Section 377 जैसी ब्रिटिश विरासत से तो हम मुक्त हो चुके हैं, अब समलैंगिक विवाह क्यों बना बहस का मुद्दा?

By अभिनय आकाश | Apr 18, 2023

सेम सेक्स मैरिज यानी समलैंगिक शादी इसे मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। केंद्र समलैंगिक शादी को भारतीय अवधारणा के खिलाफ  बता रहा है। भारतीय अवधारणा यानी पति-पत्नी और उनसे पैदा हुए बच्चों से होते हैं। शादी के कन्सेप्ट में शुरुआत से ही विपरीत लिंग यानी अपोजिट सेक्स के दो व्यक्तियों का मेल माना गया है। सामाजिक, सांस्कृतिक और कानूनी तौर पर शादी के विचार और अवधारणा में यही परिभाषा शामिल है। सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक शादी से जुड़ी 15 याचिकाएं दायर की गई है। याची पक्ष का कहना है कि समलैंगिकों को गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार, निजता का सम्मान और अपनी इच्छा से जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए। बता दें कि आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंध अपराध माना जाता था। पर सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में फैसला दिया कि दो व्यस्कों के बीच निजी तौर पर सहमति से समलैंगिक संबंध को अपराध नहीं माना जाएगा।  

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धारा 377 को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सीजेआई दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली पांच जजों की बेंच ने साल 2018 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा था कि दो व्यस्कों के बीच सहमति से संबंध बनाना अब अपराध नहीं है। कोर्ट ने कहा था कि समलैंगिकता स्वाभाविक है औऱ लोगों का इस पर कोई नियंत्रण नहीं है। देश की शीर्ष अदालत की संविधान पीठ के इस फैसले ने भारतीय दंड संहिता की ब्रिटिश काल की धारा 377 को खत्म कर दिया।

150 साल पुराना कानून

भारत की स्वतंत्र से लगभग 80 साल पहले समलैंगिकता के खिलाफ कानून पेश किया गया था। अपने गोल्डन एरा में ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने 'सभ्यता मिशन' के हिस्से के रूप में अपने उपनिवेशों पर इंग्लैंड के आपराधिक कानून को लागू किया। जबकि यूनाइटेड किंगडम की संसद ने 1967 में इंग्लैंड और वेल्स में जबकि स्कॉटलैंड में 1980 में समलैंगिकता को वैध कर दिया था़।  ब्रिटिश काल से ही सेक्शन 377 के अंतर्गत समलैंगिक संबंध अपराध था। साल 1862 से लागू इस फैसले के खिलाफ एलजीबीटीक्यू (लेस्बियन, गे, बाईसेक्शुअल, ट्रांस्जेंडर, क्वीर) समुदाय ने कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया और आखिरकार जीत मिली। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद से अब सहमति से समलैंगिक यौन संबंध बनाना धारा 377 के तहत अपराध नहीं है।  

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लंबी कानूनी लड़ाई 

धारा 377 का मुद्दा पहली बार एक गैर सरकारी संगठन नाज फाउंडेशन की तरफ से उठाया गया। संस्था ने साल 2001 में दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। जिसने धारा 377 के दंडात्मक प्रावधान को अवैध मानते हुए समलैंगिक व्यस्कों के बीच यौन संबंध को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था। कुछ धार्मिक संगठनों की आपत्ति के बाद उच्च न्यायलय के 2009 के इस फैसले को 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया था और मामले को संसद में विचार के लिए छोड़ दिया था।जुलाई 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई के लिए एक बेंच गठित की और आखिरकार 6 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने मामले पर अंतिम फैसला सुनाया। 

 ब्रिटिश उपनिवेशों में समलैंगिकता के खिलाफ कानून

किर्बी लिखते हैं कि दुनिया के 80 से अधिक देशों में समलैंगिकता के खिलाफ कानून थे या अभी भी हैं। इनमें से आधे से अधिक वे थे जो किसी समय अंग्रेजों द्वारा शासित थे। 1860 की भारतीय दंड संहिता, जिसे अक्सर थॉमस बबिंगटन मैकाले के बाद मैकाले कोड के रूप में संदर्भित किया जाता है। भारत में समलैंगिकता को अपराधी बनाने वाला सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्राधिकार था। इसका प्रभाव ऐसा था कि फिजी, सिंगापुर, मलेशिया और जाम्बिया जैसे कई अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में इसकी नकल की गई। 

समलैंगिक शादी को इन देशों में मान्यता

1. क्यूबा

2. एंडोरा

3. स्लोवेनिया

4. चिली

5. स्विटरलैंड

6. कोस्टा रिका

7. ऑस्ट्रिया

8. ताइवान

9. इक्वेडोर

10. बेल्जियम

11. ब्रिटेन

12. डेनमार्क

13. फिनलैंड

14. फ्रांस

15. जर्मनी

16. आइसलैंड

17. आयरलैंड

18. लक्समबर्ग

19. माल्टा

20. नॉर्वे

21. पुर्तगाल

22. स्पेन

23. स्वीडन

24. मैक्सिको

25. दक्षिण अफ्रीका

26. संयुक्त राज्य अमेरिका

27. कोलंबिया

28. ब्राजील

29. अर्जेंटीना

30. कनाडा

31.नीदरलैंड

32. न्यूजीलैंड

33. पुर्तगाल

34. उरुग्वे

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