राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के मतभेद अब खुलकर सामने आ चुके हैं। यह स्थिति दोनों के लिए सामाजिक और राजनीतिक रूप से हानिकारक साबित होगी, जिसकी शुरुआत लोकसभा चुनाव 2024 से हो चुकी है। इस बदलती परिस्थिति के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है और कितना जिम्मेदार है, यह पड़ताल करने का काम दोनों संगठनों के प्रमुखों का है, लेकिन अब तो इन दोनों के बीच ही तलवारें खींच चुकी हैं।
मसलन, पहले भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की चुनावी भूमिका को लेकर जो कुछ टिप्पणी की, और अब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने मणिपुर में भाजपा की अदूरदर्शी भूमिका को लेकर जो कुछ इशारे किये हैं, उससे जाहिर होता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसका राजनीतिक मुखौटा समझी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। यह हिंदुत्व और राष्ट्रवाद जैसी विचारधारा के लिए संकटापन्न स्थिति है, जिसका सम्यक हल निकट भविष्य में निकलेगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। क्योंकि देश के दोनों प्रमुख संगठन सत्ता सुख की मृगमरीचिका में भटकते हुए इतना आगे निकल चुके हैं कि वापस लौटना अब उनके बस की बात नहीं!
यहां संघ को यह सोचना होगा कि आखिर बाजपेयी से लेकर मोदी तक के सत्ता में आते ही उनसे खटपट क्यों हो जाती है? आखिर वह कौन सा यक्ष प्रश्न होता है, जिसके समक्ष घुटने टेकने से भारतीय प्रधानमंत्री इंकार कर देते हैं, जहां से कलह की शुरूआत होती है। पुरानी बातें यदि भुला भी दी जाए तो संघ प्रमुख मोहन भागवत के हालिया बयानों से दोनों के बीच बढ़ती दूरी भी साफ दिखी है। क्योंकि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संकेत में ही भाजपा को नसीहत भी दी है और सरकार के कामकाज के तरीकों से लेकर और संगठन में मची आपाधापी तक पर परोक्ष रूप से नाराजगी भी दिखाई है। हालांकि समझदार व्यक्ति होने के चलते उन्होंने खुलकर कुछ भी नहीं कहा है, इसलिए दोनों ही पक्ष इस मुद्दे पर ज्यादा नहीं बोल रहे हैं। लेकिन जिन्हें इनका तल्ख अतीत और स्वार्थी रवैया मालूम है, वो ह से हलन्त तक समझ जाते हैं।
यह कौन नहीं जानता कि लोकसभा चुनाव 2024 में नतीजे यदि भाजपा की उम्मीद के विपरीत आए हैं, तो इसके पीछे कहीं न कहीं संघ के स्वयंसेवकों का उदासीन रवैया भी जिम्मेदार है। यही वजह है कि अब भाजपा और संघ के बीच स्पष्ट रूप से मतभेद उभरते दिखाई दे रहे हैं। जानकारों की मानें तो आमतौर पर चुनावी प्रक्रिया के दौरान भाजपा और संघ के बीच जिस तरह का समन्वय और सामंजस्य होता था, वह इस बार दिखाई नहीं दिया। आखिर ऐसा क्यों?
