मोदी लहर में भी सलामत रहा रालोद का किला, छपरौली सीट पर 84 साल से है चौधरियों का कब्जा

By अनुराग गुप्ता | Feb 06, 2022

बागपत। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए होने वाले मतदान से पहले राजनैतिक दलों ने अपनी पूरी ताक़त झोंक रखी है। ऐसे में सियासी दलों ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपना कैंप लगा लिया है, जहां पर पहले और दूसरे चरण में मतदान होगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत ज़िले की छपरौली सीट पर चौधरी चरण सिंह के परिवार का कब्ज़ा है। आपको बता दें कि अंग्रेजों के ज़माने से चौधरी चरण सिंह का यहां पर वर्चस्व शुरू हुआ था जो आज भी क़ायम है। छपरौली सीट ने देश को ना सिर्फ़ प्रधानमंत्री दिया बल्कि मुख्यमंत्री भी दिया और अब यह चौधरी चरण सिंह के परिवार का अभेद क़िला माना जाता है। इस चुनाव में चौधरी चरणसिंह की विरासत को आगे बढ़ाने का ज़िम्मा जयंत चौधरी ने कंधों पर है। जयंत चौधरी ने पहली बार अपने पिता की गैरमौजूदगी में चुनावी रणनीति तैयार की है। 

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मोदी लहर में रालोद का किला रहा सलामत

पिछले विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 71 सीटों में से भाजपा ने 51 सीटों पर कब्जा किया था। राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) के एकमात्र विधायक सहेंदर सिंह रमाला बाद में भाजपा में शामिल हो गए। समाजवादी पार्टी (सपा) को 16, कांग्रेस को 2 और बसपा को एक सीट से ही संतोष करना पड़ा था। मोदी लहर के बावजूद साल 2017 में रालोद के सभी उम्मीदवार चुनाव हार गए थे लेकिन सहेंदर सिंह रमाला ने जीत दर्ज की थी।

आपको बता दें कि पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह छपरौली से 1937 में पहली बार विधायक चुने गए और फिर 1977 तक छह बार विधायक रहे। इसके बाद उन्होंने केंद्र की राजनीति की तरफ अपना रुख किया। इसी सीट से जीतकर चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री बने और फिर बागपत से लोकसभा चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बने। करीब 84 साल से इस सीट पर रालोद का कब्जा है। 

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छपरौली में सेंधमारी कर पाना आसान नहीं ?

चौधरी चरण सिंह के केंद्र की राजनीति में जाने के बाद 1985 में उनकी बेटी सरोज वर्मा और फिर 1991 में उनके बेटे अजीत सिंह ने छपरौली से चुनावी ताल ठोकी और जीत भी दर्ज की। इसके बाद रालोद के उम्मीदवार एडवोकेट नरेंद्र सिंह इस सीट से पांच बार विधायक चुने गए। चौधरी चरण सिंह की मौत के बाद भी छपरौली की जनता ने रालोद का साथ नहीं छोड़ा। साल 2002 से लेकर 2017 तक के चुनावों में पार्टी ने लगातार जीत दर्ज की। ऐसे में अब यह देखना है कि इस बार के चुनावों में क्या जयंत चौधरी अपने दादा की विरासत को संभाल पाने में कामयाब होते हैं या नहीं ?

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