Gyan Ganga: हनुमानजी और लक्ष्मणजी, दोनों ही वैराग्य की प्रतिमूर्ति हैं

By सुखी भारती | Jul 13, 2021

विगत अंक में हमें यह देखकर परम आश्चर्य हुआ था कि सुग्रीव को श्री हनुमान जी ने आखिर ऐसा कौन-सा मंत्र दिया था, कि सुग्रीव भयभीत भी हुआ और प्रभु श्रीराम जी की सेवा में उपस्थित होने का संकल्प भी ले लेता है। आपने ध्यान से अध्ययन किया होगा तो पाया होगा कि श्री लक्ष्मण जी सुग्रीव को चार विधियों का विशेष प्रकार का ज्ञान प्रदान करते हैं। जिसे पाने के पश्चात सुग्रीव में आमूल चूल परिर्वतन आ जाता है। पथभ्रष्ट कदम पुनः अपने मूल की और पलट जाते हैं। सोचिए अगर वह विधि आज के मानव को मिल जाये, तो मानव का तो कल्याण ही हो जायेगा। कारण कि सुग्रीव की ही भाँति आज का मानव भी तो ऐसे ही समस्त विषयों से त्रस्त है। बलात्कार, अनाचार व अन्य जघन्य अपराध इन विषयों की ही तो पौध हैं। जिन्हें समाप्त करने के लिए एक से एक उपाय किए जा रहे हैं। लेकिन तब भी परिणाम पूर्णतः शून्य से अधिक तो आ ही नहीं रहा न। घर से लेकर पाठशाला, पाठशाला से लेकर उच्च शिक्षा केन्द्र और साथ में विभिन्न प्रकार की धार्मिक की शिक्षाएँ, सब मिलकर भी वर्तमान मनुष्य की विषाक्त बुद्धि का विष हर नहीं पा रहे हैं। लेकिन यहाँ श्री हनुमान जी ने ऐसा मंत्र फूँका कि फनीअर नाग को भी सुंदर फूलों की माला बनने में क्षण मात्र न लगा। यूँ लगा कि कोई कुआँ सदियों से कड़वा था और श्री हनुमान जी ने पता नहीं कौन-सी शहद की चार बूंदें डालीं कि पूरा कुआँ ही शहद का स्रोत बन गया। हमें निश्चित ही श्री हनुमान जी द्वारा प्रदत, वह चारों विधियों का ज्ञान पाने का प्रयास करना ही होगा। क्योंकि उस महान ज्ञान का प्रभाव हम अपनी आंखों से सुग्रीव के जीवन में देख ही पा रहे हैं। हालांकि संसार में बहुत से व्याख्याकार इन चार विधियों की व्याख्या धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के संदर्भ में करते हैं। लेकिन इन चार विधियों का अर्थ मात्र यही तक ही सीमित नहीं है। क्योंकि इन चार विधियों का वर्णन मात्र श्रीरामचरितमानस में ही नहीं है, अपितु समय-समय पर प्रत्येक महापुरुष ने अपनी वाणियों में विभिन्न नामों से इन चार विधियों की चर्चा की है। जैसे भक्तिमति मीरा बाई अपनी वाणी में कहती हैं-

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गली तो चारों बंद हुई, मैं पिया से मिलन कैसे जाऊँ।


गुरबाणी में इसे चार पदार्थ कहा गया है- 


‘चार पदारथ जे को मागै। 

साध जना की सेवा लागै।।’ 

