By सुखी भारती | Mar 03, 2022
कमाल का घटनाक्रम घट रहा है। श्रीहनुमान जी यहाँ एक ऐसी भूमिका में हैं, जो कि उनके चरित्र के पूर्णतः विपरीत सा प्रतीत होता है। विपरीत इसलिए, क्योंकि विगत काल में जब श्रीराम जी और श्रीहनुमान जी के मध्य यह चर्चा हो रही थी, कि आपने श्रीसीता जी को संदेश देना है, तो मात्र यही कहा था, कि हे हनुमंत लाल! आप श्रीसीता जी को मेरा बल और विरह की कथा कहना-
‘बहु प्रकार सीतहि समुझाएहु।
कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु।।’
लेकिन आगे के प्रसंगो का अवलोकन करने पर पता चलता है, कि श्रीहनुमान जी ने जिस प्रकार से वर्तमान घटनाक्रम को संभाला, वह अद्वितिय था। श्रीहनुमान जी श्रीसीता जी को कहते हैं, कि प्रभु श्रीराम जी ने कहा है, कि हे प्राणप्रिय सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानों अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चंद्रमा सूर्य के समान, और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानों खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप के श्वाँस के समान (जहरीली और गरम) हो गई है-
‘कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता।।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू।।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा।।
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।।’
श्रीहनुमान जी जैसी शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। वह बडे़ आश्चर्य में डालने वाली है। कारण कि श्रीराम जी के बिरह का वर्णन, श्रीहनुमान जी जैसे कर रहे हैं। वैसे सुंदर ढंग से तो शायद ब्रह्मा जी भी न कर पायें। इतने सुंदर व स्टीक उदाहरणों का प्रयोग तो एक मंझा हुआ कवि ही कर सकता है। या फिर वो कर सकता है, जिसने इस प्रकार का पत्नी वियोग का अनुभव किया हो। लेकिन यहाँ तो दोनों ही परिपेक्ष में, श्रीहनुमान जी अनुभव शून्य हैं। कारण कि कोई एक भी कविता ऐसी हमें नहीं देखने को नहीं मिलती, जिससे यह साबित हो कि वे एक शायर हैं। और न ही उन्हें पति धर्म का कोई अनुभव है। कारण कि वे तो ठहरे अखण्ड़ ब्रह्मचारी। उन्हें भला क्या पता कि पत्नी वियोग का शूल कैसा होता है। लेकिन तब भी वे पति-पत्नी वियोग का ऐसा सुंदर वर्णन कर रहे हैं, कि हमें आश्चर्य हो रहा है। इसके पश्चात तो श्रीहनुमान जी ऐसी बात कहते हैं, कि माता सीता का दुख व पीड़ा मानों अपनी जमीन ही खो देते हैं। माता सीता जी के लिए इससे बड़ी मल्लम हो ही नहीं सकती थी। जी हाँ! श्रीहनुमान जी कहते हैं, कि हे माते, प्रभु श्रीराम तो आपके वियोग की पीड़ा किसी को कह तक नहीं पाते। उन्होंने कहा है, कि अपना दुख कह डालने से घट जाता है। लेकिन मैं कहुँ किससे। कारण कि मेरा दुख कोई नहीं जानता है। केवल और केवल मेरा मन ही यह जानता है। और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। मेरा मन तो मेरे पास है ही नहीं। अब तुम स्वयं ही मेरे प्रेम का सार समझ लो।
श्रीसीता जी ने जैसे ही, श्रीहनुमान जी के मुख से, प्रभु के इन प्रेम भावों को सुना। तो वे तुरन्त ही प्रेम मगन हो गई। उन्हें शरीर की कोई सुधि न रही-
‘कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा।।
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही।।’
श्रीहनुमान जी के माध्यम से प्रयोग की जाने वाली यह शब्दावली को श्रीरामचरित मानस के अंदर ‘पच्चीकारी’ के नाम से संबोधित किया जाता है। पच्चीकारी किसे कहते हैं, इसे भी जान लें। बड़े-बड़े महलों में आपने देखा होगा, छतों को टिकाने के लिए, स्तंभ होते हैं। और उन स्तंभों पर काँच के सुंदर व रंग-बिरंगे टुकड़ों से नक्काशी की होती है। जिसमें फल बूटीयां व अन्य सुंदर दृश्यों को, उन स्तंभों पर उकेरा जाता है। स्तंभों के साथ-साथ, यह पच्चीकारी दीवारों पर भी की जाती है। जिससे उन स्तंभों व दीवारों की अभूतपूर्व सुंदरता देखते ही बनती होती है। श्रीहनुमान जी प्रभु के संदेश को प्रेषित करने लिए, ऐसी ही पच्चीकारी का प्रयोग करते हैं।
आगे श्रीहनुमान जी प्रभु के संदेश में क्या कहते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती