By ललित गर्ग | Nov 23, 2021
गुरुनानक देवजी की जन्म जयन्ती ‘गुरु परब’ के दिन तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर अपने कद को बड़ा किया है, लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूती दी है। दरअसल कृषि क्षेत्र में सुधारों एवं किसानों की दशा एवं दिशा सुधारने की दृष्टि से ये तीनों कानून मोदी सरकार ने बनाये थे उनका शुरू से ही किसान संगठन विरोध कर रहे थे। असल में विभिन्न राजनीतिक दलों एवं मोदी विरोधी खेमे को यह एक मुद्दा मिल गया था, जिसे जमकर भुनाया गया, अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते किसान हितों को कुचला गया। देश की निर्दोष जनता को लम्बे समय तक परेशान किया गया, राष्ट्रीय मार्ग रोके गये, रेलें अवरुद्ध की गयीं। लेकिन मोदी ने गुमराह हुए किसानों की मंशा को देखते हुए जिन भावों एवं जिस पवित्र दिवस पर ये तीनों कानून वापस लेने की घोषणा की, उससे एक मिसाल कायम हुई है। मोदी का यह निर्णय उनकी हार नहीं, बल्कि उसकी जीत है।
भारत एक कल्याणकारी एवं लोकतांत्रिक राज है जिसका लक्ष्य जन कल्याण ही है। किसान हमारे राष्ट्र का अन्नदाता इसीलिए कहा जाता है कि वह मनुष्य की मूलभूत जरूरतों को पूरा करते हुए पेट की क्षुधा को शान्त करने का उपाय अपने श्रम से करता है। अतः उसे सुखी व सम्पन्न देखना मानवीय धर्म भी है एवं राष्ट्रीय धर्म भी है। अतः मोदी के फैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते समय प्रधानमंत्री ने जिस संवेदनशीलता से यह कहा कि शायद हमारी तपस्या में कुछ कमी रह गई होगी, जिसके कारण दीये के प्रकाश जैसा सत्य हम कुछ किसानों को समझा नहीं पाए, उससे यही स्पष्ट होता है कि कृषि कानूनों को वापस लेने का फैसला मजबूरी में लिया गया फैसला है। इस फैसले ने फिर यह साबित किया कि लोकतंत्र में सही फैसले लेना और लागू करना कितना मुश्किल होता है। लेकिन इस तरह लोकतंत्र कब तक कमजोर होता रहेगा? इससे अधिक दुर्भाग्य की बात और कोई नहीं कि जो फैसला किसानों के हित में था और जिससे उनकी तमाम समस्याएं दूर हो सकती थीं, उसे संकीर्ण राजनीतिक कारणों से उन दलों ने भी किसान विरोधी करार दिया, जो एक समय वैसे ही कृषि कानूनों की पैरवी कर रहे थे, जैसे मोदी सरकार ने बनाए।
यह शुभ संकेत नहीं कि संसद से पारित कानून सड़क पर उतरे लोगों की जिद से वापस होने जा रहे हैं। यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि भविष्य में ऐसा न हो, अन्यथा उन तत्वों का दुस्साहस ही बढ़ेगा, जो मनमानी मांगें लेकर सड़क पर आ जाते हैं। तुष्टिकरण हटे और उन्माद भी हटे। अगर भारत माता के शरीर पर इतना बड़ा घाव करके भी हम कुछ नहीं सीख पाये, तो यह हम सबका दुर्भाग्य ही होगा। लोकतंत्र में लोगों की इच्छाओं का सम्मान होना चाहिए, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जोर-जबरदस्ती को जनाकांक्षाओं का नाम दे दिया जाए। यह बिल्कुल भी ठीक नहीं कि किसानों और खासकर छोटे किसानों का भला करने वाले कृषि कानून सस्ती राजनीति की भेंट चढ़ गए। इन कानूनों की वापसी किसानों की जीत नहीं, एक तरह से उनकी हार है, क्योंकि वे जहां जिस हाल में थे, वहीं खड़े दिखने लगे हैं। अब इसमें संदेह है कि किसानों की आय दोगुना करने के लक्ष्य को तय समय में हासिल किया जा सकेगा। इन हालातों में यही कहा जा सकता है कि सबको सन्मति दे भगवान।
दिलचस्प है कि कानून वापसी का एलान करते हुए भी प्रधानमंत्री ने उनकी खासियतों पर जोर देकर कहा कि प्रदर्शनकारी उनके फायदों को नहीं देख सके। उन्होंने यह भी कहा कि इन कानूनों को जल्दबाजी में लागू नहीं किया जा सकता यानी अगले आम चुनाव से पहले तो बिल्कुल नहीं। इसका सबसे बड़ा नुकसान देश में कृषि सुधारों के भविष्य को भुगतना होगा। स्पष्ट है कि वह प्रदर्शनकारी किसानों के अड़ियल और अतार्किक रवैये की ओर संकेत कर रहे थे। आखिर में जब उन्होंने एलान किया कि कुछ असंगत प्रदर्शनकारी समूहों की इच्छा को देखते सरकार इन कानूनों को निरस्त कर रही है, तो इस घोषणा ने सभी को चकित कर दिया। लोगों को भरोसा ही नहीं हो रहा था। लेकिन यह एक सोचनीय स्थिति है कि किसान आन्दोलन एक अभूतपूर्व संकट बनकर उभरा। लेकिन यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि किसी भी दल में इस आन्दोलन के सत्य को, इसके उजाले को समझने वाला एक भी कद्दावर नेता नहीं था जो राजनीतिक स्वार्थों से देशहित एवं किसानों के हित को ऊपर माने।