वहीं, भाजपा और संघ के बीच अक्सर होने वाली उच्च स्तरीय समन्वय बैठकें भी काफी समय से नहीं हुई हैं। स्वाभाविक सवाल है कि आखिर ये बैठकें तय वक्त पर क्यों नहीं हुईं। क्या इसके पीछे एक दूसरे को सबक सिखाने की मंशा रही है, जो 2004 के बाद 2024 में भी साफ दिखी। अंतर सिर्फ इतना कि तब 'कुलीन' मिजाज वाले प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी एक ही झटके में धराशायी हो गए। जबकि आज 'कुटिल' मिजाज वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी धराशायी होते-होते बच गए। स्वाभाविक है कि इसकी अनुगूंज अगले 5 सालों तक सुनाई पड़ती रहेगी।
कहना न होगा कि इन सब बातों के बीच संघ को लेकर भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का बयान भी काफी चर्चित रहा है, जिससे भी संघ के भीतर नाराजगी साफ दिखाई दी है। यही वजह है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत के हाल में एक बयान को लेकर दोनों के बीच के रिश्तों को लेकर कई तरह के अर्थ लगाए जा रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की चुनाव के दौरान संघ को लेकर की गई टिप्पणी से भी दोनों पक्षों के रिश्तों में कड़वाहट आई है, जिसका असर मतदान के आखिरी तीन चरणों में दिखाई दिया।
वहीं, अंदरूनी स्तर पर इस बात की काफी चर्चा है कि आखिर के तीन चरणों में संघ ने उतना मन लगाकर काम नहीं किया, जितना कि वह पहले कर रहा था। स्वाभाविक है कि इसका असर मतदान पर भी पड़ा है। हालांकि संघ ने इस तरह की अटकलों को पूरी तरह से खारिज कर दिया है, और भाजपा भी इससे पूरी तरह से सहमत नहीं है। फिर भी आलम यह है कि मोहन भागवत के बयान के बाद भले ही दोनों पक्ष ज्यादा कुछ नहीं बोल रहे हैं, लेकिन अंदरूनी तौर पर चर्चा में यह दिखता है कि दोनों के बीच अब सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। खास बात यह कि इस बारे में संघ के भीतर भी अलग-अलग राय दिखती है। सीधा सवाल है कि क्या यह स्थिति खुद संघ के लिए सही है। जवाब होगा, कतई नहीं!
जानकारों के मुताबिक, संघ ने जिन मुद्दों पर नाराजगी जताई है, उनमें भाजपा व संघ के बीच समन्वय की कमी है। सवाल है कि दोनों के बीच समन्वय बैठकें बेहद कम होने के लिए कौन जिम्मेदार है, इसका निर्धारण कौन करेगा। वहीं, विभिन्न उम्मीदवारों को लेकर संघ की सलाह को नजरअंदाज करने के लिए जिम्मेदार कौन है? क्या उसे यह स्पष्ट नहीं करना चाहिए कि अपने मातृ संगठन के सलाह व सूझाव को विनम्रता पूर्वक टालने का भी एक अपना तरीका होता है, ताकि वह किसी को नागवार नहीं गुजरे। लेकिन यहां तो प्रथमदृष्टया यही प्रतीत हो रहा है कि भाजपाध्यक्ष जेपी नड्डा ने न केवल संघ की भावनाओं की अनदेखी की, बल्कि अपने तल्ख बयानों से उल्टे संघ को ही आईना दिखाने की कोशिश की, जो संघ प्रमुख मोहन भागवत को नागवार गुजरी। इसलिए उन्होंने भी नहले पर दहला की तर्ज पर सरकार बनते ही उसे आईना दिखा दिया।
मिली जानकारी के मुताबिक, संघ ने कृपा शंकर सिंह समेत लगभग दो दर्जन नामों पर आपत्ति जताई थी। इसके पहले वह आर के सिंह पर आपत्ति जता चुका था, हालांकि वह तब चुनाव जीत गए थे। इसके अलावा, दूसरे दलों से और इधर-उधर से बेलगाम तरीके से लोगों को भाजपा में शामिल करना, जिससे भाजपा कॉडर और पुराने कार्यकर्ताओं में उपेक्षा का भाव पैदा हुआ, क्योंकि उनको तरजीह न मिली। इसके अलावा, चुनाव अभियान में कमी के भी कई मुद्दे शामिल रहे। समझा जाता है कि इन्हीं वजहों से 2014 और 2019 के उलट 2024 में भाजपा को स्पष्ट बहुमत से 32 सीटें कम मिलीं, जिससे वह एनडीए के सहयोगी दलों की बैशाखी पर टिकने को अभिशप्त हो गई।
