लद्दाख में जो हुआ, उससे लगता है कि चीन से लड़ाई अब लम्बी और कई मोर्चों पर एक साथ होगी। अतः हमें भी अपनी तैयारी वैसी ही करनी होगी। पहला मोर्चा सामरिक है। चीन कई सालों से सीमा क्षेत्र में सड़क, हवाई अड्डे, चौकियां आदि बना रहा है। इससे वह बहुत जल्दी सेना वहां भेज सकता है; पर 1962 के बाद भी हमारी सरकारों ने इधर ध्यान नहीं दिया। कई सैन्य रिपोर्टों और वरिष्ठ अधिकारियों की चेतावनी के बाद भी ढाक के पात तीन ही रहे। भारतीय नेता यह सोच कर डरते रहे कि हमारी सड़कों से ही चीन हमारे घर में न घुस आये। अब मोदी सरकार में निर्माण तेज हुए हैं। इनके लिए अच्छा बजट भी दिया गया है। चीन को इसी से मिर्चें लग रही हैं। 15 जून के संघर्ष का कारण भी यही कहा जाता है कि हमारे सैनिकों ने गलवान घाटी में उसके अवैध निर्माण को रोका था।
असल में भारत और चीन की सीमाएं अस्पष्ट हैं। अंग्रेजों ने 1947 में ये बिना उचित रेखांकन के छोड़ दीं, जिससे भारत पड़ोसियों से उलझा रहे और महाशक्ति न बन सके। चीन अपने पड़ोसियों की जमीन पर बुरी नजर रखता है। उसकी सीमा जितने देशों से लगी है, सबसे उसके विवाद हैं। तिब्बत हड़प कर अब उसकी दुष्ट नजर नेपाल, लद्दाख, सिक्किम, भूटान और अरुणाचल पर है। तिब्बत को वह हथेली और इन पांचों को उंगलियां मानता है। विषेषज्ञों के अनुसार कई जगह जैसे हम कमजोर हैं, वैसे ही कई जगह चीन भी कमजोर है। ऐसे स्थानों पर उसे लगातार चोट पहुंचानी चाहिए। हम भी उसकी सीमा में घुसकर चैकियां, बंकर आदि बनायें। यद्यपि इससे झड़पें होंगी, सैनिक भी शहीद होंगे; पर इससे उसकी एकतरफा घुसपैठ बंद होगी। हमें सीमा पर युद्धक विमान, तोप और सैनिकों की संख्या भी बढ़ानी होगी। भारत में अब विश्व स्तरीय रक्षा उपकरण बन रहे हैं। विदेश से भी इन्हें मंगाना चाहिए। कहते हैं कि दो समान शक्ति वाले प्रायः नहीं टकराते; पर असमान शक्ति वालों में टकराव निश्चित है। यदि चीन को लगेगा कि भारत उससे बराबर की टक्कर लेगा, तो वह लड़ने की भूल नहीं करेगा।
दूसरा मोर्चा आर्थिक है। हमारे बाजारों में हर तरह का सस्ता चीनी सामान मिलता है। कोरोना के कहर में स्वदेशी और स्थानीय सामान की बात कई लोगों ने कही है। अब चीनी सामान के बहिष्कार की बात छिड़ गयी है; पर विकल्प के अभाव में सौ प्रतिशत बहिष्कार असंभव है। मानव स्वभाव है कि वह सस्ती चीज ढूंढ़ता है। चीन में तानाशाही के कारण मजदूर कम वेतन में अधिक काम करते हैं। अतः वहां की चीजें सस्ती पड़ती हैं। भारत में ऐसा नहीं है। इसलिए हमारा सामान महंगा पड़ता है। अतः राष्ट्रीयता जगाने के साथ ही हमें अपना मूलभूत ढांचा ऐसा बनाना होगा, जिससे अधिकतम सामान हम खुद बना सकें। और यदि खरीदना ही पड़े, तो ऐसे देशों से लें, जिनसे हमारे संबंध ठीक हैं।
इन दिनों कई नेता और संस्थाएं अमरीकी सामान का समर्थन कर रहे हैं; पर वे यह न भूलें कि अमरीका की रुचि केवल अपने हित में है। कोरोना का संकट मिटते ही वह फिर चीन से मिल जाएगा। अमरीका में डोनाल्ड ट्रंप का फिर आना कठिन है। नये राष्ट्रपति की नीति चीन और भारत के प्रति न जाने क्या होगी ? इसलिए आर्थिक मोर्चे पर हमें ठोस कदम रखने होंगे। जैसे चीन ने 50 साल में निर्माण के क्षेत्र में खुद को स्थापित किया है, वैसा ही हमें भी करना होगा।
तीसरा मोर्चा राजनीतिक है। भारत में चीन समर्थक वामपंथी अब अंतिम सांसें ले रहे हैं; पर कभी-कभी उनकी टूटी ढपली बजने लगती है। आजकल वे फिर पंचशील राग गा रहे हैं, जिसकी हत्या चीन 1962 में ही कर चुका है। दुर्भाग्यवश कांग्रेस पार्टी भी उनकी ताल पर नाच रही है। इनमें सबसे आगे उनके वृद्ध युवराज हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा कि ऐसे नाजुक विषय पर क्या बोलें ? काश कोई उन्हें बताए कि कभी-कभी चुप रहना भी जरूरी है। शरद पवार, ममता बनर्जी, मायावती आदि ने सरकार का समर्थन किया है; पर जिसका समझदारी से रिश्ता ही न हो, उसे क्या कहें ? ऐसे में जनता इन खानदानी नेताओं और पार्टी को पूरी तरह खारिज करे, तभी वहां नया नेतृत्व आएगा।
इधर भारत को नरेन्द्र मोदी जैसा समर्थ नेता प्राप्त है। चीन को मोदी के बढ़ते वैश्विक प्रभाव से भी तकलीफ है। गलवान में लड़ाई का एक कारण ये भी है। जनता को विश्वास है कि मोदी इसका हिसाब जरूर चुकाएंगे। विदेश नीति के मामले में मोदी के अति आत्मविश्वास को गहरी चोट लगी है। चीन ने पाकिस्तान और नेपाल को हमारे विरुद्ध खड़ा कर दिया है। बांग्लादेश को सहायता कर उसे भी वह अपने साथ लेना चाहता है। ऐसे में भारत उन देशों से मित्रता कर रहा है, जो चीन के वर्चस्व से दुखी हैं। यह एक लम्बी प्रक्रिया है, जिसका लाभ दीर्घकाल में मिलेगा।
चीन से यह संघर्ष आज का नहीं है और अगले दो-चार साल में समाप्त भी नहीं होगा। इसलिए हमें लम्बी नीति बनाकर ही चलना होगा। चीन को उसके पड़ोसी देशों ने कई बार नाकों चने चबवाये हैं। इस बार यह जिम्मेदारी भारत पर है।
-विजय कुमार