Gyan Ganga: भगवान पर आरोपों की बरसात क्यों कर रहे थे नारद मुनि

By सुखी भारती | Aug 25, 2022

देवऋर्षि नारद जी की मनःस्थिति बड़ी व्याकुल-सी हो गई है। कारण कि राजकुमारी उनकी ओर आती-आती, अचानक से किसी अन्य पंक्ति की ओर मुड़ गईं। यह कुछ ऐसे हुआ था, मानों थाली में लड्डु सजा पड़ा है। जो कि आपको बड़े ही कठिन प्रयास से प्राप्त होने जा रहा है। आप उसे ग्रहण भी करने वाले हैं। लेकिन तभी आपके सामने से वह लड्डु कोई पक्षी उठा कर ले जाता है। तो सोचिए आपकी क्या मनःस्थिति होगी। आप व्याकुल न होंगे, तो और क्या होंगे। मुनि के साथ भी बस यही हो रहा है। मुनि उचक-उचक कर देख रहे हैं। मन तो हो रहा है, कि वे राजकुमारी को ऊँचे स्वर में पुकार कर कहें, कि हे विश्वमोहिनी! यह तुम्हें क्या हो गया है? देखो मैं तो यहाँ बैठा हूँ। अपने स्वामी को छोड़ कर तुम कहाँ भ्रमित हो, किसको ढूंढ़ रही हो। लगता है तुम पर किसी ने अपनी माया का प्रभाव डाल दिया है। तुम चिंता मत करो। मैं समस्त माया जंजाल को काटने का सामर्थ्य रखता हूँ। तुम मेरी और तनिक पलटो तो सही।


मुनि को लगा कि राजकुमारी मेरी तरफ अवश्य पलटेगी। पर ऐसा न हुआ। वे तो एक पंक्ति से दूसरी पंक्ति में घूम-घूम कर, पता नहीं किसे ढूंढ़ रही थी। लेकिन मुनि को कहाँ विश्राम था। वे तो बस अपने आसन के चारों ओर अपनी दृष्टि घुमा रहे थे-

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‘जेहि दिसि बैठे नारद पफ़ूली।

सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली।।

पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं।

देखि दसा हर गन मुसुकाहीं।।’


यह घटनाक्रम चल ही रहा था, कि इतने में श्रीहरि भी मानव देह धारण कर, राजा के रूप में एक आसन पर आन बिराजे। काँच के टुकड़ों में अगर एक मणि लाकर रख दी जाये, तो अपनी चमक से वह स्वतः अपनी श्रेष्ठता बता देगी। ऐसे ही श्रीहरि भी सबके आकर्षण का केन्द्र बन गए। राजकुमारी भी राजहंसिनी की चाल चलते-चलते, भगवान विष्णु जी के समक्ष जा खड़ी हुई। वे श्रीहरि जी के दिव्य तेज में स्वयं को न्योछावर किए जा रही थी। उनके हाथों में पकड़ी जयमाला, स्वयं ही श्रीहरि जी के गले में डलने को व्याकुल हो रही थी। समय भी मानो उस पावन घड़ी का साक्षी बनने की हठ कर रहा था। बस फिर क्या था। जब इतने शगुन एक साथ घट रहे थे, तो अब विलम्ब काहे का। राजकुमारी ने झट से जयमाला श्रीहरि जी के गले में डाल दी। यह देख कर मुनि तो ठगे से रह गए। उन्हें लगा कि मानों गाँठ से मणि छिटक कर, कहीं दूर गिर गई हो। शिवजी के गण तो स्वभाव से ही चंचल थे। उन्हें मुनि की मनःस्थिति से कोई सहानुभूति अथवा सरोकार थोड़ी न था। शिवगणों ने अब वह कहा, जो उनको बहुत पहले कहना चाहिए था। वे बोले, कि बाकी सब तो ठीक है, लेकिन पहले जाकर जल में अपना चेहरा तो देख लो। मुनि को लगा, कि अवश्य ही कुछ तो अशुभ घटा है। मुनि ने जैसे ही अपना मुख जल दर्पण में देखा, तो स्वयं को वानर पाया। यह देख वे क्रोध से भर उठे। उन्होंने सोचा कि इतने समय से यह दोनों शिवगण मेरे आस-पास थे। मेरी मुखाकृति से दोनों गण परिचित भी थे। लेनिक तब भी इन्होंने मुझे वास्तविक सत्य से अवगत नहीं कराया। यह तो साक्षात राक्षस प्रवृति है। इसलिए जाओ, मैं तुम्हें शाप देता हूँ, कि तुम दोनों राक्षस हो जाओ। और एक मुनि के उपहास का फल भोगो-

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‘होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।

हँसहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसहु मुनि कोउ।।’