बता दें कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 10 जून 2024 दिन सोमवार को मणिपुर की हिंसा पर चिंता जताते हुए कहा था कि वहां पर एक साल से अशांति है। राज्य में पिछले 10 साल की शांति भंग हुई है। इसलिए भागवत ने नेताओं को अहंकार न पालने और काम करने की नसीहत भी दी थी। वहीं, उन्होंने परोक्ष रूप से विपक्ष के रवैये पर भी सवाल खड़े किए थे, लेकिन कुछ बयानों को भाजपा से जोड़कर देखा गया। हालांकि, संघ का कहना है कि सामाजिक जीवन में काम कर रहे संघ की यह सामान्य प्रक्रिया है और इसे किसी राजनीतिक दल से जोड़ना उचित नहीं है। इसलिए सवाल तो यह भी पैदा हो रहा है कि भारतीय राजनीति में एक बार फिर से क्षेत्रीय दलों के मजबूत होने से संघ के समीकरण गड़बड़ा चुके हैं, जिसको वह अपनी तल्ख बयानबाजी से दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे हैं।
दिलचस्प बात तो यह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस से जुड़ी पत्रिका 'ऑर्गनाइजर' ने दो टूक कहा है कि लोकसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के अति आत्मविश्वासी कार्यकर्ताओं और कई नेताओं का सच से सामना कराने वाले हैं। वजह यह कि भाजपा नेता और कार्यकर्ता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आभामंडल के आनंद में डूबे रह गए और उन्होंने आमजन की आवाज को अनदेखा कर दिया, जिसका परिणाम सामने है।
अब तो संघ यहां तक स्वीकार कर चुका है कि आरएसएस भले ही भाजपा की जमीनी ताकत न हो, लेकिन पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने चुनावी कार्य में सहयोग मांगने के लिए स्वयंसेवकों से संपर्क तक नहीं किया। इतना ही नहीं, चुनाव परिणामों में उन पुराने समर्पित कार्यकर्ताओं की उपेक्षा भी स्पष्ट है, जिन्होंने बगैर किसी लालसा के काम किया। इनके स्थान पर इंटरनेट मीडिया तथा सेल्फी संस्कृति से सामने आए कार्यकर्ताओं को महत्व दिया गया। जिसका साइड इफ़ेक्ट अब जगजाहिर हो चुका है।
आरएसएस के आजीवन सदस्य रतन शारदा ने तो यहां तक कह दिया है कि 2024 के आम चुनाव के परिणाम अति आत्मविश्वास से भरे भाजपा कार्यकर्ताओं और कई नेताओं के लिए सच्चाई का सामना कराने वाले हैं। क्योंकि उन्हें इस बात का एहसास तक नहीं था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 400 से अधिक सीटों का आह्वान उनके लिए एक लक्ष्य था और विपक्ष के लिए एक बड़ी चुनौती थी। यह बात दीगर है कि भाजपा लोकसभा चुनाव में 240 सीटों के साथ बहुमत से दूर रह गई। लेकिन उसके नेतृत्व वाले राजग को 293 सीटें मिली हैं और उसने केंद्र में सरकार बनाई है।
उन्होंने स्पष्ट कहा कि चुनावी जीत इंटरनेट मीडिया पर पोस्टर और सेल्फी साझा करने से नहीं, बल्कि मैदान पर कड़ी मेहनत से हासिल किए जाते हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन के पीछे अनावश्यक राजनीति को भी कई कारणों में से एक बताया और उदाहरण दिया कि, 'महाराष्ट्र अनावश्यक राजनीति और ऐसी जोड़तोड़ का एक प्रमुख उदाहरण है जिससे बचा जा सकता था। यहां अजित पवार के नेतृत्व वाला राकांपा गुट भाजपा में शामिल हो गया, जबकि भाजपा और विभाजित शिवसेना (शिंदे गुट) के पास स्पष्ट बहुमत था। शरद पवार दो तीन साल में फीके पड़ जाते, क्योंकि राकांपा अपने भाइयों के बीच अंदरूनी कलह से ही कमजोर हो जाती।'
सीधा सवाल है कि 'आखिर यह गलत सलाह वाला कदम क्यों उठाया गया? क्योंकि इससे वो भाजपा समर्थक आहत थे, जिन्होंने वर्षों तक कांग्रेस की विचारधारा के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, उन्हें सताया गया था। इस प्रकार एक ही झटके में भाजपा ने अपनी ब्रांड वैल्यू कम कर दी।' जिसका दुष्प्रभाव यह हुआ कि भाजपा ने इस चुनाव में महाराष्ट्र में खराब प्रदर्शन किया। क्योंकि वह कुल 48 में से 2019 के 23 निर्वाचन क्षेत्रों के मुकाबले केवल 9 सीटें जीत सकी। शिंदे गुट के नेतृत्व वाली शिवसेना को 7 सीटें और अजित पवार के नेतृत्व वाली राकांपा को सिर्फ एक सीट मिली है।
रतन शारदा के मुताबिक, भगवा आतंकवाद को सक्रिय रूप से बढ़ावा देने वाले, हिंदुओं पर अत्याचार करने वाले, 26/11 को आरएसएस की साजिश कहने वाले तथा आरएसएस को आतंकवादी संगठन बताने वाले कांग्रेसियों को भाजपा में शामिल करने जैसे फैसलों ने भाजपा की छवि को खराब किया और इससे आरएसएस से सहानुभूति रखने वालों को भी बहुत चोट पहुंची। उन्होंने यहां तक कह दिया कि आरएसएस भाजपा की जमीनी ताकत नहीं है। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के अपने कार्यकर्ता हैं। मतदाताओं तक पहुंचने, पार्टी का एजेंडा समझाने, साहित्य बांटने और वोटर कार्ड बांटने जैसे नियमित चुनावी कार्य पार्टी की जिम्मेदारी हैं।
उल्लेखनीय है कि अब आरएसएस उन मुद्दों के बारे में लोगों के बीच जागरूकता बढ़ा रहा है जो उन्हें और राष्ट्र को प्रभावित करते हैं। यदि उसकी सियासी अभिरुचि की बात की जाए तो 1973-1977 की अवधि को छोड़कर आरएसएस ने कभी भी सीधे राजनीति में भाग नहीं लिया। क्योंकि उसने यह जिम्मेदारी भाजपा पर छोड़ रखी है। इस बार भी आधिकारिक तौर पर तय किया गया था कि आरएसएस कार्यकर्ता 10-15 लोगों की स्थानीय, मोहल्ला, कार्यालय स्तर की छोटी-छोटी बैठकें आयोजित करेंगे और लोगों से कर्तव्य के तौर पर मतदान करने का अनुरोध करेंगे। इसमें राष्ट्र निर्माण, राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रवादी ताकतों को समर्थन के मुद्दों पर भी चर्चा हुई। अकेले दिल्ली में इस तरह की 1.20 लाख सभाएं आयोजित की गईं। जिसका परिणाम यह हुआ कि यहां की सातों सीटें भाजपा की झोली में चली गई। इसके अलावा, चुनाव कार्य में आरएसएस स्वयंसेवकों का सहयोग लेने के लिए भाजपा कार्यकर्ताओं, स्थानीय नेताओं को अपने वैचारिक सहयोगियों तक पहुंचने की आवश्यकता थी, मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। यही वजह है कि भाजपा को चुनावी झटका लगा और यह साबित हो गया कि वह अपराजेय नहीं रही।
लोग-बाग पूछ रहे हैं कि क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के मतभेदों का ये सिलसिला कभी थमेगा, या फिर यूं ही चलता रहेगा! क्या इसके पीछे नौकरशाही की कोई भूमिका है या फिर कोई अंतर्राष्ट्रीय दबाव, जो पद और गोपनीयता की शपथ के चलते आमलोगों के सामने नहीं आ पा रहे हैं। कभी गौ रक्षकों की पीठ पर से हाथ खींचने, कभी 'भेदभावी' आरक्षण के समर्थन में खड़े दिखने, कभी तुष्टिकरण की सियासत को संतुष्टिकरण करार देने के पीछे सत्ता का असली मकसद क्या है, यह तो वही जाने, लेकिन इसका जो साइड इफेक्ट्स होगा, वह संघ के साथ साथ भाजपा को भी प्रभावित करेगा, जिसकी शुरुआत लोकसभा चुनाव परिणाम 2024 से हो चुकी है। यदि दोनों संगठन प्रमुखों ने आ बैल मुझे मार वाली कहावत को चरितार्थ किये तो यह क्रूर इतिहास उन्हें भी नहीं बख्शेगा, इतनी समझ तो उनमें भी होगी, होनी भी चाहिए।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक