भारत वर्ष का सबसे गौरवशाली साम्राज्य मगध और ढाई हजार साल से मगध की राजधानी पाटलिपुत्र। भारतीय इतिहास के सबसे स्वर्णिम पन्नों में लिपटा है बिहार। चाहे वो बात रामायण काल में देवी सीता के जन्म से जुड़ी हो या महाभारत के दौर में राजा जरासंध के राज की। बिहार की धरती ने ही अशोक के रूप में दुनिया को पहला सम्राट दिया था। लिच्छवी राजाओं के जरिये संपूर्ण जगत को पहले लोकतांत्रिक गणराज्य की अवधारणा से अवगत कराया। भगवान बुद्ध से लेकर महावीर की भूमि 'बिहार'। जहां सबसे बड़े घमासान के लिए जमीन तैयार हो रही है और सबसे बड़े जंग में हर महारथी अपना सबसे धारदार हथियार आजमाने की कोशिश में है । ऐसे में चर्चा ये भी चल पड़ी है कि आखिर किसके दावों का रंग कितना चोखा होगा और किसके वादों का रंग सिर्फ और सिर्फ धोखा होगा।
राजनीति संभावनाओं का खेल है और भविष्य की संभावनाएं जिंदा रखने के लिए इस खेल को अंतिम क्षण तक खेलना सियासतदारों की मजबूरी भी है और जरूरी भी। इस नई संभावनाओं की प्रयोगस्थली बन रहा है बिहार।
उठते हैं तूफान, बवंडर भी उठते जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है। दो राह समय के रथ की घर्घर नाद सुनो, सिंहासन खाली करो की जनता आती है। दिल्ली के रामलीला मैदान से बिहार के बेटे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता लोकनायक जय प्रकाश नारायण के मुख से फूटी तो 1 सफदरजंग रोड पर बैठी इंदिरा गांधी की गद्दी हिल गयी थी। आंदोलन की यह भूमि बिहार इतिहास के पन्नों पर नया अध्याय लिखने में हमेशा आगे रहा है। जब जेपी ने 5 जून 1974 के दिन पटना के गांधी मैदान में औपचारिक रूप से संपूर्ण क्रांति की घोषणा की तब इसमें कई तरह की क्रांति शामिल हो गई थी।
इस क्रांति का मतलब परिवर्तन और नवनिर्माण दोनों से था। हालांकि, एक व्यापक उद्देश्य के लिए शुरू हुआ जेपी का संपूर्ण क्रांति आंदोलन बाद में दूसरी दिशा में मुड़ गया। जयप्रकाश नारायण के 'संपूर्ण क्रांति' आंदोलन शुरू करने का उद्देश्य सिर्फ़ इंदिरा गांधी की सरकार को हटाना और जनता पार्टी की सरकार को लाना नहीं था, बल्कि उनका उद्देश्य राष्ट्रीय राजनीति में बड़ा बदलाव करना था। साथ ही यह आंदोलन व्यवस्था परिवर्तन के लिए था। जेपी के संपूर्ण क्रांति के आंदोलन में सामाजिक न्याय और जातिविहीन समाज की परिकल्पना की गई थी। इस आंदोलन के कारण उस समय युवाओं ने अपने नाम में सरनेम लगाना छोड़ दिया था। हालांकि, यह सब बहुत दिनों तक नहीं चल सका और भारतीय राजनीति में जाति के नाम पर राजनीति करने वाले नेताओं और राजनीतिक दलों की बहुतायत हो गई। इसके बाद ही देश में लालू, मुलायम, नीतीश और रामविलास पासवान जैसे नेता उभरकर आए।
कर्पूरी ठाकुर ने की सामाजिक बदलाव की शुरुआत
1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया। इसके चलते उनकी आलोचना भी ख़ूब हुई लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया। इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मज़ाक 'कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं' कह कर उड़ाया जाता रहा। 1977 में मुंगेरीलाल कमीशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू किया तो उन्हें दो वर्गों में बांटा अति पिछड़ा और पिछड़ा। अति पिछड़ा को 12 और पिछड़ा वर्ग को 8 फीसदी आरक्षण दिया गया।
जेपी की पाठशाला से निकल लालू, सुशील मोदी, नीतीश और पासवान या फिर कर्पूरी ठाकुर के हाथों में सूबे की कमान, उस दौर से ही जाति की राजनीति बिहार में इतने गहराई से धंसी की उससे पीछा छुड़ा पाना आज तक मुमकिन नहीं हुआ है।
जातिगत वोटर
यादव- 13%
कुर्मी- 3%
कुशवाहा- 3%
तेली- 2%
महादलित - 10%
दलित पासवान/दुषादद्व- 6%
मुस्लिम- 16॰5%
भूमिहार- 6%
ब्राहमण- 7%
राजपूत- 9%
कायस्थ- 3%
आदिवासी- 1॰3%
अन्य- 1%
शेषन बनाम लालू की जंग
1995 का विधानसभा चुनाव बिहार के चुनावी इतिहास का सबसे कठिन अध्याय रहा। उस वक्त लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन को तमाम विपक्षी दलों ने लालू की ओर से चुनाव में धांधली किए जाने की आंशका जताई। इसके बाद शेषन ने साफ चुनाव कराने के लिए इतनी कोशिश की कि उनकी लालू से ठन गई। लालू ने शेषन को चुनौती दी कि वह कुछ भी कर ले जिन्न उनका ही निकलेगा। चुनाव परिणाम में लालू की जीत हुई।
पहली बूथ कैप्चरिंग- बिहार चुनाव में राजनीतिक दलों की ओर से बरसों से कई तरह के तमाम हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। इसकी मिसाल यही है कि पूरे देश में बूथ को कैप्चर कर मनमाने तरीके से वोट डलवाने की पहली वारदात बिहार में ही दर्ज की गई।
क्या है बिहार चुनाव का महत्व?
बिहार भारत की तीसरी सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है। 2011 की जनगणना के अनुसार बिहार की आबादी 10.4 करोड़ थी। बिहार की आबादी ब्रिटेन, फ्रांस या इटली जैसे देशों की आबादी से अधिक है। इस चुनाव लगभग 7.29 करोड़ लोग वोटिंग के अधिकार का इस्तेमाल करेंगे। बिहार कई मायनों में भारत के अधिकांश राज्यों से अभी काफी पीछे हैं। यहां के ज्यादातर युवा पढ़े-लिखे बेरोजगार हैं। लॉकडाउन के दौरान जिस तरह से प्रवासी मजदूर नंगे पैर और कई किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बिहार में अपने-अपने गांव लौटने को मजबूर हुए। उससे देश में बिहार की दर्दभरी छवि और सच्चाई भी उजागर हुई है। इस चुनाव में बीजेपी-जेडीयू, आरजेडी ने वोट बैंक को लुभाने के लिए वैसे तो तमाम वादे किए हैं। अब देखना है कि बिहार के लोग किसकी सरकार बनाते हैं। 2015 में उस वक्त अजेय कहे जानी वाली बीजेपी और मोदीकाल के सबसे बड़े चुनावी घमासान में बिहार ने पटखनी दी थी। लेकिन, इस बार, नीतीश की जद (यू) भाजपा के साथ है और लालू बिहार की राजनीति से नदारद। क्या बिहार में इस बार भी कोई आश्चचर्यचकित परिणाम दे सकता है?
महामारी का प्रभाव
2015 के बिहार चुनाव में कुल 56.8% वोटिंग हुई थी। लेकिन इस बार का चुनाव कोरोना महामारी के बीच हो रहा है। ऐसे में जाहिर तौर पर चुनाव में कोरोना का असर भी दिखेगा। ऐसे में देखना है कि राजनीतिक दल और इनके कार्यकर्ता कैसे पर्याप्त संख्या में मतदाताओं को बूथ तक ला पाते हैं। बीजेपी के प्रतिबद्ध कैडर को देखते हुए विपक्ष के लिए कम मतदान से बड़ा नुकसान हो सकता है। या फिर शहरी वोटिंग में अधिक गिरावट होगी, जहां भाजपा मजबूत है?
कोरोना काल में विश्व का सबसे बड़ा चुनाव
साल 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार में 56.8% उच्चतम मतदातन दर्ज किया गया था। कोरोना संकट के कारण दुनियाभर के 70 देशों में चुनावों को टाला गया। बिहार चुनाव के तारीखों की घोषणा करते वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ने बिहार के चुनाव को कोरोना काल का सबसे बड़ा चुनाव बताया था। कोरोना को देखते हुए 6 लाख पीपीई किट राज्य चुनाव आयोग को देने औरचुनाव के दौरान करीब 46 लाख मास्क, 6.7 लाख फेस शील्ड, 23 लाख जोड़े हैंड ग्लव्स और 7 लाख से ज्यादा हैंड सेनेटाइजर यूनिट की व्यवस्था की बात चुनाव आयोग की तरफ से कही गई। मतदाताओं के लिए 7.2 करोड़ सिंगल यूज्ड हैंड ग्लव्स की व्यवस्था की गई है।
डिजिटल अभियान
चुनाव आयोग ने बताया कि कोरोना महामारी को देखते हुए इस बार पार्टियों और उम्मीदवारों को वर्चुअल चुनाव प्रचार होगा। बड़ी-बड़ी जनसभाएं नहीं की जा सकेंगी। इसके अलावा, नामांकन के दौरान किसी भी उम्मीदवार के साथ दो से अधिक गाड़ियां नहीं जा सकतीं हैं। विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार समेत कुल 5 लोग ही डोर टू डोर कैंपेन में हिस्सा ल सकते हैं। पीएम मोदी, गृह मंत्री अमित शाह की आक्रमण चुनाव कैंपेनिंग जिसके आगे विरोधी भी आहे भरते थे। रैलियों में लोगों का हुजूम और अपने अंदाज में चुनावी सभा में समा बांधने वाले एक से बढ़कर एक राजनेता। लेकिन इस बार ऐसा नजारा देखने को नहीं मिलेगा। बिहार जैसे पिछड़े राज्य में ज्यादातर आबादी इंटरनेट एक्सेस से अभी दूर है, ऐसे में राजनीतिक पार्टियों के लिए डिजिटल मीडियम के जरिए अपनी बातें उनतक पहुंचाना किसी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में क्या प्रवासियों जो घर में हैं (अनुमानित 25 लाख) दूसरों की तुलना में डिजिटल के साथ अपनी परिचितता को निर्णायक साबित कर सकते हैं?
गठबंधन का गणित?
बिहार चुनाव से कुछ महीने पहले से वहां पर राजनीतिक हलचल तेज हो गई। गठबंधनों में दरार पड़ने लगी। पुरानी दुश्मनी छोड़कर नई दोस्ती होने लगी। पहले जो नेता या पार्टी किसी गठबंधन का हिस्सा थी, अब वो किसी और गठबंधन में जा मिली है। साल 2015 के विधानसभा चुनाव में जो रिजल्ट आया था, वह इसी तरह से था। कई सीटों पर भाजपा-जदयू के अलावा जदयू-लोजपा, हम-जदयू-रालोसपा और राजद ने एक-दूसरे को टक्कर दी थी। लेकिन इस बार चुनाव में गठबंधन बदलकर अब कई पार्टियां उत्तरी ध्रुव से दक्षिण ध्रुव की तरफ चली गई हैं यानी अपना गठबंधन बदल लिया है।
मोदी फैक्टर
बिहार की राजनीति में बीते कुछ दिनों में काफी परिवर्तन देखने को मिले हैं। लोजपा ने एनडीए से तो अपना नाता तोड़ लिया, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति लगातार अपनी आस्था दिखा रही है। चिराग पासवान इन दिनों अक्सर कहते दिख रहे हैं कि चुनाव के बाद बिहार में लोजपा और भाजपा साथ मिलकर सरकार बनाएगी। क्या चिराग जैसा सोचते हैं, वही सोच पीएम मोदी और अमित शाह की भी है? इस तरह के सवाल इन दिनों बिहार की फिजां में गूंज रही है। इसलिए हर किसी की निगाहें पीएम मोदी और अमित शाह के बयानों पर होंगी। पासवान को लेकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है, "मोदी सरकार उनके बिहार के विकास के सपने को पूरा करने के लिए प्रतिबद्ध रहेगी." अमित शाह के ताजा बयान में पासवान के प्रति बीजेपी के स्टैंड का इशारा समझने की कोशिश तो हो रही है, लेकिन पूरी तस्वीर तो तभी साफ हो पाएगी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैली उस इलाके में होगी जहां जेडीयू उम्मीदवार को चिराग पासवान के प्रत्याशी से चुनौती मिल रही होगी। साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी के नेतृत्व ने एनडीए ने बिहार की चालीस लोकसभा सीट में से 39 सीटें जीत ली थी जबकि कांग्रेस के खाते में एक सीट आई थी। हालाँकि, उसके बाद भाजपा ने झारखंड, दिल्ली और महाराष्ट्र में सत्ता गंवा दी है और हरियाणा में दुष्यंत चौटाला की मदद से ही सत्ता में दोबारा आ पाई। इसके अलावा, बिहार ने लॉकडाउन में प्रवासियों के हुजूम की घर वापसी के दौर को भी देखा। हालांकि, क्या यह मोदी की लोकप्रियता के खिलाफ पर्याप्त साबित होगा?
सुशासन बाबू की विश्वसनीयता
नीतीश कुमार चुनाव नतीजों को लेकर पूरी तरह बेफिक्र हैं - क्योंकि टीना (TINA) फैक्टर में पक्का यकीन रखने वालों में से एक वो भी हैं। टीना (देयर इज नो अल्टरनेटिव) फैक्टर उस स्थिति को कहते हैं जब जनता के सामने कोई और विकल्प न हो। ऐसी मजबूरी में जनता खामियों को भी नजरअंदाज कर एक ही नेता को बार बार मौके देने को मजबूर होती है। चिराग पासवान का चुप न होना और बीजेपी का सीधे तौर पर दखल न देना हैं जो सबको समझ आ रहा है। दूसरों को भले लग रहा हो कि चिराग पासवान उनके खिलाफ हर तरफ से धावा बोले हुए हैं, लेकिन नीतीश कुमार ऐसा कुछ भी जाहिर नहीं करते। यहां तक कि पूछने पर भी ऐसे ही संकेत देते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। नीतीश कुमार को ये तो मालूम है ही कि बगैर बैसाखी के चुनावों में उनके लिए दो कदम बढ़ाने भी भारी पड़ेंगे। बैसाखी भी कोई मामूली नहीं बल्कि इतनी मजबूत होनी चाहिये तो साथ में तो पूरी ताकत से डटी ही रहे, विरोधी पक्ष की ताकत पर भी बीस पड़े। अगर वो बीजेपी को बैसाखी बनाते हैं और विरोध में खड़े लालू परिवार पर भारी पड़ते हैं और अगर लालू यादव के साथ मैदान में उतरते हैं तो बीजेपी की ताकत हवा हवाई कर देते हैं। लेकिन राजनीति में एंटी इनकम्बेंसी भी कोई चीज होती है।
न लालू न पासवान कैसे गूंजेगा बिहार का आसमान
बिहार के पिछले चार दशकों के चुनाव में ऐसा पहली बार होगा की प्रदेश के दो सबसे बड़ी शख्सियत इस चुनाव में अपनी मौजदूगी दर्ज नहीं करा सकेंगे। अपनी वाकपटुता और गवई अंदाज से लोगों को हंसाने में माहिर लालू जिनकी बातें और जुमले सुनकर या उनके बोलने के अंदाज पर लोग अपनी मुस्कान ना रोक पाएं। ठेठ देसी अंदाज में जनता के साथ सीधा संवाद करने वाले देश के एकलौते ऐसे राजनेता लालू प्रसाद यादव 2014 की लोकसभा और 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान जमानत पर बाहर रहते हुए जमकर चुनाव प्रचार किया था। 2005 से 2015 के बीच तो ऐसा लग रहा था कि मतदाताओं पर लालू यादव का जादू खत्म हो चुका है। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव के दौरान लालू यादव की रैलियों में उमड़ी भीड़ और उस भीड़ को राजनीतिज्ञ लालू ने ऐसा मोल्ड किया कि बिहार की जनता ने एक बार फिर उन्हे सत्ता का स्वाद चखा दिया। चारा घोटाले में दोषी करार दिए जाने के बाद लालू प्रसाद यादव पिछले 3 साल से रांची जेल में बंद है। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 दूसरा मौका होगा जब लालू प्रसाद बिहार के चुनाव में मौजूद नही रहेंगे। 2019 के लोकसभा चुनाव में बगैर लालू यादव, आरजेडी खाता तक नही खोल सकी थी। दावा यह किया गया था कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को बड़ी जीत हासिल होगी और तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री बनेंगे। लेकिन यह सपना भी लगता है अधूरा ही रह गया क्योंकि तेजस्वी के नेतृत्व के सवाल पर ही महागठबंधन के तीन घटक दल अब अलग हो चुके हैं। पिछले महीने, लालू करीबी नेता रघुवंश प्रसाद सिंह ने ताउम्र लालू की छाया रहने के बाद अपने जीवन के आखिरी दिनों में राजद छोड़ दिया।
'धरती गूंजे आसमान-रामविलास पासवान' एक दौर था जब बिहार के हाजीपुर की धरती पर रामविलास पासवान के पैर पड़ते तो चारो ओर यही नारा गूंजता था। पासवान की खासियत रही कि वे किसी भी परिस्थिति से कभी घबराए नहीं। मुश्किलों में विकल्प निकाल लेना उनकी विशेषता थी। लालू की भाषा में ही कहे तो रामविलास पासवान जैसा मौसम वैज्ञानिक पूरी दुनिया में कही नहीं होगा। केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के निधन के बाद बिहार विधानसभा चुनाव में अनिश्चितता का एक और तत्व शामिल हो गया है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि एलजेपी के निष्ठावान दलित मतदाता पासवान के बेटे तथा उनके वारिस चिराग पासवान के साथ किस तरह का जुड़ाव महसूस करते हैं। केंद्रीय मंत्री पासवान के निधन के कारण मतदाताओं के बीच हमदर्दी की भावना भी पैदा हो सकती है। एलजेपी खुद को चुनाव के बाद के परिदृश्य में बीजेपी की सहयोगी तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मजबूत समर्थक के रूप में प्रस्तुत कर रही है, साथ ही वह जेडीयू पर लगातार निशाना साध रही है।
बिहार चुनाव से राष्ट्रीय संदेश
बिहार की जनता किस तरह की वोटिंग करती है, इससे सिर्फ एनडीए के स्टार प्रचारक मोदी के लिए संकेत नहीं होगा। नीतीश को लेकर भी स्थिति साफ हो जाएगी।
परिणाम को मोदी सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था और कोरोना महामारी से निपटने और प्रबंधन के प्रतिबिंब के रूप में भी देखा जाएगा। इसके अलावा, पश्चिम बंगाल में भी इसकी बानगी देखने को मिल सकती है। जहां अप्रैल-मई 2021 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा अभी से अपनी आंखें गड़ाए बैठी है। - अभिनय आकाश