Gyan Ganga: अथ श्री महाभारत कथा- जानिये भाग-13 में क्या क्या हुआ

By आरएन तिवारी | Feb 10, 2024

ॐ नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्  देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॐ


अथ श्री महाभारत कथा, अथ श्री महाभारत कथा

कथा है पुरुषार्थ की ये स्वार्थ की परमार्थ की

सारथि जिसके बने श्री कृष्ण भारत पार्थ की

शब्द दिग्घोषित हुआ जब सत्य सार्थक सर्वथा

यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत 

अभ्युत्थानमअधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्यहम।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम 

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

भारत की है कहानी सदियो से भी पुरानी

है ज्ञान की ये गंगाऋषियो की अमर वाणी॥ 

ये विश्व भारती है वीरो की आरती है

है नित नयी पुरानी भारत की ये कहानी

महाभारत महाभारत महाभारत महाभारत।।


आइए ! महाभारत कथा के समापन की ओर चलें । पिछले अंक में हम सबने द्रौपदी के पांचों पुत्रों का वध और परीक्षित के जन्म की कथा के साथ-साथ यह भी पढ़ा था कि अश्वत्थामा ने निर्दोष पांडव पुत्रों की निर्मम हत्या कर दी थी इसलिए उसे धरती पर जीवन भोगने का शाप मिलता था। हमारे शास्त्रों के अनुसार अश्वस्थामा आज भी जीवित है। इसीलिए तो कहा जाता है -----


अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः।

कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥


आइए ! अब आगे की कथा प्रसंग में चलते हैं ------- 


महाभारत के युद्ध के अंत हो जाने पर, भगवान श्री कृष्ण के यदुकुल वंश का भी नाश हो गया था। जब भीष्म पितामह को यह ज्ञात होता है कि पांडव युद्ध जीत गए हैं तब वे भी अपने अंत:करण में अति प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। जब पाँचों पांडव भगवान श्री कृष्ण के साथ कुरुक्षेत्र के मैदान में शर शैय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह के पास पहुँचते हैं तब उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है। वे धर्म राज्य युधिष्ठिर को राज धर्म का उपदेश देते हैं और भगवान श्री कृष्ण के कमलवत चरणों का ध्यान करते हुए अपने प्राण त्याग देते हैं। 


महाभारत युद्ध के बाद कौरवों की ओर से लड़ने वाले योद्धाओं में कृतवर्मा, अश्वस्थामा और कृपाचार्य जीवित बच जाते हैं और पांडवों की ओर से पांचों पांडव और सात्यकि जीवित रहते हैं।

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महाभारत युद्ध के बाद राजा युधिष्ठिर का राज्याभिषेक किया जाता है। राज्याभिषेक के पश्चात अपने पूर्वजों की प्रसन्नता और उनकी संतुष्टि के लिए अश्वमेध यज्ञ का आयोजन करते हैं। चारों ओर शांति और समृद्धि का साम्राज्य फैल जाता है।  धर्मराज युधिष्ठिर के राज्य में प्रजा पूर्ण रूप से सुखी और खुशहाल हो जाती है ।

 

युधिष्ठिर समेत पांडवों का स्वर्गलोक प्रस्थान

महाभारत युद्ध की समाप्ति, यदुवंश का सर्वनाश और अर्जुन के बेटे परीक्षित को राज्य की जिम्मेदारी सौंपने के पश्चात् युधिष्ठिर ने स्वर्गलोक प्रस्थान करने का विचार किया। सबने उनके विचार का अनुमोदन किया । चारों पांडव और द्रौपदी भी उनके साथ जाने को तैयार हो गए।


ऐसा कहा जाता है कि जब पांडव और द्रौपदी स्वर्गलोक जाने के लिए मेरु पर्वत की यात्रा पर निकले, तब एक कुत्ता भी उनके साथ-साथ चल रहा था। असल में उस कुत्ते के वेश में और कोई नही बल्कि स्वयं मृत्यु के देवता यमराज थे। जो कि युधिष्ठिर के साथ अंत तक रहे।


स्वर्ग जाते समय रास्ते में ही द्रौपदी समेत भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव की एक एक करके मृत्यु हो जाती है। जिनमें द्रौपदी की मृत्यु का कारण यह था कि वह पांचों पांडवों में सबसे अधिक अर्जुन से प्रेम करती थी। भीम की मृत्यु इसलिए हुई क्योंकि उन्हें अपनी प्रशंसा स्वयं करना पसंद था और वह भोजन का अत्यधिक मात्रा में सेवन करते थे। इसका तात्पर्य यह कि हम मनुष्यों को अपनी प्रशंसा स्वयम नहीं करनी चाहिए और जीवन जीने के लिए ही भोजन ग्रहण करना चाहिए न कि भोजन के लिए ही जीवन जीना चाहिए। अर्जुन को अपनी शक्ति पर बड़ा घमंड था इसलिए उनकी भी मृत्यु हो गई, तो वहीं नकुल को अपनी सुन्दरता और सहदेव को अपने ज्ञानी होने पर अभिमान था। इसलिए युधिष्ठिर को छोड़कर अन्य सभी मृत्यु के बाद स्वर्ग पहुंचे। जबकि युधिष्ठिर को सशरीर स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी क्योंकि युधिष्ठिर जीवनपर्यंत धर्म, सत्य और न्याय के मार्ग पर प्रशस्त रहे। हालांकि गुरु द्रोणाचार्य के बेटे अश्वस्थामा की मृत्यु की गलत सूचना देने पर कुछ समय के लिए युधिष्ठिर को भी नरक के दर्शन करने पड़े थे। लेकिन उसके बाद वह हमेशा के लिए सशरीर स्वर्गलोक पहुंच गए। जहां वह अपने भाइयों समेत द्रौपदी, कर्ण, भीष्म और भगवान श्री कृष्ण से मिले। भगवान श्री कृष्ण से मिलते ही युधिष्ठिर ने उन्हें प्रणाम किया और तत्पस्श्चात स्वर्ग का सुख भोगने लगे।


आज यहाँ महाभारत की संक्षिप्त कथा सम्पन्न हुई, फिर किसी दूसरी कथा प्रसंग में मिलेंगे तब तक के लिए आप सभी को बहुत- बहुत शुभकामनाएँ। आप सबका मंगल हो। 

धन्यवाद 


श्री कृष्ण गोविंद हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव ----------

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय । 


- आरएन तिवारी 

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