पशु भी चाहते हैं आजादी और प्रेमपूर्ण व्यवहार

By चेतनादित्य आलोक | Oct 07, 2024

बढ़ती जनसंख्या और घटती वन−संपदा ने जिन कुछ प्रमुख समस्याओं को जन्म दिया या बढ़ाया है, उनमें सर्वाधिक चिंतनीय और घातक समस्या वन्य पशुओं का लगातार बढ़ता हुआ आतंक है। उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिले बहराइच का प्रकरण सामने है, जहां मार्च 2024 में शुरू हुए भेडि़यों के खूनी हमलों के सर्वाधिक शिकार इलाके के छोटे−छोटे बच्चे हुए। इन हमलों में अब तक लगभग 10 बच्चों समेत कम−से−कम एक दर्जन लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 40 से अधिक लोग घायल हुए हैं। दुर्भाग्य से घायलों में भी अधिकतर बच्चे ही हैं। वैसे देखा जाए तो भेडि़ए ही नहीं, बल्कि हाथी, शेर, सियार, तेंदुआ, चीता, भेडि़या, भालू और बाघ जैसे बेहद खूंखार और भयावह वन्य पशुओं का मानव बस्तियों में अतिक्रमण और उनके द्वारा मनुष्यों, विशेष रूप से बच्चों, बुजुर्गों और महिलाओं पर हमले किए जाने की घटनाएं दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही हैं। गौरतलब है कि महाराष्ट्र में बाघों, भालुओं, तेंदुओं और जंगली हाथियों, मध्य प्रदेश में सियारों एवं पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में जंगली हाथियों के हमले मनुष्यों कोई नई बात नहीं है। निर्विवाद रूप से ये घटनाएं अत्यंत दुरूखद और भयावह हैं। इसलिए लोगों का आक्रोशित होना उचित है, लेकिन प्रश्न है कि आखिर जंगल में आजाद विचरण करने, छोटे वन्य पशुओं का शिकार कर अपना तथा परिवार का भरण−पोषण करने और सामान्यतः अपने परिवार के साथ जीवन यापन करने वाले ये भेडि़ए इतने खूंखार क्यों हो गए कि हमारे छोटे−छोटे मासूम बच्चों को मारकर खाने लगे।


दरअसल, देश भर में जंगलों की तेजी से कटाई के कारण वन्य पशुओं का आशियाना दिनोंदिन उजड़ता जा रहा है। आज विश्व की कुल जनसंख्या 08 अरब (08 अरब साढ़े 17 करोड़) से भी अधिक हो चुकी है और प्रत्येक वर्ष इससे दो गुना से भी ज्यादा लगभग 18 अरब तक वृक्षों की कटाई हो रही है। पेड़ों की इस अंधाधुंध कटाई की भरपाई किए जाने का एक ही तरीका हो सकता है और वह है तीव्र गति से नए पौधों का रोपण और उनकी देखभाल करना यानी जितने पेड़ प्रत्येक वर्ष काटे जा रहे हैं, कम−से−कम उतने पौधे भी दुनिया भर में लगाए जाएं। हालांकि उन पौधों के पेड़ बनने में कई वर्ष लग जाते हैं। इसलिए वास्तव में पौधरोपण की जो वर्तमान दर और गति है, उससे लगातार नष्ट किए जा रहे जंगलों के एवज में नए जंगल उगा पाना संभव नहीं है। तात्पर्य यह कि पौधरोपण वन्य पशुओं के प्राकृतिक रहवास और पर्यावरण दोनों को बचाने का सर्वश्रेष्ठ विकल्प तो अवश्य है, किंतु इस कार्य में पूर्ण रूप से सफलता प्राप्त करने के लिए पौधरोपण की गति को हमें इस हद तक बढ़ाना होगा कि जितने वृक्ष प्रत्येक वर्ष दुनिया भर में काटे जाते हैं, कम−से−कम उससे डेढ़ गुना तक पौधे तो अवश्य ही लगाए जाएं, जबकि प्रत्येक वर्ष 18 अरब काटे जाने वाले वृक्षों की तुलना में आज दुनिया भर में मात्र पांच अरब पौधे ही लगाए जा रहे हैं। जाहिर है कि इस प्रकार पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की भरपाई संभव नहीं होगी।