शिवगणों को शाप देने के बाद भी मुनि के मन में ठहराव नहीं हो पा रहा था। उन्होंने फिर से जल में अपना मुख देखा, तो वे अपने मुनि रूप में पुनः लौट चुके थे। भगवान विष्णु जी के प्रति भी मुनि के मन में आक्रोश था। श्रीहरि के प्रति, अब उनका हृदय फट चुका था। श्रद्धा की सुगंध, एक भयंकर दुर्गंध में परिवर्तित हो चुकी थी। मुनि ने सोचा, कि भरी सभा में अगर मेरा अपमान हुआ है, तो इसका एकमात्र कारण भगवान विष्णु ही हैं। निश्चित ही मैं जाकर उनसे हिसाब चुकता करता हूँ। उन्होंने भगवान विष्णु के पास जाकर देखा, तो मुनि की तो आँखें फटी की फटी रह गई। कारण कि श्रीहरि के साथ श्रीलक्ष्मी जी तो उपस्थित थी ही। साथ में राजकुमारी भी उनके साथ थी। उस पर भगवान विष्णु जी ने पलट कर यह पूछ लिया, कि हे मुनि क्या हुआ। ऐसे व्याकुल की भाँति कहाँ भटक रहे हो। मुनि ने यह सुनना था, कि वे तो क्रोध से भर गए। उनके भीतर की मैल शब्दों के माध्यम से बाहर निकलने लगी-


‘पर संपदा सकहु नहिं देखी।

तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।।

मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु।

सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु।।’


मुनि ने श्रीहरि पर ही आरोपों की बरसात कर दी। लग ही नहीं रहा था, कि कोई भक्त अपने भगवान से लड़ रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो कोई सांसारिक व्यक्ति, किसी अन्य सांसारिक व्यक्ति से लड़ रहा हो। मुनि ने तो यहाँ तक कह दिया, कि हे श्रीहरि आप दूसरों की संपदा देख ही नहीं सकते। आपके मन में ईर्ष्या और कपट भरा हुआ है। यह भी कहा, कि समुद्र मंथन के समय, तुमने भगवान शिव जी को बावला बना दिया, और देवताओं को प्रेरित कर, भोलेनाथ को विषपान करा दिया।


अनेकों प्रकार के अशोभनीय शब्द कहने के पश्चात, मुनि ने भगवान श्रीहरि को भी शाप दे दिया। मुनि बोले, कि जिस प्रकार से मुझे ठगने के लिए, आपने मानव देह धारण की। ठीक ऐसे ही, आप भी भगवान होने के पश्चात भी, मानव देह को धारण करोगे। और जिस प्रकार से मैं नारी के वियोग में व्याकुल हुआ व रोया। ठीक तुम भी ऐसे ही, स्त्री वियोग से दुखी होगे। मुझे आपने वानर बनाकर, उपवास कराया है न? तो देखिएगा, वानर ही आपके कष्टों को हरने के लिए आपका साथ देंगे। प्रभु ने देवऋर्षि नारद जी के समस्त शापों को शिरोधार्य किया, और तदपश्चात श्रीहरि अपनी माया को समेट लेते हैं। अब वहाँ न तो राजकुमारी है, न लक्ष्मी जी हैं। माया विलुप्त होते ही, मुनि अत्यन्त भयभीत हो उठे। उन्हें ज्ञान हो गया, कि माया ने मेरी बुद्धि हर ली थी। और मैं माया के वशीभूत हो, प्रभु के साथ भी बहुत अनर्थ कर बैठा। उन्हें शाप दे बैठा। देवऋर्षि नारद जी ने प्रभु के चरण पकड़ लिए, क्षमा माँगने लगे, कि उनका शाप मिथ्या हो जाये। तो प्रभु ने उन्हें कहा, कि आप चिंता न करें। यह सब मेरी ही इच्छा से हुआ है। अब आप एकांत में जाकर पुनः भक्ति में लीन हो जायें। देवऋर्षि नारद जी ने प्रभु के वचनों को स्वीकार किया।


तब राक्षसों ने भी मुनि से क्षमा याचना की। तो मुनि ने उन्हें भी वरदान दिया, कि तीनों लोकों में बल व सामर्थ्य में उनके समक्ष कोई नहीं टिकेगा। और स्वयं भगवान के हाथों से वे मृत्यु प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होंगे।


बस यही वह कारण था, जिसके चलते श्रीहनुमान जी भगवान श्रीराम जी के श्रीचरण पकड़ त्रहिमाम-त्रहिमाम करने लगे। श्री हनुमान जी के कहने का यही भाव था, कि हे प्रभु, जब एक मुनि को प्रशंसा इतने भयंकर पतन में डाल सकती है। तो मैं तो एक साधारण वानर हूँ। वे एक श्रेष्ठ मुनि से वानर बन गए। तो मैं तो पहले से ही एक वानर हूँ। मैं प्रशंसा के डंक से भला पता नहीं कौन-सी योनि में जाऊँगा।


बस यही कथा थी, जो श्रीहनुमान जी को स्मरण हो आई थी। आगे कथा में श्रीराम वानरों के साथ क्या अगला कदम उठाते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।


- सुखी भारती

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