कांक्रिट के अनोखे जंगल (व्यंग्य)

By डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ | Dec 12, 2020

हम सब क्रांक्रिट के जनारण्य में एकदम कांक्रिट बनकर जी रहे हैं। रिश्तेनाते, भाईचारा और तो और संवेदनाएँ भी कांक्रिट होती जा रही हैं। आज डार्विन का अस्तित्ववाद सिद्धांत बदल कर क्रांक्रिटवाद हो गया है। जो जितना कांक्रिट जैसा कड़ा है, वह उतना अधिक अपना अस्तित्व बचाए रखने में सक्षम है। कांक्रिट बने रहने का एक लाभ यह होता है कि इसमें बनावटीपन अपने आप आ जाता है। अलग से सीखने की आवश्यकता नहीं पड़ती। जिस तरह भवन की मजबूती के लिए सिमेंट में डॉ. फिक्सिट मिलाया जाता है, हम भी कुछ उसी तरह से स्वयं को संवेदनारहित करने के लिए शरीर के भीतर स्वार्थ का डॉ. फिक्सिट डाल लेते हैं। हमने अपने चारों ओर स्वार्थ मोहजाल का एक ऐसा जाला बुन लिया है जिसे अगर मकड़ी भी देख ले तो ईर्ष्या करने लगे। अब जमाना यह आ गया है कि लाखों रुपयों की गाड़ी से उतरने वाला कोई व्यक्ति नीचे की ओर न देखकर ऐंठन भरी गर्दन से ऊपर की ओर इधर-उधर देखता है। उसका इस तरह से उतरना कोई देखता है तो उसे बड़ा गर्व होता है। एक समय था जब लोगों को सहायता करने, सुख पहुँचाने में गर्व हुआ करता था। अब गर्व करने के मायने भी दोगले हो गए हैं।

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भिखारी को भीख देते समय भी एक से दो बार इधर-उधर देखते हैं कि कोई उन्हें देख रहा है या नहीं। यदि कोई देख रहा है तो उस एक क्षण के लिए घमंड करने का अवसर व्यर्थ जाने नहीं देते। शायद अब यह दिखावा ही जिंदगी की गाड़ी का पेट्रोल बन गया है। समुद्र तट के किनारे मूँगफली बेचने वाले फेरी वाले को देखकर बच्चा जिद करने लगता है। माता-पिता बच्चे की जिद पूरी भी कर देते हैं। ऐसा इसलिए कि वे बच्चे को अपने भविष्य का सहारा समझते हैं। यदि उसी समय भीख माँगता कोई बच्चा आ जाए तो उसे दुत्कार कर भगा देते हैं। मूँगफली बेचने वाला यह दृश्य मात्र मूक दर्शक की तरह देखकर रह जाता है। उसे पता है दोनों को मूँगफली चाहिए। किंतु दोनों में केवल एक की माँग पूरी हो सकती है।


वैसे भी इस स्थिति को भांपने के लिए पुस्तकीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। आवश्यकता है तो दुनियादारी की। जोकि सबके पास है, पर दिखाता कोई-कोई है। दोनों बच्चों में अंतर केवल इतना है कि एक को मूँगफली खरीद कर दिलाने वाला है तो दूसरे को नहीं। कितना कड़वा सच है कि भगवान की धरती पर उपजी मूँगफली पर सबका अधिकार नहीं है। जिससे स्वार्थ है उसी को मूँगफली मिल पाती है, जिससे नहीं वह अपने आपको छला हुआ पाता है।

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समुद्र की लहरें ज्ञान का फलसफां हैं। हमें कुछ न कुछ सीख देती रहती हैं। लहरों की थपेड़ों से समुद्र में से कोई न कोई चीज़ बाहर आ जाती है। वही लहरें वापस जाते समय अपने साथ कुछ न कुछ ले जाती हैं। कभी किसी जलचर को किनारे पर फेंक जाती हैं। यह दृश्य जलचर में मृत्यु का सिहरन पैदा करता है। लहरों की थपेड़ों से थोड़ी देर के लिए पीछे हटने वाला जलचर फिर से अपने मनोबल, आत्मधैर्य, आत्मविश्वास का परिचय देकर लहरों पर सवार होकर वापस समुद्र में चला जाता है। ठीक उसी तरह का मनोबल, आत्मधैर्य, आत्मविश्वास की आवश्यकता आज के समाज को है। आज एक महामारी है। कल और आ सकती है। ये सारी परेशानियाँ लहरें बनकर अपने थपेड़ों के बल से हमें जीवन से दूर ले जाने का प्रयास करती हैं। ऐसी परिस्थितियों में मौत का सिहरन हमें कमजोर बना सकता है। हमें डर से उठकर आगे बढ़ने का विश्वास दिखाना चाहिए। दुनिया को बताना होगा कि हम संवेदनारहित कांक्रिट जंगल में दानव बनकर नहीं संवेदनायुक्त आत्मीयता के तपोवन में मानव बनकर रहने का अटल विश्वास रखते हैं।


-डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त'

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