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यह विडंबना ही है कि भारत में भी वृक्षों की अंधाधुंध कटाई जारी है। लोकसभा में एक सवाल के जवाब में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने 21 मार्च 2022 को बताया था कि वर्ष 2020−21 के दौरान भारत में सार्वजनिक बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के निर्माण और विकास के लिए लगभग 31 लाख पेड़ काट दिए गए। वन (संरक्षण) अधिनियम के अंतर्गत काटे गए पेड़ों के बदले में प्रतिपूरक वनीकरण की योजना चलाकर मोदी सरकार ने 359 करोड़ रुपये की लागत से 3.6 करोड़ से अधिक पौधे लगाए, जो नाकाफी प्रतीत होते हैं, क्योंकि फिलहाल इससे संबंधित कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि उनमें से कितने पौधे बचाए गए और कितने नष्ट होने के लिए छोड़ दिए गए। बहरहाल, वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण दिनोंदिन वन्य पशुओं का प्राकृतिक रहवास सिकुड़ता जा रहा है, इससे इनके लिए भोजन−पानी की बहुत बड़ी समस्या पैदा हो गई है। इसीलिए वन्य पशु भोजन−पानी की तलाश में मानव बस्तियों की ओर पलायन करने के लिए मजबूर हुए हैं। वैसे भेडि़यों की बात करें तो ये स्वभाव से खूंखार तो होते हैं, परंतु सारे भेडि़ए आदमखोर नहीं होते। हालांकि प्रतिशोध लेने में ये अत्यंत माहिर होते हैं। इसलिए यदि इनको या इनके परिवार के सदस्यों को क्षति पहुंचाने का प्रयास किया जाए तो ये कतई सहन नहीं करते और अपने शत्रुओं से चुन−चुनकर बदला लेते हैं।


ऐसे कुछ उदाहरण दुनिया में मौजूद हैं, जिनमें भेडि़यों अथवा उनके बच्चों को मनुष्यों के द्वारा क्षति पहुंचाए जाने के बाद ये खूंखार हो गए और जब तक अपना बदला पूरा नहीं कर लिया, तब तक इनकी आक्रामकता कम नहीं हुई। आज से लगभग 25 वर्ष पूर्व ऐसी ही एक घटना उत्तर प्रदेश के जौनपुर और प्रतापगढ़ जिलों में सई नदी के कछार पर घटी थी, जिसमें भेडि़यों के हमलों में इलाके के 50 से भी अधिक मासूम बच्चों की मौत हो गई थी। उस समय पड़ताल करने पर यह पता चला था कि कुछ इंसानी बच्चों ने भेडि़यों की एक मांद में घुसकर उनके दो बच्चों को मार डाला था, जिसके प्रतिशोध स्वरूप भेडि़यों ने जोरदार हमले कर मनुष्यों के 50 से भी अधिक मासूम बच्चों को मौत के घाट उतार दिया था। उस दौरान वन विभाग के द्वारा चलाए गए भेडि़यों के धर−पकड़ अभियान में कुछ भेडि़ए पकड़े भी गए थे, लेकिन उनके बीच में मौजूद आदमखोर जोड़ा हमेशा बचता रहा और बदला लेने के मिशन में लगातार कामयाब भी होता गया। हालांकि बाद में आदमखोर भेडि़यों को वन विभाग के कर्मचारियों द्वारा गोली मार दी गई और अंततरू भेडि़यों का खूनी आतंक खत्म हो पाया था। गौर करें तो इस बार भी बहराइच की घटनाओं में भेडि़यों का वही व्यवहार... वही पैटर्न सफल होता हुआ प्रतीत हो रहा है। सबसे बड़े दुरूख की बात तो यह है कि एक बार फिर इन भेडि़यों की जान खतरे में आ गई है, क्योंकि शासन−प्रशासन की ओर से बेकाबू हो चुके इन आदमखोर भेडि़यों को गोली मार देने का आदेश दे दिया गया है।


वैसे भेडि़यों के विरूद्ध की जाने वाली सरकारी कार्रवाइयों पर गौर करें तो उनके जीवन का सर्वाधिक स्याह पक्ष अंग्रेजों के समय का है, जब ब्रिटिश सरकार की ओर से भेडि़यों को मारने का बड़ा अभियान चलाकर 40 सालों में एक लाख से भी अधिक भेडि़यों को शिकारियों ने मार डाला था और ब्रिटिश राज की तरफ से ईनाम भी प्राप्त किया था। देखा जाए तो मनुष्य और वन्य पशुओं के बीच जारी संघर्षों का यह सिलसिला बेहद गंभीर और चिंताजनक है। इसलिए समय रहते इसका हल ढूंढना जरूरी है। अन्यथा यह समस्या अत्यंत विकराल रूप भी ले सकती है। ऐसे में जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारें वन्य प्राणी विशेषज्ञों की सलाह लेकर वन्य पशुओं के प्राकृतिक आवासों को संरक्षित करने तथा बड़े स्तर पर वनीकरण अभियान चलाकर वनों के विकास करने की दिशा में कुछ ठोस और सकारात्मक कदम उठाएं, ताकि हमारे वन्य साथी आजादी से अपने घरों में बेफिक्र होकर रह सकें। संभव है कि इन प्रयासों के फलीभूत होने में कई वर्ष लग जाएं, लेकिन इस दौरान एक कार्य किया जा सकता है, वह है इन वन्य प्राणियों के साथ प्रेमपूर्ण आचार और व्यवहार करना। इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि इन वन्य पशुओं के विरूद्ध क्रूरता के बदले में दया का भाव दर्शाया जाए और इनको लाड़−प्यार दिया जाए तो मनुष्यों के प्रति इनके हिंस्र व्यवहारों में भी परिवर्तन आ सकता है।


−चेतनादित्य आलोक

वरिष्ठ पत्रकार, साहित्यकार एवं राजनीतिक विश्लेषक, रांची, झारखंड

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