शौक, शॉक और शोक (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा | Nov 10, 2020

शिक्षक के लिए शोक और शौक में ओ-औ की मात्रा का अंतर होता है। जबकि अनुभव करने वाले के लिए पूरी जिंदगी का। ऐसा ही कुछ हुआ था मेरे साथ। जमाने के साथ कदमताल मिलाने के चक्कर में कब अपने ही कदमों में गिर पड़ा, पता ही नहीं चला। एक समय था जब मैं गांधीवादी सिद्धांतों का अंधभक्त हुआ करता था। किंतु बाद में पता चला कि उनके सिद्धांत पुलिसिया लाठी से कम नहीं है। या तो आदमी सुधरेगा या फिर सिधर जाएगा। किंतु नेताओं की इस मामले में दाद देनी चाहिए। उन्होंने गांधी जी को अच्छी तरह से हैंडिल किया। उन्हें नोट और वोट के पेंच में ऐसे फंसाया कि गांधी जी की आत्मा भी ताज्जुब कर रही होगी। असली पिता को लात मारने वाले समकालीन देश में राष्ट्रपिता को अपनी उपाधि पर हँसी आ रही होगी। जो अपने बाप के न हुए वे उनके क्या होंगे! मैं भी कभी उनका अनुयायी हुआ करता था। उन्होंने मातृभाषा को माँ का दूध कहा। मैंने हँसी-खुशी अपनाया। किंतु ग्लोबलाइजेशन की खिड़की से झांकने पर दूर-दूर तक मातृभाषा तो क्या, उसकी छाया तक नजर नहीं आयी। इसलिए मैंने अपने इकलौते लड़के में अंग्रेजी शिक्षा के बीज बो दिए। मुझे क्या मालूम था कि यह बीज आगे चलकर वटवृक्ष बनेगा। मेरे खपरैल घर की दीवारों-छज्जों को तोड़-ताड़कर यह पेड़ इतना बड़ा बन बैठेगा कि मेरी जिंदगी की बुनियाद ही हिला देगा।

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लड़का अंग्रेजी की तूती क्या बोलने लगा, मेरी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी। बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी के साथ वहीं से एक बहू भी ले आया। पहले पहल दलदल के ऊपर खिलने वाले फूलों की तरह उनके व्यवहार ने मेरा मन मोह लिया। लेकिन बाद में पता चला कि मैं उनके लिए बोझ हो रहा हूँ। हॉल में बैठकर समाचार पत्र पढ़ने वाला मैं, रसोईघऱ में ट्रांसफर कर दिया गया। इंसानों के साथ-साथ चूहे-बिल्लियों की मनपसंदीदा जगह में घुसपैठ करोगे तो खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। मैंने भुगता भी। कई बार आटे-तेल ने मुझे सुशोभित किया। बेटा-बहू इसे मेरी चुहल समझते। एक दिन बहू का संदेशा लेकर बेटा मेरे पास पहुँचा। बोला- वी फेडप विथ यू। वी नीड प्रायवेसी। मैं हर बाप की तरह रोया-गिड़गिड़ाया और कहा– बेटा तुम बहुत बदल गए हो। बेटे पर इसका कुछ असर नहीं हुआ। उस दिन मुझे लगा बेटा तो केवल हार्डवेयर है। दोष तो अंग्रेजी सॉफ्टवेयर का है। आखिरकार मुझे उन दोनों ने जीते जी धऱती पर स्वर्ग कहलाने वाले गोल्डेज नामक ओल्डेज होम में छोड़ दिया।

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जब बेटा मुझे छोड़कर जाने लगा तो मुझे यकीन हो चला था अब वह मुझे मिलने कभी नहीं आएगा। ऑनलाइन के जमाने में ऑफलाइन की बात करना बेइमानी है। मैंने लड़के को केवल इतना कहा– मैंने कभी सचिन, धोनी को माँ के दूध का प्रचार करते हुए नहीं देखा। वे तो हमेशा दुनिया को बूस्ट पिलाते रहे। मुझे लगा उनकी सफलता का रहस्य भी यही है। मैंने गांधी जी की माँ समान दूध वाली मातृभाषा वाली उक्ति को ताक पर रखते हुए डिब्बे के दूध वाली अंग्रेजी से तुम्हें पाला-पोसा। मुझे नहीं पता था कि यह अंग्रेजी एक दिन भारतीय भाषाओं को रिक्शा चलाने वालों, दिहाड़ी मजूदरों, गरीबों, निम्नवर्गीय लोगों की बोलचाल वाली भाषा बनकर रह जाएगी। इस भाषा ने न केवल तुम्हें मुझ से छीना है, बल्कि सारे संस्कार, मूल्य, रीति-रिवाज व परंपराओं को भी रौंदा है। बेटा, मैं जानता हूँ कि तुम फिर कभी मुझसे मिलने नहीं आओगे। कोई बात नहीं। कम से कम अपने होने वाली संतान को अंग्रेजी के साथ-साथ संस्कार, मूल्य व संस्कृति की ऐसी सीख सिखाना कि वह तुम्हें या तुम्हारी पत्नी को यहाँ छोड़कर न जाए। मैं नहीं चाहता कि तुम्हें अंग्रेजी पढ़ाने का शौक कोई शॉक दे। क्योंकि कुछ शौक, पहले शॉक और आगे चलकर गहरा शोक दे जाते हैं।


- डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त

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