राजनीतिक उपस्थिति दर्ज कर पाएंगे प्रशांत किशोर?

By उमेश चतुर्वेदी | Oct 11, 2024

पटना का ऐतिहासिक गांधी मैदान तमाम रैलियों का गवाह रहा है, लेकिन इस मैदान में आधी सदी के अंतर पर हुई दो रैलियों में कम से कम बिहार की अवाम एक समानता देख रही है। पांच जून 1974 को 72 साल के बुजुर्ग जेपी ने संपूर्ण क्रांति का नारा देकर इंदिरा की सर्वशक्तिमान सत्ता को उखाड़ने की पूर्व पीठिका रच दी थी। इस बार इंदिरा की सत्ता उखाड़ने जैसा कोई लक्ष्य तो नहीं है, लेकिन गांधी जयंती के अगले दिन तीन अक्टूबर को 47 साल के प्रशांत किशोर से बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रशांत किशोर अपनी पार्टी के जरिए जनसुराज की बयार बिहार की धरती पर बहा पाएंगे या फिर बदलाव की राजनीति का दावा करने वाले दूसरे लोगों की तरह वे भी पारंपरिक राजनीति का ही हिस्सा बन जाएंगे? वैसे बिहार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जिन्हें ठीक उसी तरह प्रशांत किशोर से उम्मीद नहीं है, जैसी नाउम्मीदी पारंपरिक दलों से है। 


बिहार की राजनीति के संदर्भ में प्रशांत किशोर की राजनीतिक पारी की पड़ताल करने से पहले एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या वे बिहार की राजनीति में तीसरा स्तंभ भी बन पाएंगे? बिहार में यूं तो छोटे-बड़े कई राजनीतिक दल हैं, लेकिन मोटे तौर पर राज्य की राजनीति दो खेमों में बंटी हुई है। राष्ट्रीय जनता दल की अगुआई वाले गठबंधन में तमाम तरह की वैचारिकी वाले कई दल शामिल हैं, जिनमें देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी तो है ही, वामपंथी दल भी हैं। वहीं दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी की अगुआई में नीतीश कुमार का जनता दल यू, जीतनराम मांझी की हम, उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मोर्चा और चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी शामिल है। इस दो खेमे की राजनीति के बीच में यह सवाल उठना वाजिब है कि क्या प्रशांत किशोर इन दोनों गठबंधनों के बीच अपनी तीसरी राह बना पाएंगे ?

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बिहार की राजनीति का जब भी संदर्भ आता है, गर्व भाव से उसे याद किया जाता है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बिहार के बेटे ने कुंवर सिंह ने जहां देश को नई दिशा दिखाई, स्वाधीनता संग्राम में जयप्रकाश नारायण ने भी नौजवानों को उसी अंदाज में जगा दिया था। इन्हीं जयप्रकाश को दूसरी आजादी का नायक का भी सम्मान हासिल है। बिहार की राजनीति का जब भी बखान होता है, तब इन ऐतिहासिक चरित्रों के हवाले से यह दावा जरूर किया जाता है कि बिहार की राजनीति भविष्य की राजनीति को प्रभावित करती है। इसे उलटबांसी ही कहा जा सकता है कि जिस बिहार की धरती का गौरवबोध वैशाली के गणतंत्र से भर उठता है, जिसे बुद्ध और महावीर की धरती का गौरव हासिल है, उसी बिहार की धरती आज के दौर में जातिवादी राजनीति में ही अपना आज का गौरव ढूंढने में गर्व महसूस करती है। दिलचस्प यह है कि बिहार की राजनीति को लेकर गर्वबोध से भरा रहने वाला समाज भी अपनी धरातली सोच में जातिवादी बोध को अलग नहीं कर पाता। फिर भी बिहार में एक वर्ग ऐसा भी है, जो बिहार के मौजूदा पिछड़ेपन से चिंतित रहता है। जिसे इस यह बात सालती है कि उसके राज्य के हर गांव की जवान आबादी का बड़ा हिस्सा दुनियाभर में दिहाड़ी मजदूर बनने को मजबूर है। इसी वर्ग की उम्मीद बनकर प्रशांत किशोर उभरे हैं। प्रशांत किशोर से आस लगाए वर्ग को बिहार की दरिद्रता, बिहारी लोगों का राज्य के बाहर मिलने वाला अपमान सालता है। इसलिए वे चाहते हैं कि प्रशांत किशोर उभरें और राज्य की जाति-धर्म वाली राजनीति को बदलें। बिहार की बदहाली को दूर करें। 


किसी भी नया काम करने वाले को समाज पहले हंसी उड़ाता है, इसके बावजूद अगर वह रूका नहीं तो उसे कुछ उपलब्धियां हासिल होने लगती हैं। इससे समाज के स्थापित प्रभु वर्ग को परेशानी होने लगती है। तो वह उन उपलब्धियों की अनदेखी करने लगता है। फिर भी व्यक्ति रूकता नहीं तो उसकी उपलब्धियों को वही समाज नोटिस लेने लगता है और आखिर में उसे सर आंखों पर बैठा लेता है। प्रशांत किशोर इस प्रक्रिया के दो चरणों को पार कर चुके हैं। अब उनकी उपलब्धियों का बिहारी राजनीतिक दल नोटिस लेने लगे हैं। हालांकि उन्हें बार-बार पांडेय बताकर जातिवादी त्रिशूल से उन्हें बेधने की राजनीतिक कोशिश भी हो रही है। दिलचस्प यह है कि उनके ब्राह्मण होने का प्रचार बार-बार आरजेडी की तरफ से हो रहा है। जिसका पूरा राजनीतिक वजूद ही मुस्लिम और यादव समीकरण पर टिका है।


प्रशांत किशोर ने दो साल तक लगातार बिहार की पदयात्रा की है। जनसुराज यात्रा के नाम से हुई इस यात्रा के जरिए उन्हें ज्यादातर उत्तरी बिहार को अपने कदमों तले नापा है। इसके जरिए उन्होंने अपना बड़ा समर्थक वर्ग तैयार किया है। जिसमें जाति और धर्म से इतर सोचने वाले युवाओं की अच्छी-खासी फौज है। तीन अक्टूबर को पटना के गांधी मैदान में इस वर्ग की उपस्थिति जहां प्रशांत किशोर से आस लगाने का आधार उपलब्ध कराती है तो बिहार के दूसरे पारंपरिक दलों के लिए चिंता का सबब भी बनती है। इसी चिंता से बिहार के पारंपरिक दल चिंतित हैं। राजनीतिक दल उस दल के उभार से ज्यादा चिंतित होते हैं, जिनसे उनके पारंपरिक आधार वोट बैंक के छीजने का खतरा ज्यादा होता है। लेकिन प्रशांत किशोर हर वर्ग के उन युवाओं के प्रेरणा केंद्र बनते दिख रहे हैं, जिनके लिए बिहार का बदलाव प्राथमिक लक्ष्य है। जिन्हें यह बदलाव जाति और धर्म की बजाय मेरिट पर होने की उम्मीद है। 


लेकिन क्या प्रशांत किशोर इस जाति-धर्म की राजनीति से सचमुच दूर हैं? बिहार की राजनीति पिछली सदी के नब्बे के दशक से कमंडल और मंडल खेमे के बीच झूलती रही है। जाति और धर्म की अनदेखी करने का दावा करने वाले प्रशांत किशोर इससे आगे दलितवाद की ओर आगे बढ़ते दिख रहे हैं। दिलचस्प यह है कि उनकी टीम में केजरीवाल की टीम जैसे पूर्व नौकरशाह और समाजसेवी की भीड़ दिखती है। जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल के सांसद रहे देवेंद्र यादव, जनता दल यू के पूर्व राज्यसभा सांसद एवं पूर्व राजनयिक पवन वर्मा, पूर्व राजनयिक मनोज भारती प्रशांत किशोर के सहयोगी हैं। देवेंद्र यादव के सितारे इन दिनों गर्दिश में हैं तो पवन वर्मा को बाद के दिनों में नीतीश ने भाव नहीं दिया।  जिस तरह केजरीवाल की राजनीति से उन लोगों ने ज्यादा उम्मीद लगाई और साथ दिया, जिन्हें पारंपरिक दल तवज्जो नहीं देते थे, कुछ वैसा ही हाल प्रशांत किशोर की नवेली पार्टी का भी दिख रहा है। ऐसे में शक की गुंजाइश बढ़ जाती है कि प्रशांत भी ताकत पाकर कहीं केजरीवाल की पार्टी के अवसरवादी और नाटकबाजी राजनीति की कॉपी ना बन जाएं।


इतिहास भी इसकी गवाही देता है। बदलाव की राजनीति को लेकर असम गणपरिषद बनी, सत्ता तक पहुंची, लेकिन वह पारंपरिक राजनीति की ही धार में समा गई। केजरीवाल की पार्टी को सब देख ही रहे हैं। इसलिए प्रशांत किशोर को लेकर शक होना स्वाभाविक है।


लोहिया और जयप्रकाश मानते थे कि सत्ता में दलों का बदलने की बजाय जरूरी है कि तंत्र में बदलाव लाना। फिलहाल प्रशांत किशोर तंत्र यानी व्यवस्था में ही बदलाव का दावा कर रहे हैं। इसी वजह से उनके प्रशंसकों की संख्या बढ़ी है। लेकिन वे ऐसा तभी कर पाएंगे, जब उन्हें बिहार की जनता 2025 के विधानसभा चुनावों में उन्हें मजबूत समर्थन देगी। प्रशांत किशोर तंत्र तभी बदल पाएंगे, जब उनके पास पारंपरिक राजनेता नहीं होंगे, बल्कि राजनीति का सुचिंतन वाला नया खून उनके पास होगा। फिलहाल निर्णायक भूमिकाओं में जो दिख रहे हैं, वे पूर्व नौकरशाह हैं। नौकरशाहों को लेकर यह मानने में हर्ज नहीं है कि वे आम नेताओं की तरह जनता की परवाह ज्यादा करेंगे। सवाल यह है कि प्रशांत किशोर इस नजरिए से सोच भी रहे हैं या नहीं?


- उमेश चतुर्वेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं

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