चुनाव जीतने के लिए भाजपा धड़ाधड़ जो भी फैसले ले रही है वह सब उल्टे पड़ जा रहे हैं
यह और बात है कि समय के साथ योगी के फैसलों पर अब ज्यादा उंगलियां उठने लगी हैं, जिस तरह से योगी सरकार ने लखीमपुर की घटना को हैंडिल किया उससे भी पार्टी के भीतर कुछ नेताओं के बीच नाराजगी नजर आ रही है।
उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी और योगी सरकार के बीच क्या सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा है। जानकार समझ नहीं पा रहे हैं कि क्यों संगठन और सरकार के हुक्मरानों द्वारा ऐसे फैसले लिए जा रहे हैं जिसमें सरकार और पार्टी के उद्धार की जगह आपसी वैमस्य नजर आता हो। इसीलिए तो लोग सवाल पूछ रहे हैं कि उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के सामने ऐसी कौन मजबूरी आ गई थी, जो उसे पिछड़े समाज के वोटरों की नाराजगी को दूर करने के लिए एक दलित नेत्री और पूर्व सांसद प्रियंका रावत का सहारा लेना पड़ रहा है, जबकि बीजेपी के पास उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्या जैसे कद्दावर पिछड़ा समाज का नेता मौजूद हैं। केशव प्रसाद को कोई कैसे भूल सकता है जब उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व अक्टूबर 2018 में प्रदेश भर में पिछड़ा वर्ग समाज सम्मेलन कराकर बीजेपी के पक्ष में महौल बनाया था। तब पिछड़ा वर्ग के वोटरों ने दिल खोलकर बीजेपी के पक्ष में मतदान किया था। केशव प्रसाद मौर्या की तरह ही पूर्व बसपाई और अब योगी सरकार में मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्या को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है।
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स्वामी प्रसाद मौर्या को बीजेपी में इंट्री ही इसलिये मिली थी क्योंकि उनकी पिछड़ा वर्ग समाज में काफी अच्छी और मजबूत पकड़ थी। बीजेपी चाहती तो केशव प्रसाद मौर्या के साथ स्वामी प्रसाद मौर्या का भी इस्तेमाल पिछड़ों को मनाने के लिए कर सकती थी, लेकिन न जाने क्यों बीजेपी आलाकमान ने पिछड़ों को मनाने की जिम्मेदारी किसी पिछड़ा समाज के नेता की जगह अपनी दलित नेत्री और बाराबंकी की पूर्व सांसद प्रियंका रावत के कंधों पर डालना ज्यादा उचित समझा। बीजेपी ने प्रियंका रावत के कंधों पर पिछड़ा वर्ग सम्मेलन कराने की जिम्मेदारी डाली है। यहीं से पिछड़ा समाज की नाराजगी बीजेपी से कम होने की बजाए बढ़ने लगी है, जिस तरह से प्रियंका रावत ने पिछड़ों को मनाने के लिए सम्मेलन आयोजित किए हैं, उसमें कई खोट नजर आ रह हैं। ऐसा लगता है प्रियंका रावत ने पिछड़ा वर्ग समाज का आंदोलन करने से पूर्व पिछड़ा समाज के बारे में कोई अध्ययन ही नहीं किया। अगर ऐसा न होता तो प्रियंका रावत पिछड़ा समाज की 79 जातियों में से सिर्फ 17 जातियों का ‘पिछड़ा वर्ग सम्मेलन’ नहीं करातीं। इतना ही नहीं जिन 17 पिछड़ी जातियों को प्राथमिकता दी गई है, उसमें से कई जातियों का तो वजूद ही बहुत सीमित है, जबकि तमाम ऐसी जातियों को छोड़ दिया गया है जिनकी अच्छी खासी आबादी है।
सबसे पहले यह जान लेना जरूरी है कि प्रियंका रावत हैं कौन और इनकी संगठन में क्या हैसियत है। अगस्त 2021 से पूर्व प्रियंका की पार्टी में कोई खास पहचान नहीं थी, लेकिन जब उत्तर प्रदेश भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह ने 22 अगस्त को अपनी बहुप्रतीक्षित टीम घोषित की तो इसमें सबसे चौंकाने वाला नाम प्रियंका सिंह रावत का ही था। बाराबंकी की 35 वर्षीया पूर्व सांसद प्रियंका ने यूपी भाजपा की प्रदेश कार्यकारिणी में धमाकेदार एंट्री मारते हुए सीधे प्रदेश महामंत्री के रूप में जगह बना ली थी, जबकि पार्टी के कई पुराने वफादार नेता महामंत्री बनने के लिए आलाकमान का मुंह ही देखते रह गए, जो कई सालों से पार्टी के लिए पसीना बहा रहे थे। प्रियंका को यह पद तब मिला था, जबकि करीब सवा दो साल पहले वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बाराबंकी (सुरक्षित) संसदीय क्षेत्र से प्रियंका को उनकी विवादित छवि के कारण टिकट नहीं मिल पाया था, जबकि प्रियंका 2014 के लोकसभा चुनाव में इसी सीट से जीती थीं। टिकट कटने से आहत रावत ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से टिकट पर पुनर्विचार करने की मांग की थी। इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कह दिया था कि भाजपा ने जब आडवाणी, जोशी और सुमित्रा महाजन जैसी हस्तियों के टिकट काट दिए तो मैं तो एक दलित महिला हूं। ऐसे में सवाल यही है कि क्यों प्रियंका अचानक से बीजेपी की आंख का तारा बन गई हैं तो कुछ लोग इसके पीछे की वजह उनके इनकम टैक्ट आफिसर पति को मान रहे हैं जिनकी दिल्ली में पोस्टिंग है और उनके बीजेपी के कई बड़े नेताओं से निकट के संबंध हैं।
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प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने अपनी कार्यकारिणी में आठ दलित नेताओं को जगह दी है जिसमें पासी जाति से संबंध रखने वाली प्रियंका सबसे युवा थीं। यह तब हुआ जबकि 219 में लोकसभा का टिकट कटने से नाराज भाजपा की सांसद प्रियंका रावत ने बगावती सुर अख्तियार कर रखे थे। प्रियंका का अपना कोई खास जनाधार भी नहीं है। हाँ, विवादों से उनका गहरा नाता है। एक बार प्रियंका रावत को दिल्ली एयरपोर्ट पर जांच के दौरान पर्स में रखी छुरी के साथ पकड़ा गया था। इस पर अपनी गलती मानने की बजाए प्रियंका रावत एयरपोर्ट के स्टाफ को ही धमकाने लगी थीं। इसी प्रकार दिसंबर 2017 में सांसद प्रियंका सिंह रावत की वीडियो एक प्रशिक्षु आईएएस अधिकारी को कथित रूप से धमकाते हुए कैमरे में कैद हुई थी। इस घटना का फुटेज इलेक्ट्रानिक मीडिया एवं सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था। घटना सफदरगंज थानाक्षेत्र के चौला गांव में सरकारी जमीन पर राजस्व टीम द्वारा अतिक्रमण हटाए जाने को लेकर गांव वालों से हुए विवाद से जुड़ी थी। तब भाजपा के वरिष्ठ नेता पूर्व विधायक सुंदरलाल दीक्षित ने सांसद प्रियंका रावत की शिकायत राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से की थी। सात बिंदुओं पर की गई शिकायत में आईएएस एसडीएम सिरौलीगौसपुर अजय कुमार द्विवेदी को धमकी दिए जाने का प्रकरण भी शामिल था।
वहीं एक बार सांसद रहते प्रियंका रावत पर एक पुलिस अधिकारी की खाल उतरवाने की धमकी देने का भी आरोप लगा था। उन्होंने न केवल पुलिस अधिकारी को यह धमकी दी बल्कि उसके बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी यह धमकी दोहराई जो कि कैमरे में कैद हो गई। तब की सांसद ने मीडिया से बात करते हुए कहा था कि इनको (पुलिस अधिकारी) जितनी मलाई काटनी थी काट ली इन्होंने। यह बीजेपी की सरकार है, मलाई तो क्या इनकी खाल उतार ली जाएगी अगर काम नहीं करेंगे तो। कुल मिलाकर प्रियंका रावत का विवादों से गहरा नाता रहा है। यह विवाद उनके पिछड़ा वर्ग समाज सम्मेलन के आयोजन के तौर-तरीकों में भी दिखाई दे रहा है। जब बीजेपी आलाकमान और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक-एक वोट के लिए रणनीति बना रहे हैं, तब न जानें क्यों प्रियंका रावत ने पिछड़ा वर्ग सम्मेलन को मात्र 17 जातियों के बीच ही समेट दिया है, जबकि 62 और पिछड़ा समाज की जातियां भी बीजेपी से मिलकर अपनी कुछ गलतफहमियां दूर करने चाहती हैं। यह वह जातियां हैं जो बीजेपी की मजबूत वोट बैंक मानी जाती हैं। यदि बीजेपी सभी पिछड़ी जातियों को अपने बैनर तले एकजुट करने की कोशिश नहीं करती है तो यह वोट बैंक छिटक कर सपा की झोली में जा सकता है।
बहरहाल, समय रहते पार्टी आलाकमान और योगी सरकार नहीं चेती तो उसे इसका खामियाजा विधानसभा चुनाव में भुगतना पड़ सकता है। वैसे भी ऐसे ही विवादित फैसलों के चलते योगी सरकार और संगठन की साख पर बट्टा तो लग ही रहा है। समाज के कई वर्गों के वोटरों के बीच भी मैसेज सही नहीं जा रहा है। पहले गुजरात के पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा को जिस तरह से अपमानित किया गया था, अब वैसे ही केशव प्रसाद मौर्या आहत नजर आ रहे हैं। केशव के लिए यह स्थिति काफी परेशान करने वाली होगी कि उनके रहते पिछड़ों को मनाने की जिम्मेदारी किसी दलित नेता की कंधों पर डाली जाए। इसका क्या रिएक्षेन होगा, यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा, परंतु इस तरह के फैसलों से सीएम योगी आदित्यनाथ की साख पर भी चोट तो पहुंच ही रही है। वैसे भी योगी-केशव प्रसाद मौर्या के बीच संबंध कभी अच्छे नजर नहीं आते हैं।
2017 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने केशव प्रसाद मौर्या को जनता के सामने ऐसे पेश किया था, जैसे यदि बीजेपी की सरकार बनेगी तो केशव ही सीएम होंगे, लेकिन जब नतीजे आए तो अचानक योगी का पर्दापण हुआ और वह सीएम बन गए। केशव खून का घूँट पीकर डिप्टी सीएम बनकर ही रह गए। इसी के चलते योगी और केशव के रिश्ते कभी मधुर नहीं रह पाए। इस बात का अहसास तब एक बार फिर हुआ जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या के पिता जी की कौशाम्बी में हुई मौत के समय केशव के घर जाकर सांत्वना देना उचित नहीं समझा। इस पर काफी विवाद हुआ। बीजेपी आलाकमान को भी इस बात की जानकारी हुई तो वह डैमेज कंट्रोल के लिए आगे आई। 21 जून 2021 को योगी को केशव प्रसाद के यहां जाना ही पड़ा। साढ़े चार साल में यह पहला मौका है जब मुख्यमंत्री डिप्टी सीएम के घर गए थे, जबकि दोनों के आवास में सिर्फ 100 मीटर की ही दूरी है। मुख्यमंत्री लंच के लिए गए थे। इस मौके पर उनके साथ आरएसएस के सह सर कार्यवाह कृष्णगोपाल, महामंत्री संगठन बीएल संतोष सहित कोर कमेटी के सदस्य मौजूद थे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के केशव मौर्या के घर पर लंच के सियासी मतलब निकाले गए और यह माना गया कि बीजेपी इस मुलाकात से अपने कार्यकर्ताओं और वोटरों को संदेश देना चाह रही थी कि पार्टी में सब कुछ ठीकठाक चल रहा है।
