By अभिनय आकाश | Sep 27, 2021
अफगानों के रहनुमा, लोकतंत्र के प्रहरी ‘आतंकवाद के दुश्मन’ जैसे तमगे ओढ़ने वाला अमेरिका पहली फ़ुर्सत में रुख़सत हो चुका है। अपने इतिहास के सबसे लंबे युद्ध से पीठ दिखाकर अमेरिका वापस लौट चुका है और अपने पीछे कई तस्वीरें भी छोड़ गया है जिससे हम बीते कुछ दिनों से आए दिन दो चार हो रहे हैं। वैसे तो अफगानिस्तान को अंग्रेजी में लैंड ऑफ पॉमेग्रेनेट्स कहते हैं और हिंदी में कहे तो अनारों का देश। कितना अच्छा लगता है न सुनने में। खून बढ़ाने व रूप निखारने के काम आने वाला यह फल जिसका रस मुंह के रंग को एकदम लाल कर देता है। इसके सुर्ख लाल रंग को देख पहली नजर में बूझ पड़े कि मानो मुंह में खून लग गया हो। लेकिन विडंबना देखिए यही खून उस मुल्क की तकदीर बन गया है। वर्तमान दौर में तालिबान के काबुल पर एक बार फिर से कब्जा करने, कैबिनेट में संयुक्त राष्ट्र के ठप्पा पाने वाले आतंकियों को जगह देने और आपसी संघर्ष की खबरों से दो चार हो रहा है। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे में करीब सवा महीने का वक्त गुजर चुका है। लेकिन आज हम आपको वर्तमान के तालिबानी शासन से करीब 25 साल पहले लिए चलते हैं, यानी तालिबान 1.0 का शासन। जब काबुल पर कब्जे के बाद क्रूरता की हदें पार करते हुए तालिबान ने अफगानी राष्ट्रपति नजबुल्ला को सरेआम फांसी दे दी थी।
रूसी फौज की खिलाफत के लिए उभरा तालिबान
ये 1970 की बात है कम्युनिस्ट सरकार को बचाने के लिए सोवियत संघ रूस ने अफगानिस्तान पर हमला किया। शीत युद्ध की वजह से अमेरिका की दुश्मनी रूस के साथ अपने चरम पर थी। फिर अफ़ग़ानिस्तान का भाग्य लिखने के लिए पाकिस्तान, सऊदी अरब और अमेरिका ने नया गठजोड़ बनाया। तीनों देशों को देवबंद और उसके पाकिस्तानी राजनीतिक पार्टी जमात-ए-उलेमा-ए-इस्लाम में उम्मीद नज़र आयी। पाकिस्तान के खैबर-पख्तूनख्वा के एक देवबंदी हक्कानी मदरसे और फिर देवबंद के कराची मदरसे में पढ़ने वाले मुहम्मद उमर को ज़िम्मेदारी देकर मुल्ला मुहम्मद उमर बनाया गया। पाकिस्तान, अमेरिका और सउदी अरबिया ने खूब पैसे खर्चने शुरू किए। अमेरिका ने 1980 में यूनाइटेड स्टेट एजेंसी फ़ॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट बनाया जिसके जरिए देवबंद के नफ़रती विचारों वाली शिक्षण सामग्री को छपवाकर देवबंदी मदरसों में बांटा जाने लगा। आमोहा की यूनिवर्सिटी ऑफ ने बरस्का इस ज़हर को छात्रों के दिलो दिमाग़ में बैठाने वाली अमेरिकी मदद वाली यूनिवर्सिटी बन गई। सोवियत से लड़ने के लिए अफ़गानिस्तान में मुजाहिदीनों की एक फ़ौज खड़ी हो गई।
पाकिस्तान की मदद से मुजाहिदीन को फंडिंग
अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का कब्जा एक दशक तक चला और इस अवधि के दौरान सीआईए कोड नाम - ऑपरेशन साइक्लोन के तहत अपने कार्यक्रम का विस्तार करता रहा। अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए वाशिंगटन पाकिस्तान की मदद से मुजाहिदीन को फंडिंग करता रहा और 1987 के अंत तक, अमेरिका द्वारा वार्षिक फंडिंग 630 मिलियन डॉलर तक पहुंच गई थी। मार्च 1985 में, राष्ट्रपति रीगन की राष्ट्रीय सुरक्षा टीम ने औपचारिक रूप से पाकिस्तान की मदद से मुजाहिदीन को हथियार उपलब्ध कराने का फैसला किया, जो इसके वितरण की देखभाल भी करता था। 1989 में, सोवियत संघ ने अफगानिस्तान पर अपना पूरा नियंत्रण खो दिया था, अमेरिकी ने हथियारों और गोला-बारूद में अफगानिस्तान में 20 अरब डॉलर का निवेश किया था जिसके बाद सोवियत संघ विघटित हो गया और आतंकवादी समूह को वित्त पोषण के लिए अमेरिका की भूख भी समाप्त हो गई।
सोवियत समर्थक नजबुल्ला को सरेआम फांसी
अफगानिस्तान के राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को तालिबानी सोवियत संघ समर्थित पिट्ठू मानते थे। इसके साथ ही उन्हें ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कम्युनिस्ट भी समझते थे जो एक धार्मित मुस्लिम देश पर शासन कर रहा था। तालिबानी लड़ाकों ने धीरे-धीरे अफगानिस्तान के बाकी इलाकों पर कब्जे के बाद काबुल को भी जबरन हथिया लिया। फिर आती है 27 सितंबर 1996 की तारीख जब संयुक्त राष्ट्र के ऑफिस में पिछले पनाह ले रहे अफगानी राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को जबरदस्ती उनके कमरे से खींच कर पहले तो बुरी तरह पीटा गया। फिर उनके सिर में गोली मार कर क्रेन पर लटकाया गया और राजमहल के नजदीक बिजली के खंबे से टांग दिया गया। उनके भाई शाहपुर अहमदज़ाई की लाश भी लटक रही थी। तालिबन से नजीबुल्लाह की नफरत का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि उनके नमाजे जनाजा तक कराने के इनकार कर दिया गया था। बाद में नजीबुल्लाह और उनके भाई अहमदजई के शवों को अहमदजई कबीले के लोगों ने दफन किया।