By स्वदेश कुमार | Oct 16, 2021
उत्तर प्रदेश में मोदी का हिन्दुत्व टुकड़ों में बंटता जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव जीतने के लिए तब के बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस वृहद हिन्दुत्व को एकाकार किया था, उसने विपक्ष के पैर उखाड़ दिये थे। इसी हिन्दुत्व के बल पर मोदी ने दो बार (2014-2019) दिल्ली की और 2017 में यूपी की सत्ता हासिल की थी, लेकिन अब मोदी का हिन्दुत्व यूपी बीजेपी के लिए अप्रसांगिक हो गया है। यूपी में अब हिन्दुत्व की बात नहीं होती, बल्कि यहां टुकड़ों में हिन्दुत्व को समेटने का प्रयास किया जाता है। इसीलिए जब योगी सरकार को लगता है कि ब्राह्मण वोटर उससे नाराज है तो वह अन्य दलों के ब्राह्मण नेताओं से गलबहियां कर लेती है। ब्राह्मणों का सम्मेलन कराकर उन पर डोरे डालने लगती है। इसी तरह से जब उसे पिछड़ा समाज के मतदाताओं की नाराजगी का पता चलता है तो वह पिछड़े समाज का सम्मेलन कराने के साथ-साथ पिछड़ा समाज के लम्बरदार बने नेताओं के छोटे-छोटे दलों से गठबंधन कर लेती है। बीजेपी ऐसा ही रवैया दलितों, क्षत्रियों आदि वर्ग के वोटरों को मनाने के लिए अख्तियार करती है। इसी कड़ी में अब बीजेपी की नजर वैश्य वोटरों पर टिक गई है, जिनके बारे में यह सुनने को मिल रहा था कि वैश्य समाज योगी सरकार से खुश नहीं है।
यह नाराजगी वैश्य समाज के बड़े नेता और योगी सरकार में मंत्री राजेश अग्रवाल को योगी कैबिनेट से बाहर किए जाने के बाद और भी बढ़ गई थी। इसके बाद गोरखपुर के होटल में पुलिस की पिटाई से प्रॉपर्टी डीलर मनीष गुप्ता की मौत ने वैश्य समाज की नाराजगी और भी बढ़ा दी। वैश्य समाज ने गुस्से में आकर योगी सरकार, पुलिस प्रशासन के विरुद्ध निंदा प्रस्ताव तक पारित कर दिया। वैश्य एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव सुधीर गुप्ता ने कहा कि मनीष की हत्या में जो भी पुलिसकर्मी लिप्त हैं उन पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। मामले में जब सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने हस्तक्षेप किया तब योगी सरकार जागी और कार्रवाई हुई। यूपी में वैश्य आबादी दस प्रतिशत के करीब है। इसमें ज्यादातर व्यापारी वर्ग आता है। व्यापारियों के लिए कानून व्यवस्था हमेशा ही बड़ा मुद्दा रहता है। क्योंकि यह लोग आसानी से लूटपाट करने वालों का शिकार बन जाते हैं। इनके ही साथ अपराध की सबसे अधिक घटनाएं होती हैं।
वैश्य समाज बीजेपी से सवाल पूछ रहा है कि 25 करोड़ की आबादी वाले देश के सबसे बड़े राज्य से एक भी वैश्य समुदाय का व्यक्ति केन्द्र सरकार में मंत्री क्यों नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार में वर्तमान में एक मात्र वैश्य नेता को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है और वो भी महत्वहीन विभाग का ? उत्तर प्रदेश की शीर्ष ब्यूरोक्रेसी के तीन अहम पदों मुख्य सचिव, डीजीपी और अपर मुख्य सचिव गृह के पद पर सत्तारुढ़ भाजपा के सवा चार साल के कार्यकाल में एक भी वैश्य अफसर को जगह नहीं दी गयी? क्या सिर्फ वैश्य समाज का इस्तेमाल भाजपा करेगी? क्या वैश्य समाज का काम सिर्फ भाजपा की बैठकों के लिए दरी और चादर बिछाना है? क्या वैश्य समाज का काम सिर्फ भाजपा नेताओं के लिए बैठक, भोजन और विश्राम की व्यवस्था करनी है? वैश्य समाज का काम सिर्फ भाजपा के लिए चुनावी फंड का इंतजाम करना है? य़े ऐसे ज्वलंत सवाल हैं जिनका जवाब वैश्य समाज का युवा भाजपा के दिग्गज नेताओं से जानना चाहता है।
