भारत बंद के आह्वान तो पहले भी कई बार हुए हैं लेकिन किसानों की मांगों को लेकर यह भारत बंद शायद पहली बार घोषित हुआ है। इस घोषणा पर कितना भारत बंद रहा, इस पर लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है लेकिन यह तो स्पष्ट ही है कि भारत बंद तभी माना जाता है, जब वह शहरों में दिखाई पड़े। गांव बंद रहें या खुले रहें, उससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। शहर जब सूनसान दिखाई पड़ते हैं और बाजार खाली रहते हैं, तब बंद को सफल माना जाता है लेकिन किसानों का यह बंद अब राजनीति का फुटबाल बनकर रह गया। देश के भाजपा शासित प्रांतों में इसे विफल और विरोधी प्रांतों में इसे सफल दिखाने की पूरी कोशिश की गई।
इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि देश के वे राजनीतिक दल और नेता भी उन कृषि-कानूनों का आंख मींचकर विरोध कर रहे हैं, जो कल तक उसी तरह के सुझाव दिया करते थे और अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में उसी तरह के कानून बनाने के वायदे किया करते थे। इसका अर्थ यह नहीं कि ये तीनों कृषि कानून निरापद हैं और इनमें सुधार की गुंजाइश नहीं है। इनमें सुधार की जरूरत निश्चय ही है लेकिन जो पार्टियां और नेता आज आंदोलन की बैलगाड़ी पर सवार होना चाह रहे हैं, उन्होंने अपनी असली हैसियत को उजागर कर दिया है।
विरोधी दलों के राजनीतिक दीवालियापन को इस किसान आंदोलन ने अनावृत्त कर दिया है। देश के विरोधी दलों के पास न तो कोई ऐसा नेता है, न मुद्दा है जो भाजपा या नरेंद्र मोदी को चुनौती दे सके। देश के दर्जन भर दलों ने अब अपनी बुझे हुए कारतूसों की बंदूक किसानों के कंधे पर रख दी है।
इस किसान आंदोलन की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि उसने राजनेताओं को अपने मंच पर पसरने नहीं दिया। लेकिन आश्चर्य है कि जब 9 दिसंबर को फिर से सरकार और किसान नेताओं का संवाद तय हो गया था तो 8 दिसंबर को भारत बंद का नारा क्यों दिया गया ? हो सकता है कि किसान नेताओं को कुछ विघ्नसंतोषी राजनेता गुपचुप प्रेरित कर रहे हों या किसान नेता वार्ता के पहले सरकार पर दबाव बनाना चाहते हों।
किसानों का यह आंदोलन इसलिए भी प्रशंसनीय है कि पूरे देश में उन्होंने कहीं भी तोड़-फोड़ या हिंसा का सहारा नहीं लिया। कुछ शहरों में जो हाथापाई और धक्का-मुक्की की घटनाएं घटी हैं, वे भी प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों के बीच घटी हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कथित नजरबंदी और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की गिरफ्तारी भी अनावश्यक प्रतीत होती है।
भारत बंद की अवधि पूरी होते-होते यह खबर भी आई कि गृहमंत्री अमित शाह ने कुछ किसान नेताओं को बातचीत के लिए अपने घर पर आमंत्रित किया है। यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जो किसान-नेता कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर के साथ मिलते रहे हैं, उन सभी को अमित शाह ने क्यों नहीं बुलाया ? उनमें से कुछ को क्यों छोड़ दिया ? क्या किसान नेता अपने आप में बंटे हुए हैं या सरकार उनमें फूट डालने का दांव मार रही है ?
भारत बंद के बावजूद सरकार किसानों से बात करने को तैयार है, इससे साफ जाहिर होता है कि सारा मामला अभी अंधेरी सुरंग में नहीं पहुंचा है। सच्चाई तो यह है कि देश के 40-50 करोड़ किसानों की दशा अत्यंत दयनीय है। उन्हें टेका लगाने में भाजपा सरकार ने कोई कमी नहीं रखी है। उन्हें तरह-तरह के फायदे और सुविधाएं पिछले छह साल में वह देती रही है लेकिन आज भी हमारा किसान दुनिया के दर्जनों देशों के किसानों की तुलना में चार-छह गुना ज्यादा गरीबी में गुजारा करता है। न्यूनतम समर्थन मूल्य तो सिर्फ 6 प्रतिशत किसानों को मिलता है। 94 प्रतिशत किसान खुले बाजार में अपना माल बेचते हैं। वर्तमान किसान आंदोलन की रीढ़ समर्थन मूल्य वाला मालदार किसान ही है। वह ही सबसे ज्यादा घबराया हुआ है।
यदि हम सभी किसानों की हालत सुधारना चाहते हैं तो भारतीय कृषि-व्यवस्था को आधुनिक और प्रतिस्पर्धी बनाना बहुत जरूरी है। यदि वह समर्थन मूल्य की सरकारी खरीद पर ही निर्भर रहेगी तो उसका पिछड़ापन हमेशा बरकरार ही रहेगा। समर्थन-मूल्य की नीति अभी कुछ वर्षों तक चलाए रखना जरूरी है लेकिन हमारे वे किसान आदर्श होने चाहिए, जो खुले बाजार में अपनी उपज- अनाज, सब्जियां और फल बेचते हैं। वे औसतन ज्यादा पैसा कमाते हैं, कम जमीन, कम पानी और कम खाद में अपनी फसलें उगाते हैं। भारत में अनाजों, सब्जियों और फलों की पैदावार कई गुना बढ़ सकती है और भारत दुनिया का सबसे बड़ा खाद्य-निर्यातक राष्ट्र बन सकता है। सरकार की यह भूल तो हुई है कि उसने तीनों कृषि-कानून बनाने के पहले न तो किसानों से उचित परामर्श किया और न ही उन्हें उनके फायदे समझाए लेकिन अब भी बीच का रास्ता निकालना मुश्किल नहीं है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक