By सुखी भारती | Feb 16, 2021
श्री रामायण अथवा श्री राम चरित मानस में वर्णित जितनी भी प्रेरक घटनाओं के पात्र हैं। वास्तव में वे सब हमारे सांसारिक व आध्यात्मिक जीवन के मार्गदर्शन हेतु ही रचे गये हैं। श्री हनुमान जी परम भक्त हैं और श्रीराम जी साक्षात ईश्वर हैं। दोनों का परस्पर मिलन स्वाभाविक ही न्याय संगत है। क्योंकि ईश्वर को तो भक्त ही मिलेंगे। और भक्त की यह भावना सदैव प्रबल रहती हैं कि अन्य भक्तों को भी प्रभु से मिलाने हेतु हम सदा ही सफल प्रयास करते रहें। लेकिन श्री हनुमान जी जिन सुग्रीव को श्रीराम जी के सान्निध्य में लाते हैं। वे कोई परम भक्त की अवस्था धारण किये हुए नहीं हैं। अपितु पल−पल उनका मन बदलता रहता है। कभी तो उसे प्रथम दृष्टि में श्रीराम जी बालि के दूत दिखते हैं। कभी श्रीराम जी भगवान दिखते हैं और कभी उनके बल पर ऐसा संदेह कि भगवान की परीक्षा लेने हेतु ही तत्पर हो जाते हैं। और अब परीक्षा में श्रीराम जी को उतीर्ण क्या पाया कि मन में बेहद वैराग्य जाग उठा−
उपजा ग्यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला।।
सुख संपति परिवार बड़ाई। सद परिहरि करिहऊँ सेवकाई।।
सुग्रीव के मन से अब संसार का मोह ही निकल गया। बातों से तो ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सुग्रीव तो श्री हनुमान जी से भी बड़े बैरागी हैं। जो पल भर में ही समस्त मोह−माया को त्याग कर केवल मात्र सेवक धर्म का पालन करने को ही तत्पर हैं। निःसंदेह ज्ञान निश्चित रूप से ही साधक रूपी योद्धा की तलवार है। और तलवार निःसंदेह तीखी व पैनी होनी चाहिए। लेकिन रणक्षेत्र में केवल आप ही खड़ग चलाने की कला नहीं रखते हैं अपितु आपका शत्रु तलवारबाजी में आपसे भी ज्यादा पारंगत हो सकता है। जिसका परिणाम आपके लिए घातक व दुःखद हो सकता है। ऐसे में आपके आक्रमण की तीक्षणता व तीव्रता के साथ−साथ शत्रु का प्रहार रोकने व सहने का यंत्र भी योद्धा के पास होना अति आवश्यक होता है। जिसे हम ढाल कहते हैं। बिना ढाल के महान योद्धा का बल व पराक्रम भी आधा रह जाता है।
ठीक इसी प्रकार आपका आध्यात्मिक ज्ञान निःसंदेह विकार रूपी शत्रुओं का दमन व शमन करता है। लेकिन पूर्व संस्कार वश कई बार कुछ विकार हम पर कुछ ज्यादा ही हावी होते हैं। जिसमें हमारा संपूर्ण ज्ञान भी धरा का धरा ही रह जाता है। ऐसे में वैराग्य रूपी ढाल ही हमारा एकमात्र सहारा बनती है। तभी तो भगवान श्री कृष्ण जी भी गीता में कहते हैं कि हे अर्जुन, हे महाबाहो मन को वश में करना बहुत ही दुर्गम है। लेकिन निरंतर अभ्यास और वैराग्य जिस साधक का आभूषण हैं वह निश्चित ही अपने मन को जीत सकता है−
असंशयं महाबाहो मनोदुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।
