पूर्व सांसदों और पूर्व विधायकों को पेंशन देने का क्या औचित्य ? इसे बंद कर जनता का पैसा बचाएं

By शिव शरण त्रिपाठी | Jun 20, 2020

कोरोना महामारी के संकट से खासतौर पर आर्थिक मोर्चे पर गंभीर संकट से जूझ रहे देश को स्थायी राहत पहुंचाने की दृष्टि से राज्य सभा व राज्यों की विधान परिषदों को तत्काल भंग करने की जरूरत है। इसी कड़ी में यह सवाल भी कम औचित्यपूर्ण व तार्किक नहीं है कि देश के माननीयों (पूर्व सांसदों व विधायकों) को मिलने वाली पेंशन व अन्य भत्तों पर तत्काल रोक लगा दी जाये। हालांकि इस सन्दर्भ में पूर्व में भी आवाजें उठायी जा चुकी हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट तक जा चुका है। साल 2017 में लोक प्रहरी नामक संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन और अन्य सुविधाओं को रद्द करने की मांग की थी।


याचिका में कहा गया था कि सांसद के पद से हटने के बाद भी जनता के पैसे से पेंशन लेना संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता के अधिकार) और अनुच्छेद 106 का उल्लंघन है। संसद को ये अधिकार नहीं है कि वो बिना कानून बनाए सांसदों को पेशन सुविधाएं दे। याचिकाकर्ता ने ये भी कहा था, '82 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं और गरीब करदाताओं के ऊपर सांसदों और उनके परिवार को पेंशन राशि देने का बोझ नहीं डाला जा सकता है।' हालांकि तत्कालीन जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर और जस्टिस संजन किशन कौल की पीठ ने इस मामले को कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर का बताते हुए यह याचिका खारिज कर दी थी। कोर्ट ने कहा था, 'हमारा मानना है कि विधायी नीतियां बनाने या बदलने का सवाल संसद के विवेक के ऊपर निर्भर है।'

 

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यहां खासतौर पर गौरतलब है कि पूर्व में यह नियम था कि वही पूर्व सांसद पेंशन के योग्य माना जायेगा जिसने बतौर सांसद 4 साल का कार्यकाल पूरा कर लिया हो पर साल 2004 में कांग्रेस नीत संप्रग की सरकार ने इसमें संशोधन करके यह प्रावधान कर दिया था कि यदि कोई 'एक दिन' के लिये भी सांसद बन जायेगा तो वह पेंशन का हकदार होगा और तब से यही हो रहा है। जिस देश में प्रति व्यक्ति आय 10534 रुपये से भी कम हो और जिस देश में आज भी बड़ी संख्या में लोगों को दो जून की रोटी नसीब न हो पाती हो उस देश के जनता के लिये, जनता द्वारा चुने जाने वाले जनप्रतिनिधि ही किस तरह देश के संसाधनों का दुरुपयोग करने में रत हैं इसकी इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है कि एक सांसद यदि दुबारा सांसद निर्वाचित होता है तो उसकी पेंशन राशि में दो हजार रुपये प्रतिमाह की और बढ़ोत्तरी कर दी जाती है और यही क्रम आगे चलता जाता है।


यही नहीं यदि कोई लोकसभा व राज्यसभा दोनों का सदस्य रह चुका है तो उसे दोहरी पेंशन यानी दोनों सदनों से मिलती है। ऐसे ही यदि कोई विधायक व सांसद रहा हो तो उसे भी दो-दो पेंशन मिलती है। जनता की गाढ़ी कमाई को उसके ही अपने जनप्रतिनिधियों ने खुद ही किस हद तक एक प्रकार से बंदरबांट करने का क्रम जारी रखा है यह भी कम दिलचस्प नहीं है। 1954 में लागू किये गये सांसदों के वेतन, भत्ता एवं पेंशन अधिनियम में अब तक 29 बार मनमाने संशोधन किये जा चुके हैं। मनमाना इसलिये कि जैसा सांसद चाहते हैं स्वयं वैसा ही निर्णय ले लेते हैं। दुनिया का शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहां सांसद अपने वेतन, भत्ते, पेंशन व सुविधाओं का स्वयं निर्णय ले लेते हों।

