफ बैठे। बाकी बचे लोग जो दोनों खांचे में खुद को फिट नहीं मानते थे वो बीच में बैठे। वहां से ये परिकल्पना शुरू हुई कि जो दाहिनी तरफ बैठे वो दक्षिणपंथी हो गए जो बाई ओर बैठे वो वामपंथी हो गए और जो किसी भी खांचे में फिट नहीं बैठते थे वो बीच में बैठ गए।
एक पार्टी का जन्म
दुनिया भर के देशों के बीच आपसी राजनीतिक और आर्थिक संबंध बनाने के ज़ोर वाले दौर में एमएन रॉय की भाकपा और उसके बाद की शाखाएं थीं जो भारत में वामपंथी राजनीति का चेहरा बन गईं। पार्टी की स्थापना में मानवेंद्र नाथ रॉय ने अहम भूमिका निभाई। जिन्होंने वर्ष 1919 ई में मेक्सिको के बोल्शेविक मिसाइल बोरोदीन के साथ मिलकर “मेक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी” बनायी थी। उस समय अनेक क्रांतिकारी नेताओं जैसे अवनी मुखर्जी, एलविन ट्रेंट राय, मोहम्मद शफीक सिद्दीकी, मंडयन प्रतिवादी, भयंकर तिरूमल आचार्य इत्यादि ने मानवेंद्रनाथ काय के नेतृत्व में 17 अक्टूबर 1920 को रूस के ताशकंद में “भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना” की। अपने शुरुआती दिनों के दौरान, भाकपा ने एक क्रांतिकारी कारण के लिए किसानों और श्रमिकों को लामबंद करने पर ध्यान केंद्रित किया, साथ ही साथ एक मजबूत वामपंथी विचारधारा विकसित करने का काम किया। हालांकि, अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में इसकी जड़ें होने का मतलब था कि भाकपा ने राष्ट्रवादी आंदोलन में अपने पैर जमाने के लिए कड़ा संघर्ष किया। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और विभिन्न मार्क्सवादी-लेनिनवादी दल ताशकंद में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में मान्यता देते हैं। लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) 1925 में बनी पार्टी को भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी मानते हैं। यह मतभेद की स्थिति आज तक बनी हुई है।
राष्ट्रवादी आंदोलन से खुद को किया अलग
समस्या तब पैदा हुई जब 1940 के दशक में गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, लगभग उसी समय जब सोवियत संघ ने भाकपा से फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में ब्रिटिश युद्ध के प्रयासों का समर्थन करने का आग्रह किया। रूसियों को खुश करने के क्रम में उन्होंने खुद को राष्ट्रवादी संघर्ष से अलग कर लिया। दरअसल, इस समय भारत में ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबंदी लगा रखी थी। कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों ने अपनी पार्टी से पाबंदी हटाने और सोवियत यूनियन को जर्मनी के विरुद्ध युद्द में मदद करने के लिए ब्रिटेन सरकार की मदद की और बाद में ब्रिटिश सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी से देश में बैन हटा दिया। यानी गांधी जी और सुभाष जी देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे वहीँ यह लोग अंग्रेजों का साथ दे रहे थे। दरअसल, पूरा मामला था कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विश्व युद्ध को 'जनता का युद्ध' कहा। इस युद्ध में जर्मनी, इटली और जापान की सेनाएं एक तरफ थीं तो दूसरी तरफ सोवियत संघ, ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका की सेनाएं थीं. यानी ब्रिटेन सोवियत संघ का सहयोगी था। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विश्लेषणों के बाद इस नतीजे पर पहुंची कि ब्रिटेन के ख़िलाफ़ भारत छोड़ो आंदोलन चलाने से नाजी सेनाओं को हराने के लिए मित्र राष्ट्र की सेनाओं की कोशिशों को धक्का लगेगा। वहीं महात्मा गाँधी का विचार था कि ब्रिटिशों को उनके घुटने पर लाने के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है। हालाँकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ का पक्ष लिया और भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था।
