ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् | देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॐ
अथ श्री महाभारत कथा अथ श्री महाभारत कथा
कथा है पुरुषार्थ की ये स्वार्थ की परमार्थ की
सारथि जिसके बने श्री कृष्ण भारत पार्थ की
शब्द दिग्घोषित हुआ जब सत्य सार्थक सर्वथा
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत
अभ्युत्थानमअधर्मस्य तदात्मानम सृज्याहम।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम
धर्म संस्थापनार्थाये संभवामि युगे युगे।।
भारत की है कहानी सदियो से भी पुरानी
है ज्ञान की ये गंगाऋषियो की अमर वाणी
ये विश्व भारती है वीरो की आरती है
है नित नयी पुरानी भारत की ये कहानी
महाभारत महाभारत महाभारत महाभारत।।
पिछले अंक में हमने पढ़ा था कि- अपने पिता के प्रेम को अमर करने के लिए देवव्रत ने महाराज शांतनु और सत्यवती का विवाह करा दिया था और स्वयं आजीवन अविवाहित रहने का प्रण ले लिया था। अपने पुत्र के इस त्याग के बदले में महाराज शांतनु ने भीष्म अर्थात (देवव्रत) को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया था।
आइए, आगे की कथा अगले प्रसंग में चलते हैं।
महाराज शांतनु की मृत्यु के बाद उनके और रानी सत्यवती से उत्पन्न हुए दोनों पुत्र चित्रांगद और विचित्रवीर्य हस्तिनापुर का सिंहासन संभालने लगे। इस प्रकार हस्तिनापुर का राज-काज सुचारु रूप से चलता रहा। कुछ समय के बाद गंधर्व राजा से युद्ध में हारकर चित्रांगद वीरगति को प्राप्त हो गए। चित्रांगद की मृत्यु के पश्चात विचित्रवीर्य को हस्तिनापुर का राज सिंहासन प्राप्त हुआ। इनका विवाह काशीराज की तीनों पुत्रियों अम्बा, अंबिका और अंबालिका से हुआ था।
जिनको (अंबा, अंबिका और अंबालिका) भीष्म हरण करके ले आए थे। कुछ समय के पश्चात क्षय रोग के चलते विचित्रवीर्य की भी मृत्यु हो जाती है। ऐसे में हस्तिनापुर के राजा का पद कुछ समय के लिए रिक्त हो जाता है। तब रानी सत्यवती महर्षि वेदव्यास को महल में बुलाती हैं। क्योंकि हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर भीष्म के अतिरिक्त वही बैठ सकता था, जोकि कुरु वंश से संबधित हो। आपको बता दें कि महर्षि वेदव्यास भी रानी सत्यवती और ऋषि पराशर के पुत्र थे। अपनी माता के कहने पर महर्षि वेदव्यास ने राजकुमार विचित्रवीर्य की पत्नियों अंबिका और अंबालिका को अपनी दिव्य दृष्टि से पुत्र रत्न की प्राप्ति कराई।
इस दौरान महर्षि वेदव्यास के दिव्य रूप को देखकर रानी अंबिका भय से कांप जाती है, तो वहीं अंबालिका अपने नेत्र बंद कर लेती है। ऐसे में रानी अंबिका के गर्भ से महाराज पाण्डु जन्म लेते हैं। जो कि एक वीर और श्रेष्ठ धनुर्धारी थे लेकिन उनकी अल्प आयु थी। क्योंकि उनके जन्म के दौरान उनकी माता भयभीत हो गई थी।
दूसरी ओर, अंबालिका ने नेत्रहीन पुत्र महाराज धृतराष्ट्र को जन्म दिया था। क्योंकि काले कलुटे महर्षि वेदव्यास को देखकर उन्होंने अपने नेत्र बंद कर लिए थे। इसी दौरान रानी अंबिका और अंबालिका ने महर्षि वेदव्यास से भयभीत होकर एक दासी को उनके पास भेज दिया था।
जिसने विदुर जैसे ज्ञानी पुत्र को जन्म दिया। आगे चलकर हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठने के लिए महाराज पाण्डु के नाम की स्वीकृति दी गई। महाराज पाण्डु ने हस्तिनापुर की सीमाओं को चारों ओर से सुरक्षित कर लिया था। ऐसा कोई युद्ध नहीं था जिसे महाराज पाण्डु ने न जीता हो। महाराज पाण्डु के पराक्रम और शौर्य की चर्चा दूर-दूर तक होने लगी थीं। तब महाराज पाण्डु के लिए राजा सूरशेन की पुत्री कुंती (पृथा) के विवाह का प्रस्ताव आया। उधर, भीष्म (देवव्रत) ने महाराज धृतराष्ट्र के लिए गांधार नरेश की पुत्री गांधारी का हाथ मांगा था।
गांधार राजकुमार शकुनि को अपनी बहन के लिए एक अंधे राजा का रिश्ता मंजूर नहीं था, लेकिन गांधारी ने भीष्म (देवव्रत) का मान रखते हुए विवाह के लिए स्वीकृति दे दी थी। साथ ही महाराज धृतराष्ट्र की नेत्रहीनता के चलते उन्होंने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। तो वहीं दासी पुत्र विदुर का विवाह शुलभा नामक स्त्री से हुआ था।
इसके अलावा, एक बार जब महाराज पाण्डु का युद्ध मद्र देश के राजा शल्य से हो रहा था। तब युद्ध के बाद महाराज पाण्डु की मुलाकात मद्र देश की राजकुमारी माद्री से हुई। जिनसे महाराज पाण्डु ने दूसरा विवाह कर लिया। इसके बाद सम्पूर्ण जगत में अपनी विजय का ध्वज फहराने के बाद महाराज पाण्डु अपनी दोनों पत्नियों के साथ कुछ समय बिताने के लिए राजमहल से बाहर चले गए।
एक बार जब वह जंगल में आखेट के लिए गए हुए थे। तब माद्री की नजर एक मृग पर पड़ी। जिसको देखकर महाराज पाण्डु ने रानी माद्री के कहने पर उसपर तीर चला दिया। फिर जब पास जाकर देखा तो वहां ऋषि किंदम अपनी पत्नी के साथ घायल अवस्था में पड़े हुए थे। जिन्हें देखकर महाराज पाण्डु काफी चिंतित हो गए। इसी दौरान ऋषि किंदम ने महाराज पाण्डु को यह शाप दे दिया कि जब भी वह अपनी किसी पत्नी के अत्यधिक निकट जाने की कोशिश करेंगे तभी उनकी मृत्यु हो जाएगी।
आगे की कथा अगले प्रसंग में । --------
श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
-आरएन तिवारी