प्रधानमंत्री मोदी की अप्रत्याशित घोषणा के बाद सरकार समर्थकों और विरोधियों, दोनों को कुछ नहीं सूझ रहा था। यहां तक कि सरकार के इस रुख से खुश होने वाले भी यह नहीं समझ सके कि मजबूत फैसले लेने और अपने रुख पर अडिग रहने वाली सरकार यकायक कैसे झुक गई? जबकि पिछले कुछ महीनों से यही लग रहा था किसान संगठनों का विरोध-प्रदर्शन निस्तेज हो रहा है। इससे जुड़े अहम किरदार निढाल दिखने लगे थे। संयुक्त किसान मोर्चा के विभिन्न धड़ों में भी दरारें पड़ने लगी थीं। किसानों द्वारा सड़कों की घेराबंदी को लेकर सुप्रीम कोर्ट का धैर्य भी जवाब देने लगा था। ऐसे में यह दलील उतनी गले नहीं उतरती कि सरकार महज प्रदर्शनकारियों के दबाव में आकर इन कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर हुई। निःसंदेह इसके पीछे चुनावी परिदृश्य भी रहे हैं। पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कुछ समय बाद चुनाव होने हैं। वहां कृषि कानूनों का कुछ असर दिख सकता था। लेकिन यह तर्क भी बूढ़ा तर्क ही कहा जायेगा। क्योंकि इस किसान आन्दोलन ने भारत की आत्मा को आहत किया था, विभिन्न राजनीतिक दलों की षड्यंत्रपूर्ण मानसिकता को उजागर किया था और यह बात आम मतदाता भलीभांति समझ गया था, इसलिये इसके चुनावों पर नकारात्मक प्रभाव की बात आधी-अधूरी है।
इसलिये कृषि कानूनों की वापसी को आगामी विधानसभा चुनावों से जोड़कर देखना एक और राजनीतिक कुचेष्टा ही है। लेकिन इन कानूनों को वापस लेने की स्थितियों का तटस्थ विश्लेषण होना चाहिए। लगता यही है कि इसके मूल में उन तत्वों की सक्रियता भी एक बड़ा कारण रही, जो कृषि कानून विरोधी आंदोलन में सक्रिय होकर कानून एवं व्यवस्था के लिए चुनौती बन रहे थे, आम जनता के दुःखों का कारण बने। लाल किले में हुए उपद्रव से लेकर दिल्ली-हरियाणा सीमा पर मजदूर लखबीर सिंह की हत्या तक की घटनाओं की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह किसी से छिपा नहीं कि किसान नेताओं ने इन घटनाओं में लिप्त तत्वों की किस तरह या तो अनदेखी की या फिर दबे-छिपे स्वरों में उनका बचाव किया।
लोकतंत्र में किसी भी आन्दोलन को तभी जारी रखा जा सकता है जबकि उसे जनता का समर्थन प्राप्त हो। भारत की 130 करोड़ से अधिक आबादी में से लगभग 70 करोड़ लोग खेती पर निर्भर करते हैं अतः बहुत स्पष्ट है कि इस आन्दोलन से भावनात्मक रूप से देश के वे सभी लोग जुड़ गये थे जिनका खेतीबाड़ी से किसी न किसी रूप में लेना-देना है। अतः केन्द्र सरकार के मुखिया के रूप में मोदी ने इन कानूनों को वापस लेने का एलान करके लोक इच्छा का सम्मान किया है। लोकतन्त्र में किसी भी वर्ग या समुदाय अथवा किसी खास पेशे से जुड़े लोगों की समस्याओं का समाधान राजनीतिक नेतृत्व द्वारा ही किया जाता है। मगर भारत में कृषि क्षेत्र का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह क्षेत्र आज भी हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। भारत की अंसगठित क्षेत्र की 70 प्रतिशत से अधिक अर्थव्यवस्था इसी क्षेत्र पर निर्भर करती है। वैसे भी किसी देश की आर्थिक स्थिति नापने का सबसे सरल पैमाना यह होता है कि उस देश के किसान की आर्थिक स्थिति कैसी है? दरअसल, किसान आंदोलन के समूचे घटनाक्रम से हमें लोकतंत्र का पाठ फिर सीखना-समझना चाहिए। चुनाव तो आते-जाते रहेंगे, कोई जीतता, और कोई हारता रहेगा, लेकिन लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि संवाद और सहमति का तंत्र स्थापित करना है, लोक-भावना की स्वस्थ अभिव्यक्ति है। लोकतंत्र एक पवित्र प्रणाली है। पवित्रता एवं जन-भावना ही इसकी ताकत है। इसे पवित्रता से चलाना पड़ता है। मोदी ने एक कुशल एवं आदर्श शासक के रूप में इसकी पवित्रता को नये आयाम देने के लिये ही किसानों के हितों में कानून बनाये और पारित कानूनों को इन्हीं किसानों की भावना को देखते हुए वापस लिये हैं। मोदी दोनों ही रूपों में रोशनी बने हैं। और रोशनी राजनीतिक स्वार्थों, उन्माद एवं अतार्किक आन्दोलनों से प्राप्त नहीं होती।
-ललित गर्ग