सुप्रीम कोर्ट ने RTI को और ताकत दी लेकिन अफसरशाही इसको कमजोर करने में लगी है

By डॉ. अजय खेमरिया | Nov 22, 2019

भारत का सुप्रीम कोर्ट सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आएगा। चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के ही सेक्रेटरी जनरल और लोक सूचना अधिकारी की तीन याचिकाओं को खारिज करते हुए यह ऐतिहासिक निर्णय सुनाया है। उत्तरदायी और शुचिता मूलक राज व्यवस्था के लिये यह निर्णय एक मिसाल की तरह है लेकिन सवाल इस कानून के व्यावहारिक पक्ष का है जो आज सबसे ज्वलंत बनकर सामने खड़ा है।

 

हकीकत यह है कि लगभग डेढ़ दशक पुराने इस कानून के जरिये भारत को क्या हासिल हुआ है जिसको लक्ष्य करते हुए तब की यूपीए सरकार ने इसे बनाया था। प्रश्न यह भी है कि क्या भारत की बुनियादी समस्याएं सुप्रीम कोर्ट से हल होनी हैं ? शायद नहीं। सुप्रीम कोर्ट न्याय की अंतिम आस होता है और वहां तक जाने वाले आनुपातिक रूप से चंद लोग ही होते हैं। वस्तुतः भारत में अनुदार और असंवेदनशील प्रशासन की जड़ जहां जमी है वह जिला, तहसील, ब्लाक और स्थानीय निकाय है। जीवन के रोजमर्रा की चुनौतियों के बीच आज आम भारतीय इस व्यवस्था के सुगठित आतंक और सार्वजनिक शोषण से आजिज आ चुका है। लाख पारदर्शिता के वादे प्रधानमंत्री के स्तर से किये जाएं पर जमीनी हकीकत यही है कि भारत में निचला प्रशासन आम आदमी के लिये आज भी औपनिवेशिक ही है और त्रासदी का आलम यह है कि इस स्थिति को लोगों ने नियति मानकर स्वीकार कर लिया है।

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सवाल यह है कि क्या सूचना के अधिकार से शासन और आम भारतीय के मध्य सरकारी कार्य संस्कृति में कोई बुनियादी बदलाव आया है ? हकीकत यह है कि यह बदलाव सरकारों के स्तर पर सूचना आयुक्तों की नियुक्तियों, पंचतारा संस्कृति और सुविधा वाले राजधानी केंद्रित सेमीनार और रिटायर्ड अफसरशाही के पुनर्वास का स्रोत बन गया है। देश के अधिकतर राज्यों में आयुक्तों के पद खाली पड़े हुए हैं जहां नियुक्ति हुई है उनमें अधिकतर रिटायर्ड आईएएस, आईपीएस अफसर हैं। कुछ राज्यों में राजनीतिक आधार पर कार्यकर्ताओं को भी आयुक्त बनाया गया है। चूंकि राज्य के मुख्य सचिव के समान सूचना आयुक्त को सुविधाएं उपलब्ध होती हैं इसलिए अधिकतर शीर्ष नौकरशाह रिटायरमेंट से पहले ही अपनी जुगाड़ बिठा लेते हैं। मप्र में तो पिछले 10 साल में 70 फीसदी पदों पर अफसरशाही को नियुक्ति दी गई है।

 

यहां एक बड़ा सवाल यह उठाया ही जाना चाहिये कि जिस अफसरशाही की अनुदार, अतिगोपनीयता, अनुत्तरदायी, जड़ता, अहं जैसी तमाम बुराइयों के शमन हेतु सरकारी सिस्टम से सूचना अधिकार को जोड़ा गया है उसके क्रियान्वयन और निगरानी का जिम्मा उन्हीं के सुपुर्द कर दिया गया है जो मूल रूप से इस अधिकार के जन्मना दुश्मन है। सही मायनों में सत्ता के एक भ्रष्ट गठजोड़ की नजीर है देश भर में सूचना आयुक्तों के रूप में आईएएस, आईपीएस अफसरों को नियुक्त किया जाना। मप्र के अनुभव से इस गठजोड़ की पुष्टि होती है क्योंकि जिन थोक बन्द अफसरों को अब तक इस पद पर नियुक्ति दी गईं है उनमें से एक भी ऐसा ट्रेक रिकॉर्ड नहीं रखता है जो प्रशासन में जनपक्षधरता, पारदर्शिता, शुचिता या उत्तरदायी स्थानीय प्रशासन के निर्माण के लिये विख्यात रहा हो। आयुक्त के रूप में भी जो भी नजीर वाले निर्णय हैं वे अधिकांश पत्रकार कोटे से नियुक्त आयुक्तों ने ही दिए हैं। सवाल फिर खड़ा है कि जिस अफसरशाही सोच ने आजाद भारत में भी प्रशासन के स्वरूप को आज भी सामन्ती और औपनिवेशिक बना रखा है आखिर उसी वर्ग को सूचना अधिकार की निगरानी सौंप कर हमारी राजव्यवस्था क्या सन्देश देना चाहती है ?

