सामाजिक बदलाव को लेकर अंबेडकर का सपना कभी पूरा होगा?

By अभिनय आकाश | Dec 06, 2019

समय के हिसाब से सियासत बदलती है और उस सियासत के हिसाब से नायक भी बदले जाते हैं। ऐसा लगता है कि आज बाबा साहब भीमराव अंबेडकर सभी राजनीतिक पार्टियों की जरूरत बन गए हैं। उनकी पुण्य तिथि पर सभी पार्टियां सम्मान में झुकना सुखद मान रही हैं। ये इतिहास की वो रस्साकस्सी है जिसमें तमाम शख्सियतों को अपने खेमें में डालने की होड़ में सभी पार्टियां लगी हैं। चाहे वो महात्मा गांधी से लेकर पटेल हों या पटेल से लेकर अंबेडकर। देश की राजनीति में समय बदला और इसलिए सभी दलों ने अपने महापुरूषों की चुनिंदा सूची भी बदल ली है। यूं कहें कि बड़ी कर ली है। इस सूची में पिछले कुछ वर्षों से बाबा साहब भीमराव अंबेडकर सबसे प्रभावशाली नेता बनकर उभरे हैं। अब उन पर सिर्फ बसपा या मायावती या फिर कहें कि अठावले का हक नहीं है, बीजेपी का भी है और कांग्रेस का भी है और यहां तक की समाजवादी पार्टी ने भी अखिलेश सरकार के दौरान उनकी पुण्यतिथि पर छुट्टी का तोहफा देकर अंबेडकर की महत्ता साबित की है। 

 

लेकिन वो क्या करें जिन्होंने अब तक अंबेडकर के नाम पर अपना साम्राज्य बनाया। उनके लिए ये संकट की घड़ी है। बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी है। ऊपर से अंबेडकर उन्हें प्रिय लगने लगे हैं। इसलिए मायावती इसे वोट की माया बताती हैं।

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लेकिन सारी राजनीति को दरकिनार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांतो पर चलकर पीएम बनने की बात करते नजर आते हैं। पीएम ने संविधान निर्माता को श्रद्धांजलि देने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। चाहे वो बीजेपी द्वारा डॉ. अंबेडकर की पुण्यतिथि हर साल की तरह महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाये जाने का निर्णय हो या पीएम मोदी द्वरा दिल्ली में अंबेडकर स्मारक का उद्घाटन किया जाना। 21 मार्च 2016 को नींव रखे जाने के महज दो साल में इसका निर्माण पूरा कराने की प्रतिबद्धता पीएम दिखा भी चुके हैं।  

 

पहले बाबा साहेब अंबेडकर के शुरूआती जीवन को थोड़ा जान लेते हैं।

 

14 अप्रैल 1891 वर्तमान के मध्यप्रदेश की महू छावनी में भीमराव का जन्म हुआ।

 

बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड की फेलोशिप पाकर भीमराव ने 1912 में मुबई विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की। संस्कृत पढ़ने पर मनाही होने से वह फारसी लेकर उत्तीर्ण हुये।

 

बीए के बाद एमए के अध्ययन हेतु बड़ौदा नरेश सयाजी गायकवाड़ की पुनः फेलोशिप पाकर वह अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिल हुये।

 

सन 1915 में उन्होंने स्नातकोत्तर उपाधि की परीक्षा पास की। इस हेतु उन्होंने अपना शोध 'प्राचीन भारत का वाणिज्य' लिखा था। उसके बाद 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय अमेरिका से ही उन्होंने पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।

 

फेलोशिप समाप्त होने पर उन्हें भारत लौटना था अतः वे ब्रिटेन होते हुये लौट रहे थे। उन्होंने वहां लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एण्ड पोलिटिकल साइंस में एमएससी और डीएससी और विधि संस्थान में बार-एट-लॉ की उपाधि हेतु स्वयं को पंजीकृत किया और भारत लौटे।

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2 साल 11 महीने 17 दिन बाद संविधान सभा की ड्राफ्ट कमेटी के चेयरमैन के तौर पर डाक्टर भीमराव अंबेडकर जब अपना आखिरी भाषण दे रहे थे। उनकी आंखों में भारत की एकता और स्वतंत्रता को लेकर गंभीर चिंतन मंथन का दौर चल रहा था। संविधान सभा में बोलते हुए तब डा. अंबेडकर ने साफ लफ्जों में भारत के राजनीतिक दलों को देश की एकता, अखंडता के लिए आगाह किया था। आइए जानते हैं क्या थी वो चेतावनी।

 

