Shardiya Navratri: श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण के केंद्र होते हैं बंगाल के दुर्गा पूजा पंडाल

By शुभा दुबे | Oct 05, 2024

वैसे तो गणेशोत्सव और दुर्गापूजा देश भर में धूमधाम से मनाये जाने वाले पर्व हैं लेकिन गणेशोत्सव की महाराष्ट्र में और दुर्गा पूजा की बंगाल में अलग ही छटा देखने को मिलती है। नवरात्रि के दौरान पूरा बंगाल दुर्गामय हो जाता है। यहां विभिन्न सोसायटियों और संस्थाओं की ओर से दुर्गा पूजा के बड़े बड़े और भव्य पंडाल लगाये जाते हैं जोकि समय के साथ साथ आधुनिक होते जा रहे हैं। इन पंडालों के माध्यम से धार्मिक के साथ ही सामाजिक संदेश भी दिये जाते रहे हैं और हर साल सभी पंडालों के लिए एक थीम तय कर दी जाती है जिससे यह श्रद्धालुओं के लिए और आकर्षक हो जाते हैं। यही नहीं देश के अन्य राज्यों में रहने वाले बंगाली लोग भी दुर्गा पूजा के पंडाल पूरी श्रद्धा के साथ लगवाते हैं और मां दुर्गा की पूजा के इन नौ विशेष दिवसों के दौरान बंगाली संस्कृति से भी अन्यों को रूबरू कराते हैं।


बंगाल में दुर्गा पूजा की शुरुआत के समय को लेकर विभिन्न मत हैं। कोई कहता है कि 1760 में हुगली के 12 ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की तो किसी का मानना है कि इसकी शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में हुई। हालांकि इस बारे में ज्यादा लोग एकमत हैं कि ताहिरपुर के महाराजा कंस नारायण ने सामूहिक दुर्गा पूजा का सर्वप्रथम विशाल आयोजन किया था जिसके बाद से इसका प्रति वर्ष आयोजन होने लगा। सामूहिक दुर्गा पूजा की शुरुआत करवाने वाले महाराजा कंस नारायण की बंगाल में उसी प्रकार की ख्याति है जिस प्रकार की महाराष्ट्र में गणेशोत्सव की शुरुआत के माध्यम से नवजागरण करने वाले लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक और उत्तर प्रदेश के चित्रकूट में रामायण मेला की शुरुआत करवाने वाले समाजवादी चिंतक डॉ. राम मनोहर लोहिया की है।

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दुर्गा पूजा को शक्ति पूजा के रूप में भी देखा जाता है। दुर्गा पंडालों में देवी की जो मूर्तियां लगायी जाती हैं उनमें वह महिषासुर का वध करती दिखायी जाती हैं। नवरात्रि पर्व के दौरान एक पौराणिक मान्यता यह है कि हर साल देवी दुर्गा अपने बच्चों गणेश, कार्तिकेय तथा लक्ष्मी और सरस्वती देवी के साथ दस दिनों के लिए धरती पर आती हैं। नवरात्रि में छठवें दिन देवी दुर्गा की प्रतिमा को पंडाल में लाया जाता है और सातवें, आठवें और नौवें दिन उनकी विधि विधान से पूजा की जाती है। दशमी के दिन मां दुर्गा की पूजा के बाद उनकी प्रतिमाओं को विसर्जित कर दिया जाता है। मूर्तियों के विसर्जन से पहले, बड़ी संख्या में विवाहित महिलाएं दुर्गा देवी को सिंदूर लगाती हैं और वहां सिंदूर से होली खेलती हैं।


दुर्गा पूजा के लिए मूर्तियां बनाने की तैयारी दो तीन महीने पहले से ही शुरू हो जाती है। पश्चिम बंगाल का कुमारटुली इलाका दुर्गा देवी की मूर्तियां बनाने के लिए मशहूर है। यहां बनी मूर्तियां देश के विभिन्न हिस्सों में ही नहीं बल्कि विदेशों तक में भेजी जाती हैं। यहां बड़ी संख्या में कामगार देवी दुर्गा की सुंदर सुंदर मूर्तियां बनाने के साथ ही पंडालों की साज सज्जा का सामान भी बनाते हैं। देवी दुर्गा की मूर्तियों को पहनाये जाने वाले आभूषणों को तैयार करने में यहां की महिलाएं भी दुर्गा उत्सव से बहुत पहले ही जुट जाती हैं। यहां मांग के आधार पर भी विभिन्न प्रकार की मूर्तियां बनायी जाती हैं तो आमतौर पर प्रचलित मूर्तियों का निर्माण भी बड़ी संख्या में किया जाता है।


दुर्गा पूजा के लिए लगने वाले पंडालों को भी विशेष रूप से सजाया जाता है और श्रद्धालुओं को आकर्षित करने के लिए कभी किसी पंडाल को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का रूप दे दिया जाता है तो किसी पंडाल को लाल किले का तो किसी को एफिल टावर का तो किसी को अन्य किसी मशहूर इमारत का स्वरूप दे दिया जाता है। इसके लिए खर्च होने वाले लाखों रुपए की आयोजकों को परवाह नहीं होती क्योंकि दुर्गा पूजा के लिए हर व्यक्ति खुल कर दान देता है। माना जा रहा है कि इस साल बंगाल में लगभग ढाई हजार से ज्यादा पूजा पंडाल लगाये जाएंगे।


दुर्गा पूजा के चार दिनों में बंगाल में खूब हर्षोल्लास देखने को मिलता है। दुकानें, बाजार जहां ग्राहकों से गुलजार रहते हैं वहीं मंदिरों और सार्वजनिक स्थलों पर दुर्गा देवी के भजन गूंजते रहते हैं। लोग इन चार दिनों में सुबह उठ कर दुर्गा पूजा पंडाल में जाते हैं और वहां पूजन के पश्चात अन्न ग्रहण करते हैं। मां दुर्गा की आरती के बाद उन्हें भोग लगाया जाता है और खिचड़ी का प्रसाद बांटा जाता है। इस दौरान विभिन्न पंडालों में स्थानीय कलाकारों की ओर से सांस्कृतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये जाते हैं। नवरात्रि के आठवें दिन होती है संधिपूजा। मंत्रोच्चारण के साथ 108 दीयों के बीच संधिक्षण की बलि के लिए लोग निर्जल उपवास रखते हैं और उन कुछ क्षणों में वातावरण पूरी तरह शांत हो जाता है। महानवमी को आरती के बाद मां को भोग लगाया जाता है और उसके बाद विभिन्न प्रतियोगिताओं और कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। नवमी के दिन सुबह एक छोटी लड़की को साड़ी पहना कर सजाकर उसकी पूजा की जाती है जिसे 'कुमारी पूजा' कहा जाता है।


- शुभा दुबे

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