 

एक अहम पहलू यह भी है कि भारत के निचले प्रशासन तंत्र में क्या कोई भय या उत्तरदायित्वबोध का आविर्भाव हुआ है ? आप नगरीय निकायों, तहसीलों, अन्य जिला/तालुका दफ्तरों में चले जाइये पीड़ित जनता की शिकायतों का अंबार ही नजर आएगा। सूचना का अधिकार तंत्र की जवाबदेही तय करने में जमीनी रूप से नाकाम ही साबित हुआ है, इस कानून ने एक नए वर्ग को भी जन्म दिया है जो बेईमान अफसरों को इस कानून के जरिये न केवल डराता है बल्कि उनकी चोरी में आंशिक भागीदारी भी पा लेता है। लेकिन ऐसे मामले अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। अगर इस कानून का भय मशीनरी में होता तो आज जनसमस्याओं के ग्राफ में उतार नजर आना चाहिये था लेकिन आप किसी भी जिला कलेक्टर के जनसुनवाई कक्ष, मंत्री के बंगले या जनसमस्या निवारण शिविर का अवलोकन कीजिये। स्थानीय प्रशासन की जनता के प्रति जवाबदेही की कहानी समझते देर नहीं लगेगी। सरकार की कोई भी फ्लैगशिप स्कीम हो हितग्राहियों के चयन से लेकर क्रियान्वयन तक सरकारी तंत्र की बेईमानी और मनमानी से भारत का आम आदमी बुरी तरह त्रस्त है।

 

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय इस सूचना अधिकार की व्याप्ति को साबित तो करता है लेकिन सवाल यह है कि 130 करोड़ देशवासियों में से सुप्रीम कोर्ट से वास्ता कितने नागरिकों का पड़ता है ? एक रिपोर्ट के अनुसार शीर्ष अदालतों सहित देश भर की सभी अदालतों में कुल 3 करोड़ मामले लंबित हैं अगर इनके हितबद्ध पक्षकारों की संख्या को जोड़ लिया जाए तो भी देश की दस फीसदी आबादी नहीं होती है। लेकिन प्रशासन तंत्र से देश के 130 करोड़ नागरिकों का ही पाला प्रत्यक्ष परोक्ष रोज ही पड़ रहा है। सूचना का कानून पहले तो अंतिम छोर तक अपनी उपस्थिति ही दर्ज नहीं करा पाया है और जहाँ इसकी पहुँच है वह वर्ग किसी सामाजिक उद्देश्यों के लिये समर्पित नहीं है। हर दफ्तर का लोक सूचना अधिकारी बाबू /क्लर्क है उसके अपीलीय अधिकारी उसी के साहब, साहब के अपीलीय अधिकारी बड़े साहब हैं। बड़े साहब के अपीलीय कोर्ट में पुराने साहब ही बैठे हैं। कुल मिलाकर ऊपर से नीचे तक पर्देदारी करने के एक से एक धुरंदर बिठा दिए गए हैं। जाहिर है कानून में जो परिकल्पना की गई है उसका हश्र भी भारत में अन्य कानूनों की तरह किताबी और चंद चिन्हित चेहरों के लिये बनकर रह गया है।

 

असल में सरकार भी नहीं चाहती है कि इस कानून को जमीन पर लागू किया जाए क्योंकि जवाबदेही सरकार के किसी भी स्तर पर स्वीकार्य नहीं हो सकती है। यह पिछले 70 सालों में प्रमाणित हो चुका है कि भारत का नागरिक प्रशासन आज भी औपनिवेशिक मानसिकता के ऑक्टोपेशी शिकंजे में है। प्रशासन तंत्र का हिस्सा बनते ही भारतीयों में अंग्रेजी ग्रन्थि का अविर्भाव हो जाता है। यही अँग्रेजियत आम खास में विभेद करती है ठीक गोरी चमड़ी की तरह। जाहिर है सूचना का अधिकार जिसे भारत के सुप्रीम कोर्ट ने ही पूरे 12 साल बाद अधिमान्य किया है तब तक शासन तंत्र को जनोन्मुखी बनाने में अपना लक्षित योगदान नहीं दे सकता है जब तक सत्ता का गठजोड़ ताकतवर बना रहेगा। लोकप्रशासन के विख्यात विचारक मैक्स बेबर ने "अफसरशाही को एक आवश्यक बुराई कहा है" और लोहिया जी ऑल इंडिया कैडर वाले साहेब सिस्टम को ही हटाने के पक्षधर थे। असल में यही वर्ग है जिसने ऊपर से नीचे तक प्रशासन के चेहरे को अनुदार, अहंकारी और अनुत्तरदायी बना रखा है।

 

-डॉ. अजय खेमरिया

 

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