संविधान सभा में डा. अंबेडकर ने अपने अंतिम भाषण में कहा था कि 26 जनवरी 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। लेकिन उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या उसे फिर से खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह पहला विचार है… 26 जनवरी 1950 को भारत एक प्रजातांत्रिक देश बन जाएगा। उस दिन से भारत की जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए बनी एक सरकार होगी। क्या भारत अपने प्रजातांत्रिक संविधान को बनाए रखेगा या फिर खो देगा? मेरे मन में आने वाला यह दूसरा विचार है और यह भी पहले विचार जितना चिंताजनक है।

 

दुनिया के तमाम देशों और भारत के प्राचीन राजनीतिक जीवन के अध्यनन के बाद जो सवाल डा. अंबेडकर के दिलों दिमाग में उठे। उसे उन्होंने संविधान सभा के जरिए पूरे देश के जेहन का सवाल बना दिया। डा अंबेडकर ने अपनी चिंता को साफ बताते हुए कुछ और भी सवाल उठाए और कुछ नसीहत भी दी। 

 

यह बात नहीं है कि भारत कभी एक स्वतंत्र देश नहीं था। यह तथ्य मुझे और भी व्यथित करता है कि न केवल भारत ने पहले एक बार स्वतंत्रता खोई है बल्कि अपने ही कुछ लोगों के विश्वासघात के कारण भारत बार-बार आजादी खोता रहा है। 

 

वामपंथियों ने बाबा साहब को लाल रंग में रंगा तो अल्पसंख्यकों की राजनीति वालों ने अंबेडकर को हरे रंग का चोला पहना दिया। लेकिन क्या वजह है कि अंबेडकर को जगह मिलनी चाहिए थी, वो मिली नहीं। क्या ये सब इसलिए हुआ कि अंबेडकर मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति को हमेशा खारिज करते रहे। क्या अंबेडकर को मुस्लिम तुष्टिकरण के विरोध की सजा मिली थी। डा अंबेडकर को याद करते हुए और उनसे जुड़े सवालों, चुनौतियों और दावों का एमआरआई करते हुए हमने कुछ तथ्यों को खंगाल कर कुछ जानकारी भी इकट्ठा की है। 

 

देश के मुसलमानों और भारत के बंटवारे पर डा अंबेडकर के जो विचार थे उन्हें लेकर आज भी विवाद होता रहा है। मुसलमानों को लेकर अंबेडकर का सबसे बड़ा ऐतराज ये था कि कांग्रेस हर हाल में मुसलमानों के तुष्टिकरण में लगी रहती है और उनकी हर मांग को स्वीकार करती है। लेकिन अछूत माने जाने वाले दलित वर्ग को वो अधिकार नहीं देती जो उन्हें मिलने चाहिए। पंडित नेहरू और अंबेडकर में रिश्ते अच्छे नहीं माने जाते थे। अंबेडकर ने सितंबर 1951 में कैबिनेट से इस्तीफ़ा देते हुए विस्तार से अपने इस्तीफ़े के कारण गिनाए और सरकार के अनुसूचित जातियों की उपेक्षा से नाराज़गी जाहिर करते हुए हिंदू कोड बिल के साथ सरकार का बर्ताव पर कहा था कि यह विधेयक 1947 में सदन में पेश किया गया था लेकिन बिना किसी चर्चा के जमींदोज हो गया। उनका मानना था कि यह इस देश की विधायिका का किया सबसे बड़ा सामाजिक सुधार होता। आंबेडकर ने कहा कि प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद ये बिल संसद में गिरा दिया गया। अपने भाषण के अंत में उन्होंने कहा, "अगर मुझे यह नहीं लगता कि प्रधानमंत्री के वादे और काम के बीच अंतर होना चाहिए, तो निश्चित ही ग़लती मेरी नहीं है।

 

साल 1952 में आंबेडकर उत्तर मुंबई लोकसभा सीट से लड़े। लेकिन कांग्रेस ने आंबेडकर के ही पूर्व सहयोगी एनएस काजोलकर को टिकट दिया और अंबेडकर चुनाव हार गए। कांग्रेस ने कहा कि अंबेडकर सोशल पार्टी के साथ थे इसलिए उसके पास, उनका विरोध करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। नेहरू ने दो बार निर्वाचन क्षेत्र का दौरा किया और आख़िर में अंबेडकर 15 हज़ार वोटों से चुनाव हार गए। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई, अंबेडकर को 1954 में कांग्रेस ने बंडारा लोकसभा उपचुनाव में एक बार फिर हराया।

 