 

इस मनमाने तरीके के विरूद्ध पूर्व में आवाजे भी उठाई जा चुकी हैं। यहां तक सलाह दी गई कि बेहतर हो इसके लिये कोई आयोग गठित कर दिया जाये ताकि वो आवश्यकता व परिस्थितियों के अनुरूप जो निर्णय ले वही लागू हो। ब्रिटेन सहित दुनिया के कई देशों में ऐसी ही व्यवस्था लागू है। नि:संदेह यदि कोई आयोग होता तो शायद साल 2006 में पूर्व सांसदों को मिलने वाली पेंशन रुपये 8 हजार 2010 में बढ़कर 20 हजार रुपये तो न ही हो पाती और फिर 2018 में वो बढ़कर 25 हजार तो कतई नहीं हो पाती। तुर्रा यह कि तत्कालीन सांसद योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में गठित समिति ने तो पेंशन को बढ़ाकर 35 हजार रुपए करने का प्रस्ताव किया था। ऐसे में उस लिहाज से तो सांसदों की देश पर कृपा ही समझिये कि उन्होंने 25 हजार में ही संतोष कर लिया वरना आज वे प्रतिमाह 35 हजार रुपये ले रहे होते।

 

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यह भी कि पूर्व सांसद तो ताजीवन पेंशन व अन्य सुविधायें भोगते ही हैं उनके स्वर्गारोहण के बाद उनकी पत्नी/पति भी ताजीवन आधी राशि का उपयोग करते हैं। बीते 8 वर्षों में यानी 2010 से लेकर 2019 तक पूर्व सांसदों को पेंशन के मद में कोई 500 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं। इससे भी ज्यादा शर्मनाक और क्या हो सकता है कि पेंशन लेने वालों में देश के करोड़पति, अरबपति भी पीछे नहीं हैं। वैसे भी जिस राज्य सभा में अमूमन दौलतमंद लोग ही प्रतिनिधि बनाये जाते हों और वो सदन में पूरे कार्यकाल में बामुश्किल 4-5 बार से अधिक उपस्थिति भी न होते हों वे भी पेंशन लेने में पीछे नहीं रहते। हां तारीफ करनी होगी सचिन तेंदुलकर व लता मंगेशकर की जिन्होंने पेंशन लेने से मना कर दिया था। पेंशन लेने वालों में अरबपति बन चुके अखबार समूह के मालिकान भी पीछे नहीं हैं तो जेलों में बंद पूर्व माननीय भी इनमें शामिल हैं।


यही हाल देश की विधान सभाओं व विधान परिषदों के सदस्यों का भी है। जिन्हें हर महीने मोटी रकम पेंशन के रूप में मिलती है। उत्तर प्रदेश में पूर्व विधायक को 30 हजार रुपये प्रतिमाह पेंशन के साथ ही 8 हजार रुपये डीजल खर्च के अलावा लाखों रुपये के रेलवे पास व चिकित्सा सुविधायें मुहैया कराई जाती हैं। इसी प्रकार देश के सांसदों व विधायकों को मिलाकर प्रतिवर्ष पेंशन व अन्य सुविधाओं के मद में यह रकम अरबों में पहुचती हैं। देशवासियों को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से बड़ी अपेक्षा है। उनके आह्वान पर जब देशवासी सब्सिडी छोड़ सकते हैं, अन्य सरकारी सुविधायें लेना छोड़ सकते हैं तो क्या पूर्व सांसद उनके आह्वान पर पेंशन व अन्य सुविधायें लेना नहीं बंद कर सकते। मोदी जी एक बार आप आह्वान तो करके देख ही लीजिए। शायद अरबपति पूर्व सांसदों को कुछ शर्म महसूस हो और वे देश की जनता की गाढ़ी कमाई से पेंशन लेना तो बंद ही कर दें।


-शिव शरण त्रिपाठी

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

 

नोट- लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं।


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