बाबा साहेब वाहिनी के बहाने अखिलेश की नजर दलित वोटों पर, मायावती के लिए बढ़ सकती है मुश्किलें

By अंकित सिंह | Apr 20, 2021

उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने है। ऐसे में सभी राजनीतिक दल जातीय समीकरण को ध्यान में रखकर अपनी रणनीति बनाने में जुट गई हैं। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने तो संविधान निर्माता भीमराव अंबेडकर की जयंती के मौके पर बाबा साहेब वाहिनी के गठन का ऐलान कर दिया था। अपने इस ऐलान के साथ अखिलेश यादव ने कहा था कि संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर के विचारों को सक्रिय कर असमानता-अन्‍याय को दूर करने तथा सामाजिक न्‍याय के समतामूलक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए, हम उनकी जयंती पर जिला, प्रदेश एवं राष्ट्रीय स्‍तर पर सपा की बाबा साहेब वाहिनी के गठन का संकल्प लेते हैं। इसके दो दिन पहले यादव ने कहा था, भाजपा के राजनीतिक अमावस्या के काल में वह संविधान खतरे में है, जिससे बाबा साहेब ने स्‍वतंत्र भारत को नई रोशनी दी थी। इसलिए बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर की जयंती को सपा उत्तर प्रदेश, देश और विदेश में दलित दीवाली मनाने का आह्वान करती है।

 

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 यादव से दलित दीवाली के नाम को लेकर सवाल पूछा गया तो उन्होंने कहा कि नाम में क्या रखा है, नाम तो कोई भी हो सकता है, आंबेडकर दीवाली, संविधान दीवाली, समता दिवस-नाम कुछ भी रखा जा सकता है। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि डॉ राम मनोहर लोहिया और बाबा साहेब ने मिलकर काम करने का संकल्प लिया था और अगर सपा आंबेडकर के अनुयायियों को गले लगा रही है तो भाजपा और कांग्रेस को तकलीफ क्या है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाली समाजवादी पार्टी अचानक डॉक्टर अंबेडकर को लेकर इतना सक्रिय क्यों हो गई? पार्टी में पहले तो बाबा साहेब वाहिनी के बदले लोहिया वाहिनी सक्रिय हुआ करती थी। जाहिर सी बात है कि कहीं ना कहीं अखिलेश यादव का यह कदम राजनीति से प्रेरित है। अखिलेश यादव की नजर अब उत्तर प्रदेश में दलित वोटों पर है। हालांकि प्रदेश में मायावती की दलित वोटों पर अच्छी खासी पकड़ मानी जाती है। लेकिन कहीं ना कहीं अखिलेश यादव का यह कदम मायावती को रास नहीं आएगा।

 

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अखिलेश यादव ने ऐसा क्यों किया इसके जवाब में हम यह समझ सकते हैं कि जिस तरीके से 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन के बाद अखिलेश यादव और उनकी पार्टी के साथ दलित वोटों का जुड़ाव हुआ था उसे वह अब बरकरार रखना चाहते है। यही कारण है कि अखिलेश यादव की ओर से बाबा साहेब के नाम पर वाहिनी बनाने का ऐलान किया गया। उन्हें उम्मीद है कि जैसा समर्थन 2019 के लोकसभा चुनाव में दलितों की ओर समर्थन मिला था वैसा ही कुछ अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी मिल सकता है। आपको बता दें कि समाजवादी पार्टी का वोट बैंक एमवाई समीकरण को माना जाता है। एमवाई मतलब मुस्लिम और यादव समीकरण। अब दलितों का भी वोट अखिलेश हासिल करना चाहते हैं। ऐसे में कहीं ना कहीं मायावती के लिए यह एक बड़ी चुनौती हो सकता है।

 

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अखिलेश यादव के इसी चाहत को समझने के बाद शायद 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद बसपा प्रमुख मायावती ने गठबंधन से हटने का एकतरफा फैसला ले लिया था। अखिलेश यादव को यह सही नहीं लगा था। अखिलेश यादव के अंदर इस बात की कसक आज भी है। अखिलेश यादव ने बाद में यह भी आरोप लगाया था कि गठबंधन से जैसा सहयोग उन्हें उम्मीद थी वह नहीं मिला। माना जा रहा है कि अखिलेश यादव का यह नया प्रयोग शायद उन्हें आने वाले विधानसभा चुनाव में फायदा पहुंचा दे। लेकिन इसके लिए सबसे जरूरी यह है कि दलित वोट मायावती के पाले में ना जाए। बाकी ऐसे मौके भी आए है जब अखिलेश यादव के नए प्रयोग कुछ खास लाभ नहीं पहुंचाए है। ऐसा ही कुछ प्रयोग 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन था जो कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने टिक भी नहीं पाया।


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