अपने जीवन के आखिरी वक्त में डा अंबेडकर ने कहा था कि वो पैदा तो हिन्दू हुए हैं लेकिन उनकी मौत एक हिन्दू के तौर पर नहीं होगी। जानकार बताते हैं कि अंबेडकर की ये बात सुनने के बाद हैदराबाद के निजाम ने उनका धर्म परिवर्तन करवाने की बहुत कोशिश की थी और उन्हें करोड़ों रुपए भी आफर किए थे। ऐसा इसलिए भी हो रहा था क्योंकि दलित और शोषित वर्ग के लोग डा. अंबेडकर के बड़े समर्थक थे। लेकिन अंबेडकर ने निजाम के आफर को ठुकरा दिया। अंबेडकर का मानना था कि निजाम सहित तमाम दूसरी ताकतें उनके और उनके समर्थकों के धर्म परिवर्तन की दिशा में काम कर रही हैं। डा. अंबेडकर का मानना था कि दलित और शोषित समाज हमेशा धर्म परिवर्तन के निशाने पर रहता है। इस बात का जिक्र एरिक लुईस बेवर्ली की किताब में भी मिलता है जिसका शीर्षक है हैदराबाद ब्रिटीश इंडिया एंड द वर्ल्ड। 1947 में पाकिस्तान बनने के बाद वहां अल्पसंख्यक हिन्दुओं पर अत्याचार किए जा रहे थे। वहां अल्पसंख्यक हिन्दू दलित थे। जिन्हें पाकिस्तान से भारत नहीं आने दिया जा रहा था। तब बाबा साहब ने एक लेख लिखा था जिसमें उन्होंने पाकिस्तान में रह रहे हिन्दुओं को सलाह दी थी कि जबरन मुस्लिम बनाए जाने से बचने के लिए वे जैसे भी संभव हो भारत आ जाएं। मुसलमानों पर केवल इसलिए भरोसा न करें कि उनकी सवर्ण हिन्दुओं से नाराजगी है। ये बहुत बड़ी भूल होगी। 1946 में आई डा. अंबेडकर की किताब पाकिस्तान और द पार्टिशन इन इंडिया में उन्होंने लिखा था कि पाकिस्तान के बारे में सोचना भारत में एक केंद्रीय सरकार बनाने के मूल विचार के खिलाफ है। इसलिए हमें भारत का संविधान बनाने से पहले पाकिस्तान के मुद्दे को सुलझाना होगा। तभी हम एक सशक्त संविधान की नींव रख पाएंगे। उसी में उन्होंने लिखा है कि मुस्लिम समुदाय भारत में एक केंद्रीय सरकार नहीं चाहता है। इसके पीछे उनके अपने तर्क हैं और उनके तर्कों को देखकर लगता है कि एक केंद्रीय सरकार बनाना भारत के मुसलमानों की आंखो का कांटा है। मैं मुस्लिम भारत और गैर मुस्लिम भारत का विभाजन बेहतर समझता हूं। क्योंकि ये दोनों को सुरक्षा प्रदान करने का बेहतर तरीका है।

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गांधी और आंबेडकर के संबंधों पर भी अक्सर कई चर्चाएं होती रही हैं। इसलिए हम कुछ तथ्यों को खंगाल कर एक पुरानी रिपोर्ट के कुछ बिंदु आपके सामने रख रहे हैं। साल 1955 में डॉक्टर आंबेडकर ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में महात्मा गांधी के साथ अपने संबंधों और मतभेदों पर लंबी बात की थी। उसके कुछ अंशों का जिक्र हम आपके सामने कर रहे हैं। 

 

बाबा साहब ने गांधी जी से मुलाकात का जिक्र करते हुए कहा कि गांधी जेल में थे। यही वो वक़्त था जब मैंने गांधी से मुलाक़ात की। लेकिन मैं हमेशा कहता रहा हूं कि तब मैं एक प्रतिद्वंद्वी की हैसियत से गांधी से मिला। मुझे लगता है कि मैं उन्हें अन्य लोगों की तुलना में बेहतर जानता हूं, क्योंकि उन्होंने मेरे सामने अपनी असलियत उजागर कर दी।

 

आमतौर पर भक्तों के रूप में उनके पास जाने पर कुछ नहीं दिखता, सिवाय बाहरी आवरण के, जो उन्होंने महात्मा के रूप में ओढ़ रखा था। लेकिन मैंने उन्हें एक इंसान की हैसियत से देखा, उनके अंदर के नंगे आदमी को देखा, लिहाज़ा मैं कह सकता हूं कि जो लोग उनसे जुड़े थे, मैं उनके मुक़ाबले बेहतर समझता हूं।

 

गांधी जी हर समय दोहरी भूमिका निभाते थे. उन्होंने युवा भारत के सामने दो अख़बार निकाले. पहला 'हरिजन' अंग्रेज़ी में, और गुजरात में उन्होंने एक और अख़बार निकाला जिसे आप 'दीनबंधु' या इसी प्रकार का कुछ कहते हैं। यदि आप इन दोनों अख़बारों को पढ़ते हैं तो आप पाएंगे कि गांधी ने किस प्रकार लोगों को धोखा दिया।

 

- अभिनय आकाश

 

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