उत्तर प्रदेश में पहले से ही मजबूत दिख रही भारतीय जनता पार्टी, लोकसभा चुनाव में जीत की गारंटी तय करने के लिए 80 लोकसभा सीटों वाले यूपी में लगातार अपना राजनैतिक कुनबा बढ़ाती जा रही है। पूर्व में दो बार (2014 और 2019 में) यदि केन्द्र में मोदी की सरकार बनी इसकी नींव यूपी में ही पड़ी थी। बीजेपी आलाकमान को विश्वास है कि 2024 में भी केन्द्र की सत्ता का रास्ता यूपी से होकर ही निकलेगा। मोदी-योगी की जोड़ी यदि एक बार फिर यूपी वालों का दिल जीतने में सफल रहती है तो यह गैर बीजेपी दलों के लिए किसी आघात से कम नहीं होगा। इसी बात को लेकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी आलाकमान चिंता में डूबा है, लेकिन उसे कोई राह नहीं सूझ रही है, क्योंकि बसपा सुप्रीमो कांग्रेस-सपा के साथ हाथ मिलाने को तैयार ही नहीं हो रही है। इसी के चलते आज भले ही राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और कुछ दल बीजेपी को हराने के लिए पटना से लेकर बंगलुरू-मुम्बई तक की दौड़ लगा रहे हों, लेकिन यूपी में यह गठबंधन निष्क्रिय नजर आ रहा है।
गौरतलब है कि यूपी में इसी तरह के कई प्रयोग पिछले दस वर्षों में औंधे मुंह गिर चुके हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपी की सत्ता में रहते हुए भी अखिलेश यादव, बीजेपी का मुकाबला नहीं कर पाए थे और उसके बाद 2017 में सत्ता गंवाने के बाद तो वह लगातार कमजोर होते जा रहे हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2014 में जब बीजेपी में मोदी युग की शुरुआत हुई थी उस समय समाजवादी पार्टी यूपी में सत्तारुढ़ थी, लेकिन उसे लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था। इसके बाद सपा ने गठबंधन के प्रयोग शुरू कर दिए। 2017 में सपा कांग्रेस के साथ मिलकर विधान सभा चुनाव लड़ी, राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने एक साथ कई सभाएं कीं, बीजेपी के साथ पोस्टर वार में कांग्रेस-सपा गठबंधन ने राहुल-अखिलेश की फोटो वाला पोस्टर जारी करके नारा दिया, 'यूपी को यह साथ पसंद है।’ लेकिन इस गठबंधन को सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा था। इसी तरह से 2019 में बसपा-सपा यानी बुआ-भतीजे की जोड़ी ने अप्रत्याशित रूप से हाथ मिला लिया, जबकि नेताजी इसके पक्ष में नहीं थे, बीजेपी और मोदी के सामने यह गठबंधन भी चारों खाने चित हो गया। अबकी से 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए यूपी में जो संभावित गठबंधन नजर आ रहा है उसमें कांग्रेस और समाजवादी पार्टी एक बार फिर साथ-साथ कदमताल करते नजर आ रहे हैं, जबकि बसपा अलग-थलग है। वह अपने दम पर चुनाव मैदान में कूदने के लिए ताल ठोंक रही है। बीजेपी को कौन कितनी चुनौती दे पाएगा, इसको लेकर संभावित सियासी तस्वीर खींची जा रही है।