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महात्मा बुद्ध इसे चार आर्य सत्य व भगवान महावीर चार घाट के नाम से पुकारते हैं। ईसाई धर्म ग्रथों में इसे ‘फोर नोबल टरुथ’ के नाम से जाना जाता है। यह चार विधियां अगर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष हों तो एक आपत्ति खटकने लगती है। वह यह कि ‘अर्थ’ से तात्पर्य तो धन होता है। और भक्तिमति मीरा बाई जब गुरू रविदास जी के सान्निध्य में जाती हैं, और मान लिया जाये कि मीरा बाई ने गुरु रविदास जी से अर्थ अर्थात धन प्राप्त किया, तो यह बात गले उतरती नहीं है। क्योंकि भक्तिमति मीरा तो स्वयं चितौड़ की महारानी है। उसके पास भला धन का क्या अभाव? और एक बार के लिए मान भी लिया जाये कि मीरा बाई जी श्री रविदास जी के पावन सान्निध्य में धन ही प्राप्त करने गई थी, तो यह भी तर्क की दृष्टि से खरा नहीं उतरता। क्योंकि सर्व विदित है कि श्री रविदास जी के पास धन का सर्वदा अभाव था। तो यहीं सिद्ध हो जाता है कि भक्तिमति मीरा धन प्राप्ति हेतु श्री रविदास जी के सान्निध्य में भला क्यों गई होंगी? तो यहाँ ‘अर्थ’ का भाव धन कदापि नहीं है। तो प्रश्न उठता है कि फिर श्रीरामचरितमानस में वर्णित यह चार विधियां आखिर हैं क्या? सज्जनों वास्तव में यह चार विधियां का संबंध बाहरी जगत से है ही नहीं। अपितु यह चार विधियां मानव तन में घटने वाली चार आध्यात्मिक दिव्य अनुभूतियां हैं। और यह दिव्य अनुभूतियां तभी सुलभ हो पाती हैं, जब कोई पूर्ण संत हमारे जीवन में शुभ आगमन करते हैं। और सौभाग्य से सुग्रीव के जीवन में श्री हनुमान जी के रूप में वह पूर्ण संत बिराजमान हैं। और प्रभु श्रीराम जी की प्रेरणा से वे सुग्रीव को इन चार अनुभूतियां का रसास्वादन करवाते हैं। जिन्हें पाकर मानो घोर अंधकार से सनी अमावस्या की काली डरावनी रात्रि भी सुंदर, उजली व चमकती पूर्णिमा में परिर्वतित हो जाती है। या यूं कहें कि अनंत काल से उजड़े, अनाथ व बेबस से बाग, जिनसे बहार को रूठे सदियों बीत गई थी, मानो वहाँ अचानक ही चारों दिशायों से बहारों के झुण्ड़ों के झुण्ड़ आकर डेरा बसाने लगे। और सुग्रीव यह प्रमाण था कि सुग्रीव का विषयों की मार से अधमरा हुआ हृदय भी मानों भक्ति से हरा भरा हो गया था। लेकिन क्योंकि श्रीराम जी की सेवा की अवज्ञा करने का पाप तो किया ही था, तो सुग्रीव भयभीत तो अभी था ही। और उसके भय का पूर्ण निवारण तो तभी संभव था, जब श्री लक्ष्मण जी का क्रोध शाँत हो। और इसका उपाय तो केवल और केवल श्री हनुमान जी ही जानते थे। इसके पीछे भी एक ज्ञान की ही गाथा है। क्योंकि श्री हनुमान जी व श्री लक्ष्मण जी, दोनों ही वैराग्य की प्रतिमूर्ति हैं। तो दोनों को एक दूसरे का भेद अच्छी प्रकार से पता है। दोनों का उद्देश्य भी समांनांतर है। और इसलिए दोनों ही प्रयास में हैं कि सुग्रीव किसी न किसी प्रकार से श्रीराम जी की सेवा के अभियान का अंग बना जाये। सुग्रीव भले ही भीतर से विषयों को लात मारकर श्रीराम जी को हृदय से समर्पित था, लेकिन श्रीलक्ष्मण जी का भय उसे अभी भी कंपित किए हुए था। और श्री हनुमान जी थे कि कोई उपाय बता ही नहीं रहे थे। मानों कहना चाह रहे हों, कि हे सुग्रीव कुछ उपाय तुम भी तो सुझाओ। ऐसे पूर्णतः निराश होकर बैठने से भला कैसे चलेगा। आज तो हम आपके साथ हैं, और आपको उपाय बता रहे हैं। लेकिन जीवन में हम सदैव तो आपके साथ नहीं रहेंगे। तब आप क्या करेंगे? आप भी कुछ चिंतन कीजिए, सोचिए कि आखिर समस्या की जड़ कहाँ है? विचार कीजिए कि किसके पीछे लगकर आपने प्रभु का पीछा छोड़ दिया। समझ लीजिए कि आपकी समस्या का समाधान उसी क्षण निकल आयेगा। और तभी सुग्रीव के हाथ एक सूत्र लगता है। क्या था यह सूत्र? जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!


-सुखी भारती

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