नेताजी को तोजो का कुत्ता बुलाय़ा था
वामपंथी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के लिए इस तरह के अपमानजक कार्टून अपने मुखपत्रों में छापते थे। 1940 में कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तिका 'बेनकाब दल व राजनीति' में नेताजी को 'अंधा मसीहा' कहा गया। फिर उनके कामों को कहा गया, 'सिद्धांतहीन अवसरवाद, जिसकी मिसाल मिलनी कठिन है। यह सब तो नरम मूल्यांकन था। धीरे-धीरे नेताजी के प्रति कम्युनिस्ट शब्दावली हिंसक और गाली-गलौज से भरती गई। वामपंथियों ने सुभाषचंद्र बोस के लिए ”तोजो का कुत्ता” जैसे शब्द इस्तेमाल किए थे। क्योंकि सुभाष जी ने आजाद हिन्द फौज के लिए जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री तोजो की सहायता ली थी।
बाबा साहेब ने कम्युनिस्टों के प्रति किया था आगाह
डॉ बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने 12 दिसंबर 1945 को नागपुर के अपने भाषण में देश की जनता को वामपंथियों के मंसूबों को लेकर आगाह किया था। बाबा साहेब ने तब कहा था कि ‘मैं आप लोगों को आगाह करना चाहता हूं कि आप कम्युनिस्टों से बच कर रहिए क्योंकि अपने पिछले कुछ सालों के कार्य से वे कामगारों का नुकसान कर रहे हैं, क्योंकि वे उनके दुश्मन हैं, इस बात का मुझे पूरा यकीन हो गया है...हिन्दुस्तान के कम्युनिस्टों की अपनी कोई नीति नहीं है उन्हें सारी चेतना रूस से मिलती है।‘
केरल से हुई राजनीतिक सफलता की शुरुआत
भारत को 1947 में आज़ादी मिली। आज़ादी के शुरुआती दिनों में कम्युनिस्टों ने प्रस्ताव पास करते हुए कहा था कि जो हासिल किया गया है वह केवल सत्ता का हस्तांतरण था कि ना कि स्वतंत्रता। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को कांग्रेस सरकार के ख़िलाफ़ लड़ाई न करने की सलाह देते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय 'बुर्जुआ वर्ग' (अभिजात्य) के हाथ में ही नेतृत्व है। 1949 में चीन में माओ के नेतृत्व में क्रांति हुई और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन ने सोवियत संघ की जगह लेनी शुरू कर दी। चीन की नीतियों की वकालत करने वाले लोगों को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में तरजीह मिलने लगी। 1951 में चंद्र राजेश्वर राव ने बीटी रणदीवे की जगह पार्टी प्रमुख की जगह ली। 1952 तक इसने केवल सड़कों के बजाय शासन के स्थान पर कब्जा करने की आवश्यकता को महसूस किया और संसदीय राजनीति को अपनाने का फैसला किया। भारतीय आबादी के कुछ वर्गों के बीच पर्याप्त समर्थन हासिल करने में सफल होने के बाद, यह जल्द ही कांग्रेस के सामने पहली प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी। पार्टी ने 1957 के विधान सभा चुनावों में केरल राज्य में अपनी पहली चुनावी सफलता का अनुभव किया। इससे इस भरोसे को बल मिला कि कम्युनिस्ट चुनाव के ज़रिए भी सरकार में आ सकते हैं। दो दशक बाद पार्टी ने पश्चिम बंगाल में और उसके तुरंत बाद त्रिपुरा में पैर जमा लिया। वर्ष 1959 में जब भारत की तत्कालीन सरकार ने इस बात का खुलासा किया, कि लद्दाख के आस पास चीन भारत की जमीन पर अतिक्रमण कर रहा है तो चीन का विरोध करने की बजाय वामपंथियों ने बिल्कुल चुप्पी साध ली थी और यहां तक कि उस दौरान वापमंथी पार्टियों ने कुछ ऐसे बयान भी जारी किए, जो चीन के तो हित में थे लेकिन भारत की संप्रभुता के लिए खतरा थे। यहां तक कि 60 वर्ष पहले जब चीन की सेना ने तिब्बत पर जबरदस्ती कब्जा किया तब भी वामपंथियों ने चीन का साथ दिया और कहा कि चीन तिब्बत के लोगों को अंधकार से बाहर निकालने का काम कर रहा है।
1962 के युद्ध में चीन का साथ