बहरहाल, बात सपा प्रमुख अखिलेश यादव की कि जाए जो, यूपी में अपने आप को बीजेपी का विकल्प समझते हैं, इस बार भी वह बीजेपी गठबंधन से अकेले मुकाबला करने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं, किसी भी चुनाव से पहले भले ही अखिलेश बड़े-बड़े दावे करते हों, लेकिन चुनाव की घड़ी आती है तो वह गठबंधन का सहारा ढूंढ़ने लगते हैं। 2017 से 2022 तक अखिलेश कोई भी चुनाव अकेले नहीं लड़े हैं। सपा की यही ‘तस्वीर’ अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में भी बनती नजर आ रही है। यह और बात है कि नये गठबंधन से पूर्व उनके पुराने संगी साथी लगातार उनको छोड़कर जा रहे हैं। फिलहाल समाजवादी पार्टी के साथ सिर्फ राष्ट्रीय लोकदल खड़ा नजर आ रहा है, जो ज्यादा विश्वसनीय नजर नहीं आ रहा है। वैसे भी समय के साथ रालोद प्रमुख पाला बदलने में माहिर हैं। यहां यह बता देना भी जरूरी है कि तीन दशक से अधिक पुरानी समाजवादी पार्टी का किसी भी दल से गठबंधन ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका है। सपा ने सबसे पहले 1993 में बसपा के साथ गठबंधन किया था। तब तत्कालीन सपा प्रमुख मुलायम सिंह और बसपा सुप्रीमों कांशीराम एक साथ आए थे। उस समय भी ये दोनों दल बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए एक साथ हुए थे। यह वह दौर था जब राम मंदिर की सियासत और बीजेपी की उड़ान चरम पर थी। फिर भी दोनों ही दलों ने साथ मिलकर सरकार बनाई, लेकिन आपसी खटपट के कारण दो जून 1995 को बसपा ने गठबंधन से किनारा कर लिया, जिसका अंत लखनऊ में स्टेट गेस्ट हाउस कांड के रूप में सामने आया था। इसके बाद 2002 में बीजेपी और बसपा का गठबंधन हुआ, जिसे बहुमत मिला और समझौते के तहत छह-छह महीने का फार्मूला समाने आया, यानी छह माह मायावती को और छह माह बीजेपी के नेता को सीएम बने रहना था, लेकिन जब मायावती का सीएम के तौर पर छह माह का कार्यकाल पूरा हो गया तो उन्होंने इस्तीफा देने से मना कर दिया और यह गठबंधन टूट गया, तब अगस्त 2003 में मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने और बहुमत का दावा पेश किया। उन्होंने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, इसके बाद बहुमत पेश करने का वक्त आया तो सपा की संख्या कम पड़ी। लेकिन बीजेपी ने उन्हें समर्थन दिया। हालांकि ये गठबंधन भी लंबे वक्त तक नहीं चला था।
2014 में जब मोदी लहर चली तो लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने राज्य में बड़ी जीत दर्ज की। इसके बाद विधानसभा चुनाव के वक्त अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा ने चुनाव लड़ा। इस चुनाव में सपा ने कांग्रेस से गठबंधन किया। हालांकि इस गठबंधन में सपा की अब तक की सबसे बड़ी हार हुई। सपा ने 2012 में 224 सीटें जीती थीं लेकिन इस बार केवल 47 सीटें मिली थीं। जबकि दूसरी ओर कांग्रेस ने 2012 में 28 सीटों पर जीत दर्ज की थी। जबकि 2017 में पार्टी को यूपी में केवल सात सीटों पर जीत मिली। जिसके बाद ये गठबंधन भी टूट गया। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले सपा-बसपा दूसरी बार एक साथ आए। दोनों ही दलों ने मिलकर फिर से बीजेपी के खिलाफ लोकसभा चुनाव में मोर्चा बनाया। हालांकि इस चुनाव में भी सपा और बसपा गठबंधन को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। बसपा को 10 और सपा को पांच सीटों पर जीत मिली थी। कुछ ही दिनों के बाद ये गठबंधन भी टूट गया। इसके बाद 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सपा ने छोटे दलों को साथ लेकर नया गठबंधन बनाया। प्रसपा, सुभासपा, रालोद और महान दल का सपा के साथ विधानसभा चुनाव से ठीक पहले गठबंधन हुआ। इस गठबंधन का कुछ फायदा सपा को मिला लेकिन फिर भी चुनाव में पार्टी को बड़ी हार का सामना करना पड़ा। सपा गठबंधन को केवल 125 सीटों पर जीत मिली, जिसमें सपा केवल 111 सीटें जीत सकी थी। बीजेपी गठबंधन ने 273 सीटों पर जीत दर्ज की। चुनाव में हार के बाद सपा गठबंधन में खटपट बढ़ी और फिर कई दल इस गठबंधन से अलग हो गए।
बात 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए हुए नये गठबंधन की कि जाए तो समाजवादी पार्टी अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव कांग्रेस और रालोद के साथ मिलकर लड़ेगी, लेकिन खास बात यह है कि सपा विपक्षी गठबंधन की कमान कांग्रेस को देने को तैयार नहीं है, वह अपने पास गठबंधन की चाबी रखना चाहती है। सपा के प्रमुख महासचिव प्रो. रामगोपाल कह भी रहे हैं कि जिस राज्य में जो क्षेत्रीय शक्ति मजबूत है, उसी के नेतृत्व में लोकसभा चुनाव लड़ा जाए। जाहिर है कि सपा गठबंधन सहयोगियों के बीच यूपी में सीटों के बंटवारे में अपना हाथ ऊपर रखना चाहती है। वैसे बंगलुरू में हुए दूसरे सम्मेलन में सीटों के बंटवारे के फार्मूले पर सीधे कोई बातचीत नहीं हुई, लेकिन नेताओं ने अलग-अलग इन मुद्दों पर चर्चा जरूर की। माना जा रहा है कि यूपी में गठबंधन के तहत कांग्रेस 15-20 लोकसभा सीटों पर मान सकती है। शेष सहयोगी दलों के बीच सीट बंटवारे की जिम्मेदारी सपा को सौंपी जा सकती है। इसके साथ ही बसपा को लेकर भी विपक्षी दल, खासकर कांग्रेस अभी ना-उम्मीद नहीं है। अंदरखाने एक पूर्व राज्यसभा सदस्य के जरिये कांग्रेस और बसपा के बीच बातचीत चल रही है। यही वजह है कि बंगलुरू सम्मेलन में आजाद समाज पार्टी के चंद्रशेखर आजाद को शामिल कराने का कोई प्रयास नहीं दिखा, क्योंकि इससे बसपा के साथ रिश्तों में खटास आने की पूरी संभावना थी।
सूत्र बताते हैं कि बसपा का विकल्प खुला रखकर कांग्रेस यूपी में गठबंधन के सहयोगियों के बीच सीटों को लेकर अपनी सौदेबाजी की क्षमता को बनाए रखना चाहती है। यह और बात है कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने अलग राह पकड़ रखी है, वह नये गठबंधन की नीति और नियत पर सवाल खड़ा कर रही हैं। बीएसपी लोकसभा चुनाव और इसके पहले तीन राज्यों राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का मूड बनाए हुए है। हालांकि, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बीएसपी हरियाणा और पंजाब में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में उतरे। उधर, मायावती, कांग्रेस पर बार-बार हमलावर होते हुए कहती हैं कि कांग्रेस अपने जैसी जातिवादी और पूंजीवादी ताकतों के साथ गठबंधन कर रही है। सत्ता से बाहर होने पर ही कांग्रेस को दलितों, पिछड़ों और गरीबों की याद आती है। जब सत्ता में होते हैं तो न तो भाजपा व न ही कांग्रेस को किसी की परवाह रहती है। भाजपा ने 2014 में हर गरीब के खाते में 15-15 लाख रुपये डालने का वादा किया था जो कि पूरा नहीं किया। मायावती का कहना है कि आगामी चुनाव में बसपा अपने सहयोगी गठबंधन को मजबूत करेगी। उन्होंने विपक्षी गठबंधन को एक मजबूर गठबंधन बताया है।
-स्वदेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्य सूचना आयुक्त हैं)