निरंतर ज्ञान के अभ्यास के साथ वैराग्य का होना कितना आवश्यक है। हम एक उदाहरण के माध्यम से समझ सकते हैं। मान लीजिए खांसी के मरीज को हम दवा दे रहे हैं। दवा खांसी के कीटाणुओं से लड़ रही है। लेकिन दवा लेते ही मरीज अगर तुरंत खट्टा अथवा तला भुना खाने लगे, परहेज़ न करे तो कहने की आवश्यकता नहीं कि उसकी खांसी ब्रह्मा भी ठीक नहीं कर सकते। कहने का तात्पर्य कि बीमारी दूर करने में अगर दवा का प्रभाव है तो परहेज़ की भी अपनी एक अलग विशेषता व महत्व है। ज्ञान रूपी खड़ग के साथ वैराग्य रूपी परहेज़ अथवा ढाल को आप आँखों से ओझल नहीं कर सकते।
यह वैराग्य रूपी ढाल का प्रयोग ऐसा नहीं कि केवल साधक जन ही करते हैं। अन्य क्षुद्र जीव भी इस पद्यति के अनुसरणकर्ता हैं। अमीबा नाम सूक्ष्म जीव का नाम आप सब ने जरूर सुना होगा। अमीबा को वैज्ञानिक भाषा में Immortal भाव अमर कहा जाता है। क्योंकि उसके असंख्य टुकड़े कर दिए जाने पर भी वह मरता नहीं है। यहाँ तक कि अगर आप उसे करोड़ों वर्षों तक भोजन भी उपलब्ध नहीं करवाएँगे तो भी अमीबा नहीं मरेगा। क्योंकि अमीबा अपने चारों ओर एक ऐसी परत का निर्माण कर लेता है जिसे Cyst कहा जाता है। और यह परत किसी भी विपरीत परिस्थिति में उसे पूरी तरह सुरक्षित रखती है।
सुग्रीव के भीतर भी वैराग्य का उद्गम होता है। जिसका प्रभाव ही यह है कि विषयों के प्रति अनासक्ति पैदा होती है। सुग्रीव के मन में तो ऐसी विरक्ति होती है कि वह तो बालि के प्रति भी समभाव की स्थिति में आता प्रतीत होता है। सुग्रीव को अब बालि अपना शत्रु नहीं अपितु परम हितकारी प्रतीत हो रहा है। जिसकी कृपा से सुग्रीव को उसके शोकों का नाश करने वाले प्रभु जो मिल गए−
बालि जेहि सम होइ लराई।
जागे समुझत मन सकुचाई।।
सुग्रीव वैराग्य में ऐसे डूबे प्रतीत होते हैं कि कल्पना से परे की छलांग लगा लेते हैं। जिसे देख श्रीराम जी भी सोच में पड़ गए होंगे कि भई वाह! ऐसा वैराग्य तो मैंने बड़े−बड़े ऋषियों−मुनियों में भी नहीं देखा। सुग्रीव कहता है कि प्रभु मैं भला भाई बालि से बैर क्योंकर करूँ? क्योंकि मान लीजिए स्वप्न में हमारा अपने पड़ोसी से झगड़ा हो जाए तो क्या नींद से जगने पर हम उससे झगड़ने जाते हैं कि आओ हमसे युद्ध करो? क्योंकि रात्रि सपने में आप हमसे झगड़ने आए थे। श्रीराम जी को महान आश्चर्य होता है कि हम तो भगवान शंकर को ही इस त्रिलोक के महान बैरागी समझे बैठे थे। लेकिन उनसे भी बड़ा बैरागी सुग्रीव है। यह तो मुझे पता ही नहीं था। सुग्रीव यह भी दावा करता है कि शत्रु−मित्र, दुःख−सुख माया रचित हैं। वास्तव में तो इनका अस्तित्व है ही नहीं−
शत्रु−मित्र सुख−दुख जग माहीं।
मायाकृत परमारथ नाहीं।।
सुग्रीव वैराग्य में ऐसा रत है कि श्रीराम जी को तो कुछ बोलने का मौका ही नहीं दे रहा। और अब तो उसने श्रीराम जी को ऐसी सलाह दे डाली कि प्रभु की भी हँसी निकल गई। क्या थी वह बात जानने के लिए अगला अंक अवश्य पढि़एगा...क्रमशः...जय श्रीराम
-सुखी भारती