1962 का युद्ध के दौरान अपनी असली पहचान उजागर करते हुए वामपंथियों ने चीन सरकार का समर्थन किया। वामपंथियों ने यह दावा किया कि “यह युद्ध नहीं बल्कि यह एक समाजवादी और एक पूंजीवादी राज्य के बीच का एक संघर्ष है।” कलकत्ता में आयोजित एक सार्वजनिक कार्यक्रम में बंगाल के सबसे ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु ने तब चीन का समर्थन करते हुए कहा था – “चीन कभी हमलावर हो ही नहीं सकता। ज्योति बसु के समर्थन में तब लगभग सारे वामपंथी एक हो गए थे। युद्ध के समय वामपंथियों की चीन के समर्थन में किये देशद्रोही कार्य का कुछ दिनों पहले एक विदेशी खुफिया एजेंसी ने खुलासा भी किया था। 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध ने एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के कई नेताओं को युद्ध में चीन का समर्थन करने के आरोप में जेल में डाल दिया गया।
पार्टी का विभाजन
पार्टी में दो धड़ों के बीच संघर्ष तेज़ हो गया। साल 1964 में पार्टी में हुए विभाजन के बाद कई लोगों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बना ली। 1965 को भारत के तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी नंदा ने एक रेडियो कार्यक्रम में कहा था कि सीपीआईएम का गठन बीजिंग के निर्देश पर हुआ है। ताकि देश में अस्थिरता पैदा की जा सके और एशिया पर चीन का प्रभुत्व स्थापित किया जा सके। 1964 के विभाजन के तीन साल बाद, हालांकि, सीपीआई-एम के भीतर एक और मतभेद था, जिसमें कट्टरपंथियों के एक गुट का दावा था कि संसदीय राजनीति में तल्लीन पार्टी ने सशस्त्र क्रांति के मूल कारण को छोड़ दिया था। 1969 में चारु मजूमदार के नेतृत्व में इस समूह ने चीनी क्रांति को दोहराने के प्रयास में उत्तरी बंगाल के नक्सलबाड़ी में हिंसक हमलों का नेतृत्व किया। भारत में नक्सल आंदोलन की शुरुआत हुई और दशकों तक हजारों लाखों लोगों का खून बहता रहा और आज भी बह रहा है। पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बासु ने अपनी पुस्तक A Political Autobiography में लिखा है कि चारू मजूमदार और उनके समर्थकों ने उनसे कहा था कि हम माओ के अनुयायी हैं और चीन का चेयरमैन ही हमारा चेयरमैन है। वर्ष 1970 में पश्चिम बंगाल की दीवारों पर माओ त्से तुंग के पोस्टर्स लगाए जाते थे जिनमें यही बात लिखी होती थी कि चीन का चेयरमैन ही हमारा चैयरमैन है।
डोकलाम के वक्त चीन का साथ
वर्ष 2017 में जब डोकलाम में भारत और चीन के बीच विवाद हुआ था तब सीपीआईएम ने खुलकर चीन का समर्थन किया था और अपने मुखपत्र में लिखा था कि इसके लिए भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत की अमेरिका से नजदीकी जिम्मेदार है। इसमें ये भी लिखा गया था कि भारत दलाई लामा को जो समर्थन दे रहा है उससे चीन गुस्से में है। इसी मुखपत्र में ये भी लिखा था कि भारत को भूटान के मामलों में दखल अंदाजी नहीं करनी चाहिए और भूटान को चीन के साथ अपनी सीमा का विवाद खुद सुलझाने देना चाहिए।
चीन के जश्न में शामिल हुए वामपंथी नेता
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के 100 वर्ष पूरा होने के अवसर पर जश्न के आयोजन से जुड़ा। दरअसल, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर भारत में चीन के दूतावास में सेमिनार का आयोजन किया गया। सेमिनार में सीताराम येचुरी डी राजा सहित कई नेता शामिल हुए। इस सेमिनार का थीम था- 'पार्टी-निर्माण, आदान-प्रदान और सहयोग को बढ़ावा देने के लिए अनुभव साझा करना' था।' लेफ्ट फ्रंट के नेताओं की मौजूदगी में चीनी राजदूत ने इस मौके पर पूर्वी लद्दाख की गलवान वैली और पैंगोंग लेक की घटनाओं का भी जिक्र किया। अपने भाषण के दौरान लद्दाख और गलवान पर अपने देश का पक्ष रखते हुए चीन के राजदूत ने कहा कि पूरी दुनिया को पता है कि वहां किसने सही किया और किसने गलत।
-अभिनय आकाश