हिंदी के साथ-साथ कई भाषाओं के विद्वान थे हजारी प्रसाद द्विवेदी

By अंकित सिंह | May 19, 2022

जब-जब हिंदी के प्रख्यात एवं विज्ञान विद्वान लेखकों की बात आएगी, उसमें हजारी प्रसाद द्विवेदी का नाम बेहद ही सम्मान से लिया जाएगा। भले ही हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी की सेवा की हो लेकिन वह अंग्रेजी, संस्कृत और बंगला भाषा के भी विद्वान थे। अपनी आलोचनाओं के जरिए वह सरकार और शासन पर तो कटाक्ष करते ही रहे, साथ ही साथ उपन्यास, निबंध और संपादन के जरिए लोगों तक हिंदी और उसके प्रभाव को पहुंचाने के लिए उन्होंने काफी काम किया है। आधुनिक हिंदी साहित्य में हजारी प्रसाद द्विवेदी की भूमिका काफी अहम रही है। हजारी प्रसाद द्विवेदी का व्यक्तित्व प्रभावशाली था ही, उनका स्वभाव भी सरल तथा उदार रहा है। उनका निबंध, साहित्य हिंदी के स्थाई विधि है। उनकी लेखनी में मौलिक चिंतन का छाप मिलता है।

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हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 19 अगस्त 1960 में बलिया जिले के दुबे-का-छपरा नामक गांव में हुआ था। उनका वास्तविक नाम बैजनाथ द्विवेदी था। उनके पिता श्री अनमोल द्विवेदी और माता श्रीमती ज्योतिष्मती थीं। इनका परिवार ज्योतिष विद्या में काफी प्रसिद्ध था। इनके पिता संस्कृत के प्रकांड विद्वान माने जाते थे। हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रारंभिक शिक्षा उनके गांव पर ही हुई। उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने संस्कृत महाविद्यालय काशी में दाखिला लिया। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के बाद उन्होंने 1930 में ज्योतिष विषय को लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि पाई। इसके बाद उन्होंने शांति निकेतन का रुख किया। 8 नवंबर 1930 को उन्होंने शांतिनिकेतन में हिंदी शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया। लगभग 20 वर्षों तक उन्होंने शांति निकेतन में अध्यापक का काम किया। लखनऊ विश्वविद्यालय ने उन्हें ड.लिट. उपाधि देकर सम्मानित किया। शांति निकेतन में ही रविंद्र नाथ ठाकुर से प्रभावित होकर हजारी प्रसाद द्विवेदी ने साहित्य के क्षेत्र में काम करना शुरू किया।


हजारी प्रसाद द्विवेदी 1950 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर और हिंदी विभाग यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। इसके बाद लगातार हजारी प्रसाद द्विवेदी सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने स्वतंत्र लेखन आरंभ किया। हजारी प्रसाद द्विवेदी को भक्ति काल की रचनाओं का विद्वान माना जाता है। हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचनाओं की भाषा थोड़ी खड़ी हुआ करती थी। भाव और विषय के बीच उन्होंने बेहद अच्छे से तालमेल बिठाते हुए चयनित भाषाओं का प्रयोग किया। यही कारण है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी के रचनाओं की लोकप्रियता लगातार बढ़ती रही। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जिस तरीके से भाषा का प्रयोग किया, उसमें दो रूप से दिखते थे। पहला था- प्रांजल व्यवहारिक भाषा जबकि दूसरा था- संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय भाषा। दोनों में हजारी प्रसाद द्विवेदी को महारत हासिल थी। उन्होंने भारत के मध्य युग के आध्यात्मिक के जीवन के आध्यात्मिक विश्लेषण से संबंधित कुछ रचनाएं लिखी। इसके अलावा उन्होंने हिंदी के जरिए अलोचना के इतिहास को एक नया तरीका और रास्ता प्रदान किया। 


हजारी प्रसाद द्विवेदी जितने गद्य में निपुण थे उतना ही उन्होंने पद्य को भी लिखने में का काम किया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के जीवन में भी कई उतार-चढ़ाव आए। हालांकि वे सभी को अपने सरल स्वभाव की वजह से आसानी से पार कर लेते थे। प्रतिद्वंद्वियों के विरोध की वजह से उन्हें 1960 में काशी विश्वविद्यालय से निष्कासित कर दिया गया। उन्होंने कुछ समय के लिए पंजाब विश्वविद्यालय में भी हिंदी विभाग के प्रोफेसर और अध्यक्ष के तौर पर काम किया। 1967 में वे दोबारा काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष होकर वापस लौटे। 1968 में विश्वविद्यालय के रेक्टर पद पर उनकी नियुक्ति हुई। वह इस पद पर 1970 तक बने रहे। इसके अलावा हजारी प्रसाद द्विवेदी उत्तर प्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के अध्यक्ष तथा 1972 से आजीवन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थानस लखनऊ के उपाध्यक्ष रहे। 1973 में आलोक पर्व निबंध संग्रह के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा 1957 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म भूषण की उपाधि से सम्मानित किया गया। इसके साथ ही उन्हें 1962 में पश्चिम बंगाल साहित्य अकादमी द्वारा टैगोर पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हजारी प्रसाद द्विवेदी की मृत्यु 19 मई 1979 को हुई थी। भले ही आज हजारी प्रसाद द्विवेदी हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन हिंदी में किए गए उनके कार्य आज भी हम सबको उनकी विद्वता का दर्शन कराता है।

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उनके कुछ महत्वपूर्ण कार्य-

आलोचनात्मक- सूर साहित्‍य (1936), हिन्‍दी साहित्‍य की भूमिका (1940), प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद (1952), कबीर (1942), नाथ संप्रदाय (1950), हिन्‍दी साहित्‍य का आदिकाल (1952), आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य पर विचार (1949), साहित्‍य का मर्म (1949), मेघदूत: एक पुरानी कहानी (1957), लालित्‍य तत्त्व (1962), साहित्‍य सहचर (1965), कालिदास की लालित्‍य योजना (1965) इत्यादी


निबन्ध संग्रह- अशोक के फूल (1948), कल्‍पलता (1951), मध्यकालीन धर्मसाधना (1952), विचार और वितर्क (1957), विचार-प्रवाह (1959), कुटज (1964), आलोक पर्व (1972)


उपन्‍यास- बाणभट्ट की आत्‍मकथा (1946), चारु चंद्रलेख(1963), पुनर्नवा(1973), अनामदास का पोथा(1976)


- अंकित सिंह

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