यह और बात है कि समय के साथ योगी के फैसलों पर अब ज्यादा उंगलियां उठने लगी हैं, जिस तरह से योगी सरकार ने लखीमपुर की घटना को हैंडिल किया उससे भी पार्टी के भीतर कुछ नेताओं के बीच नाराजगी नजर आ रही है। पार्टी के एक सीनियर लीडर का कहना था कि राजनीति अवधारणा पर चलती है। हमेशा सही-गलत के आधार पर फैसला नहीं लिया जाता है, जब जनता के बीच यह धारणा आम हो रही थी कि लखीमपुर कांड में केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा के पुत्र की भूमिका संदिग्ध नजर आ रही है तो उसे गिरफ्तार करने में इतनी देरी क्यों की गई जिससे विपक्ष को सरकार के खिलाफ हमलावर होने का मौका मिल गया। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव का बयान यहां गौर करने वाला है। देव ने सीधे तौर पर तो कुछ नहीं कहा है, लेकिन उन्होंने यह कहकर काफी कुछ संकेत दे दिया कि किसी नेता को अपनी छवि ऐसी नहीं बनाना चाहिए जिससे जनता उनसे डरे। स्वतंत्र देव का इशारा लखीमपुर खीरी कांड की ओर ही था।
बात इससे आगे बढ़कर की जाए तो यह कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में जब से योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हुए हैं तब से लेकर आज तक यूपी के सांसदों-विधायकों एवं अन्य जनप्रतिनिधिओं का एक ही रोना रहा है कि योगी सरकार में जनप्रतिनिधियों को कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है। योगी को अपने नेताओं से अधिक भरोसा ब्यूरोक्रेसी पर है। योगी ने ‘टीम 11’ बना रखी है। यही टीम 11 हर बड़ा फैसला लेती हैं। यह ‘टीम-11’ और कोई नहीं 11 सीनियर आईएएस अधिकारी हैं। इनकी सलाह पर ही योगी महत्वपूर्ण फैसले लेते हैं, इसी के चलते बीजेपी के नेता और जनप्रतिनिधि करीब पांच सालों तक मूलदर्शक बने रहने को मजबूर रहे। इन नेताओं की न जिलाधिकारी कार्यालय में सुनवाई होती थी, न थाने-चौकी पर कोई इनकी सुनता था। क्षेत्र में कौन से विकास कार्य कैसे चलने और पूरे किये जाएंगे, यह भी अधिकारी ही तय करते हैं, जिसके चलते उक्त नेताओं और जनप्रतिनिधियों को जनता के कोपभाजन का भी शिकार बनना पड़ता है। अपनी व्यथा कई बार यह सांसद-विधायक और सभासद आलाकमान तक पहुंचा चुके हैं, लेकिन कहीं कोई पत्ता नहीं खड़का।
ऐसा ही कुछ बीजेपी के 17 अक्टूबर से प्रस्तावित पिछड़ा वर्ग सम्मेलन में देखने को मिल रहा है, जिसकी जिम्मेदारी न जाने क्या सोच कर दलित नेत्री प्रियंका रावत के कंधों पर डाली गई है। सवाल यह भी उठ रहा है कि यदि प्रियंका रावत के ऊपर जिम्मेदारी डाली ही गई थी तो प्रियंका को पिछड़ा समाज के बारे में थोड़ा अध्ययन कर लेना चाहिए था। यदि वह उत्तर प्रदेश राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग से ही जानकारी जुटा लेतीं तो काफी हद तक फजीहत से बच जातीं। उम्मीद है बीजेपी आलाकमान समय रहते अपनी गलती में सुधार कर लेगा, वर्ना पिछड़ा वर्ग समाज की नाराजगी बढ़ती ही जाएगी।
स्वदेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उत्तर प्रदेश के सूचना आयुक्त रहे हैं।)
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