ज्ञातव्य हो कि कभी वैश्य समाज का बीजेपी (जनसंघ) में दबदबा रहता था। जनसंघ काल से हमेशा वैश्यों ने पार्टी का साथ दिया। अकेले यूपी में चन्द्रभानु गुप्ता, बाबू बनारसी दास और राम प्रकाश गुप्ता जैसे दिग्गज वैश्य नेता मुख्यमंत्री बने। जब पहली बार राज्य में कल्याण सिंह की सरकार 1991 में बनी तो वैश्य समाज से 5 कैबिनेट मंत्री बनाये गये। यही हाल दोबारा सत्ता में आयी भाजपा का 1997-2002 के बीच रहा लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि 2017 में भाजपा की जीत के आधार स्तंभ रहे वैश्यों को दरकिनार कर दिया गया? चुनिंदा नेताओं को जगह तो मिली लेकिन विभाग महत्वहीन। यह बात वैश्य समाज में अंदर तक घर कर गई है।
बहरहाल, योगी सरकार से वैश्य समाज की नाराजगी का अहसास होते ही सरकार ने अब वैश्य वोटरों को लुभाने के लिए भी गोटे बिछाना शुरू कर दिया है। केंद्रीय और उत्तर प्रदेश के मंत्रिमंडल विस्तार में किनारे रहे इस समाज को सम्मान का संदेश देने के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के विधायक नितिन अग्रवाल को विधानसभा उपाध्यक्ष बनाने का फैसला भी डैमेज कंट्रोल का एक दांव माना जा रहा है। वैश्य वोटर करीब 120 विधानसभा सीटों पर निर्यायक भूमिका में रहते हैं। इसीलिए योगी सरकार समय रहते वैश्य समाज से नाराजगी दूर कर लेना चाहती है।
इसी क्रम में पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से विधायक चुनकर भारतीय जनता पार्टी के पाले में आए नितिन अग्रवाल को विधानसभा उपाध्यक्ष बनाने की तैयारी है। यह तब हो रहा है जबकि चुनाव के चार-पांच माह ही बाकी बचे हैं। वैसे जानकारों का कहना है कि नितिन को विधानसभा उपाध्यक्ष बनाने का फैसला अचानक नहीं लिया गया है। इसकी सुगबुगाहट तभी सुनाई देने लगी थी, जब विधान सभा अध्यक्ष हृदय नारायण दिक्षित ने समाजवादी पार्टी की उस याचिका को खारिज कर दिया था, जिसमें उसने नितिन की विधानसभा सदस्यता खत्म करने की सिफारिश की थी। पार्टी का तर्क है कि नितिन अग्रवाल के पिता पूर्व सांसद नरेश अग्रवाल से तब किए गए वादे को पूरा किया जा रहा है, जबकि माना यह भी जा रहा है कि मनीष हत्याकांड से वैश्य समाज की नाराजगी को देखते हुए यह कुर्सी नितिन को सौंपी जा रही है। चर्चा यह भी है कि सत्ताधारी दल वैश्य समाज के कुछ बड़े नेताओं को पार्टी में शामिल करा सकता है। साथ ही विधानसभा चुनाव में इस वर्ग को टिकट भी पहले की तुलना में कुछ अधिक दिए जा सकते हैं।
उधर, वैश्य समाज की नाराजगी भांपने के लिए बीजेपी 14 नवंबर को वैश्यों का बड़ा समागम इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में करा रही है। इसके आयोजक खुद नितिन अग्रवाल होंगे, जोकि व्यापार संगठन के प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। मुख्य अतिथि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, केंद्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री पीयूष गोयल, जबकि मुख्य वक्ता व्यापार संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष व पूर्व सांसद नरेश अग्रवाल और भाजपा के प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल होंगे।
- स्वदेश कुमार
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं