उपचुनाव में फिर हार गयी भाजपा। गोरखपुर और फूलपुर के घाव कैराना और नूरपुर में और गहरा गए। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह निश्चित तौर पर चिंतन का समय है। चिंतन तो उस समय भी हुआ रहा होगा जब गोरखपुर और फूलपुर की पराजय हुई थी। उस समय बहाना था- अतिविश्वास का। लेकिन इस बार यह बहाना तो नहीं चलेगा। यह तो खांटी हार है। एक ही साथ कई बातों पर हारी है भाजपा। उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी हार भाजपा के हिंदुत्व वाले एजेंडे की है। दूसरी हार किसान हितकारी होने के दावे करने वाली सरकार की है। तीसरी हार सामाजिक समरसता के नारे की है। चौथी हार दलितों और अल्पसंख्यकों की हितैषी घोषित करने वाली नीति की है। पांचवीं हार प्रदेश में सुशासन के राज की है। छठवीं हार अयोध्या, मथुरा काशी वाले नारे की है। सातवीं हार सरकार के अतिविश्वास और संकल्पों की है। आठवीं हार कार्यकर्ताओ की उपेक्षा की है। नौवीं हार जनपक्षधर घोषित करने के दावों की है। दसवीं हार कहीं न कहीं व्यवस्था में आ चुकी उस दम्भ की भी है जिसे न जनता दिख रही है न जमीन।
यदि इसे 2019 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल भी मान लिया जाये तो यह और भी भयावह तस्वीर पेश करने वाली दिख रही है। ऐसा नहीं है कि भाजपा केवल उत्तर प्रदेश में ही हारी है। कुल 10 विधानसभा और 4 लोकसभा सीटों पर हुए इन चुनावों के नतीजे कहीं न कहीं संगठित विपक्ष को बहुत मजबूती देते दिख रहे हैं। यह जनादेश देश के मानस का लिटमस टेस्ट भी हो सकते हैं। लोकसभा की कुल चार सीटों कैराना, पालघर, भंडारा-गोदिया और नागालैंड में से भाजपा को सिर्फ एक पालघर पर विजय मिली है। इनमें से तीन सीट पहले उसके पास थीं। इस बार कैराना से रालोद की तबस्सुम हसन, भंडारा-गोदिया से एनसीपी के मधुकर कुकड़े और नागालैंड से एनडीपी प्रत्याशी की जीत हुई है। इसी तरह विधानसभा की 10 में से केवल दो सीटों पर भाजपा जीत सकी। एक गोमिया झारखण्ड और दूसरी थराली, उत्तराखंड।
बिहार की जोकीहाट से राजद, सिल्ली झारखण्ड से झामुमो, चेंगनूर केरल से सीपीएम, पलूस कडेगाव- महाराष्ट्र से कांग्रेस, नूरपुर उत्तर प्रदेश से सपा, महेश तला पश्चिम बंगाल से टीएमसी, शाहकोट पंजाब से कांग्रेस तथा अम्पाती मेघालय से भी कांग्रेस ने विजय दर्ज की है। अब ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि भाजपा क्या अब भी अपनी कुछ बड़ी गलतियों से सीख लेगी ? पार्टी के कुछ वरिष्ठ और जिम्मेदार कार्यकर्ताओं की मानें तो उत्तर प्रदेश में हालत इसलिए भी खराब हुई है क्योंकि जिस प्रदेश की जनता ने इसी भाजपा को बीते विधान सभा चुनाव में प्रचंड बहुत दिया, उस प्रदेश में जनता की भावनायें तभी कुचल दी गयीं जब जीते हुए 325 विधायकों में से एक भी को पार्टी के कर्णधारों ने मुख्यमंत्री के काबिल नहीं माना और बिना किसी सदन की सदस्यता वाले तीन लोगों को लाकर उच्च पद दे दिए गए। जो चुने ही नहीं गए उन्हें ही नेता बना दिया गया। निश्चित तौर पर यह जनादेश का अपमान ही था। इससे पार्टी के भीतर और बाहर जबरदस्त गुस्सा बढ़ा। कार्यकर्ता पार्टी से कटा। जनता की रूचि खुद ख़त्म हो गयी। सवाल जगा कि आखिर किसके लिए और क्यों ? गोरखपुर और फूलपुर में इसका प्रमाण सामने भी आया लेकिन भाजपा के अलमबरदार अपनी दम्भ में इस प्रमाण को भी नकार कर अपनी वाली ही करते रहे। कैराना और नूरपुर में भी वही हुआ। कार्यकर्ता उपेक्षा से कट कर किनारे हो गया। रणनीतिकारों ने जिन नए चेहरों पर भरोसा कर अलमबरदार बनाया वे न तो जनता को समझते हैं न पार्टी को।
यह जीत निश्चित तौर पर एक साफ़ सन्देश दे रही है। विपक्ष की एका प्रगाढ़ हुई है। भाजपा, उसकी विचारधारा और उसके कार्यकर्ताओं में बिखराव बढ़ा है। सबका साथ सबका विकास का नारा केवल नारा बनकर रह गया। राम की धरती पर राम को भूल चुकी भाजपा को यह झटका तो लगना ही था। इस बार तो भाजपा यह भी नहीं कह सकती कि ध्रुवीकरण हो गया क्योंकि भाजपा के विरोध में दोनों प्रत्याशी मुसलमान थे, ऐसे में वह हिन्दू ध्रुवीकरण क्यों नहीं करा सकी ? प्रदेश में हिंदुत्व के सबसे बड़े चेहरे को प्रदेश की बागडोर देकर भी आखिर क्या मिला ? इसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश ने अभी साल भर पहले ही तो आपको पलकों पर बिठाया था। आखिर कुछ तो हुआ कि भाजपा को विधानसभा और लोकसभा, दोनों ही सीटों से हाथ धोना पड़ा। पार्टी यह भूल गयी है कि जब जब वह नए प्रयोग से नए वोटबैंक के लिए प्रयास कराती है, उसे हार ही मिलती है। वह याद नहीं रख पाती कि जनता भाजपा को टमाटर के मूल्य, पेट्रोल और डीजल या दलित जैसे मुद्दों के लिए नहीं चुनती है। भाजपा को जनता इसलिए चुनती है क्योंकि अब तक उसे यह भरोसा रहा है कि भाजपा ही कश्मीर से धारा 370 हटाएगी, समान सिविल कोड लागू करेगी और अयोध्या में राम का मंदिर बनाएगी। लेकिन भाजपा जब सत्ता पाती है तो उसकी प्राथमिकताएं दलित, मुसलमान और अन्य मुद्दे हो जाते हैं। इस बार तो प्रचंड बहुमत देकर जनता ने स्पष्ट सन्देश दिया था। इतने पर भी नहीं समझ सके तो पराजय तो होनी ही है।
-संजय तिवारी