वानरों को अपनी मृत्यु निश्चित प्रतीत हो रही थी। लेकिन ऐसे में भी उन्होंने श्रीराम जी के प्रति अपनी भावना आहत नहीं होने दी। लेनिक आश्चर्य था, कि उन्होंने जब तक वानर की देह धारण की हुई थी, तब तक उन्हें कोई नहीं मार रहा था। लेकिन श्रीराम जी के प्रति प्रेमवश हो, जैसे ही वे अपने वास्तविक रूप में आये, उन्हें दण्डि़त होना पड़ गया। परिस्थिति यहाँ तक दयनीय हो गई, कि उन्हें मृत्यु अपने समक्ष मूर्तिमान होते दिख रही थी। लेकिन सज्जनों, श्रीराम जी की यही तो महिमा है। वे अपने भक्तों की हर हाल में रक्षा करते हैं। फिर भले ही वह रावण की दुष्ट सभा हो, अथवा स्वयं प्रभु का ही दरबार हो। रावण की सभा में श्रीहनुमान जी की जान पर बनी, जो प्रभु ने श्रीविभीषण जी को रक्षक बना खड़ा कर दिया। और माता सीता जी के प्राण पर बनी, तो प्रभु ने स्वयं मंदोदरी को ही ढाल बना दिया। आज जब प्रभु के स्वयं के ही दरबार में, उनके प्रेमीयों पर आन बनी, तो देखिए, प्रभु ने स्वयं की आभा को ही सामने ला खड़ा किया। जी हाँ! राक्षसों ने प्रभु की प्रेरणा से बात ही ऐसी कह डाली, कि वानरों से अब एक भी कदम आगे न बढ़ा गया। राक्षसों ने ऊँचे स्वर में कहा-
‘जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना।।’
राक्षसों ने वानरों के मानों हाथ ही बाँध दिये। उन्होंने कहा, कि जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे भगवान कोसलाधीस जी की सौगंध है। श्रीलक्षमण जी ने जब यह सब देखा, तो उन्हें बड़ी दया लगी। उन्होंने उसी क्षण सबको अपने पास बुलाया, और राक्षसों को भयमुक्त कराया। साथ में यह भी कहा, कि आप निश्चिंत होकर लंका नगरी वापिस जा सकते हो। लेनिक इसमें भी आपको प्रभु का एक कार्य करना होगा। कार्य यह, कि रावण तक आपको मेरा यह पत्र पहुँचाना होगा। और रावण को यह कहना, कि हे कुलघातक रावण, श्रीलक्षमण जी ने विशेष तौर पर आपके लिए यह कहा है, कि आप श्रीसीता जी को वापिस लौटाकर, प्रभु श्रीराम जी को समर्पित भाव से मिलो। अगर ऐसा नहीं किया, तो समझो कि तुम्हारा काल तुम्हारे निकट है। श्रीलक्षमण जी का यह आदेश हृदय में धारण कर, वे राक्षस गण उसी क्षण श्रीराम जी के गुणों का बखान करते हुए, लंका की ओर बढ़े।
यहाँ से कूच करते हुए, वे इतने प्रसन्न थे, कि वे स्वयं को धन्य-धन्य मान रहे थे। कारण स्पष्ट था। कि जब वे सागर इस पार आये थे। तो वे रावण के दूत बन कर आये थे। लेकिन जब वे लंका नगरी की और प्रस्थान कर रहे हैं, तो वे श्रीराम जी के दूत हैं। सही मायनों में यही श्रीराम जी की विजय गाथा का प्रमाण है। अपने शत्रु के सगों व उसके प्रत्येक शुभचिंतकों को भी, जो अपने वश में करले, वही वास्तविक योद्धा व रणनीतिकार है। प्रभु अपनी इस लीला से यही संदेश देना चाहते हैं, कि शत्रु को समाप्त करना हो, तो यह आवश्यक नहीं, कि आप उसे प्राणों से हीन कर दो। अपितु अपने प्रेम के पाश में बाँध कर भी, आप अपने शत्रु को समाप्त कर सकते हो। इसमें केवल आपका शत्रु ही समाप्त नहीं होगा, अपितु साथ में आपका एक शुभचिंतक व मित्र भी बढ़ेगा।
खैर! रावण दूत अब लंका में रावण के समक्ष पहुँच चुके थे। जिन्हें देख रावण बहुत ही उतावला-सा हो रहा था। अपने दूतों को अपने समक्ष पा रावण उनसे हँसता हुआ पूछता है-
‘बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता।।
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मुत्यु आई अति नेरी।।’
रावण बोला, कि हे शुक! तू अपनी कुशल क्यों नहीं कहता। शुक ने भला क्या कहना था। कारण कि अमृत सरोवर से निकल कर, कोई पुनः कीचड़ में आकर खड़ा हो जाये, तो उसे भला आप क्या कुशल पूछेंगे? शुक इससे पहले कि कुछ प्रतिऊत्तर में कहता, रावण पहले ही बोल उठा, कि अरे उस विभीषण का समाचार तो सुनाओ। जिसकी मुत्यु उसके निकट आन पहुँची है। मूर्ख अब व्यर्थ ही आटे में घुन की भाँति पिसेगा। फिर उन भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है। यह तो बीच में वह कोमल चित वाला सागर आ गया, नहीं तो अब तक मेरे वीर राक्षस, उन्हें कब का मार कर खा जाते। इनके बाद उन तपस्वियों की बात कह, जिनके हृदय में मेरा बड़ा भारी भय है-
‘करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी।।
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई।।
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा।।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदय त्रस अति मोरी।।’
शुक रावण क प्रश्नों का क्या ऊत्तर देता है? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती