लचर स्वास्थ्य व्यवस्था से उजड़ रहे परिवार, सदन में आंकड़ें बताते सुशासन कुमार
By अभिनय आकाश | Jul 02, 2019
फिर से एक बार हो, बिहार में बहार हो, फिर से एक बार नीतीशे कुमार हो। लिखने वाले ने क्या लिखा था और गाने वाले ने क्या गाया था। लेकिन नीतीश कुमार ने इन दिनों बिहार को जो बनाया है उसे बहारे वाला बिहार तो बिल्कुल भी नहीं कहेंगे। 154 मौतों के एक महीने बाद मुख्यमंत्री जब विधानसभा में बोलने आते हैं तो अपनी तारीफों की झड़ी लगा देते हैं। बिहार के सुशासन वाले मुख्यमंत्री ने 14 सालों में कितना बड़ा तीर मारा है, वो उन्होंने आंकड़ों के सहारे विधानसभा में बताने की कोशिश की। नीतीश ने सदन में जो आंकडें पेश किए उस पर पहले नजर डालते हैं। एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रॉम (एईएस) आम बोलचाल की भाषा में कहें तो चमकी बुखार से 2012 में 424 बच्चों की मौत होती है। 2013 में यह आंकड़ा 222 और 2014 में 379 पहुंचता है। 2015 में 90 और 2016 में 103 और 2017-18 में क्रमश: 54 और 33 बच्चों की मृत्यु हो जाती है। वहीं साल 2019 में 154 बच्चे मर जाते हैं। 2019 के ये सरकारी आंकड़े 28 जून तक के ही हैं और इसमें इजाफा भी हो सकता है। लेकिन 2018 के मुकाबले 2019 में पांच गुणा ज्यादा मौतें हुई हैं और लोग कहते हैं कि नीतीश कुमार ने कुछ किया ही नहीं, तो ये आंकड़ा क्या ऐसे ही जमा हुए हैं। एक-एक बच्चे की लाश का हिसाब देते नीतीश कुमार ने 14 बरस के सुशासन का निचोड़ सामने रख दिया।
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नीतीश कुमार ने कहा कि एक सोशल इकोनॉमिक सर्वे होना चाहिए। इसके अलावा बेड की कमी होने के कारण भी सीएम ने गिनाए। नीतीश कुमार ने यह भी बताया कि बिल्कुल हाशिए पर रह रहे लोग जिन्हें सरकार की योजनाओं की जानकारी नहीं है वही इसकी चपेट में आ रहे हैं। 14 बरस से अपनी सरकार, अपने राजा और अपना स्वराज तो पता नहीं सुशासन बाबू किसे बता रहे थे ये सारी समस्याएं। इसके अलावा सीएम ने अपने 14 सालों के सुशासन में पहली बार एसकेएमसीएच जाने की भी बात कही। बता दें कि ये वही एसकेएमसीएच अस्पताल है जिसमें 154 में से करीब 115 से अधिक नौनिहालों ने दम तोड़ा है। बहुत व्यस्त रहते हैं नीतीश कुमार और जैसा कि उन्होंने विधानसभा में उल्लेख भी किया कि पहली बार एसकेएमसीएच जाने का अवसर प्राप्त हुआ वो भी मीडिया के दबाव और लगातार हो रही मौतों की वजह से।
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सरकार की ओर से एईएस से मौत को आपदा मानते हुए पीड़ित परिवारों को 4-4 लाख रुपए का मुआवजा देने की घोषणा भी हुई है। वैसे तो हिंदुस्तान में ज़िंदगी की कीमत बहुत ही सस्ती है। यह ज़िंदगी और भी सस्ती हो जाती है जब आदमी गरीब होता है। थोड़ी और सस्ती हो जाती है जब आदमी गरीब होने के साथ ही गांव में रहता है और तब तो लगभग मुफ़्त ही हो जाती है जब वह गांव का गरीब होने के साथ ही राजधानी से दूर किसी वीरान क़स्बे में जीवन गुजार रहा हो। जब जीवन ही मुफ़्त का हो तो इसकी कीमत 4-4 लाख लगे या 40 रुपए, फर्क ही क्या पड़ता है।
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बीते दिनों नीति आयोग ने विश्व बैंक और केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के साथ मिलकर एक रिपोर्ट जारी की है। इसमें हेल्थ इंडेक्स 2019 देशभर में 21 बड़े प्रदेशों की रैंकिंग जारी की गई। जिसमें बिहार 20वें नंबर पर है यानि आखिरी नंबर से एक ऊपर। गौरतलब है कि नीति आयोग हेल्थ आउटकम जैसे नवजात मृत्यु दर और गवर्नेंस एंड इन्फॉर्मेशन डोमेन जैसे स्वास्थ्य अधिकारियों के ट्रांसफर और इनपुट डोमेन जैसे मानकों के आधार पर हेल्थ इंडेक्स तैयार करता है। हेल्थ इंडेक्स पर 74.01 स्कोर के साथ केरल ने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए देशभर में बड़े राज्यों में पहला स्थान प्राप्त किया है जबकि 32.11 स्कोर के साथ बिहार सबसे निचले पायदान पर है। बिहार का स्कोर भी 2015-16 में 38.46 से घटकर 32.11 पर आ गया है।
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भारत की सार्वजनिक चिकित्सा व्यवस्था को ध्वस्त कर देने वाले सरकारी ढुल-मुल रवैये की वजह से ही बच्चों की लाशें एक महीने से निकल रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी है और फिलहाल देश में 11,082 की आबादी पर मात्र एक डॉक्टर है। तय मानकों के अनुसार, यह अनुपात प्रति एक हजार व्यक्तियों पर एक होना चाहिए। बिहार जैसे राज्यों में तो तस्वीर और भी धुंधली है, जहां 28,391 लोगों की आबादी पर एक डॉक्टर उपलब्ध है। ऐसे में नीतीश तो छोड़िए मोदी सरकार में भी बिहार से चमकने वाले छह चेहरे बच्चों की मौत पर म्लान नहीं हुए। छह मंत्री आते हैं बिहार से। सब एक से बढ़कर एक। रविशंकर प्रसाद, गिरिराज सिंह, आरके सिंह, अश्विनी चौबे, नित्यनंद राय और रामविलास पासवान। लेकिन फिर भी नतीजा नील बट्टा सन्नाटा। ऐसे में पढ़ाई और दवाई जब तक ये दो चीजें मु्ददा नहीं बनेंगी सरकारी सिस्टम को बुखार इसी तरह लगा रहेगा।