By सुखी भारती | Apr 18, 2023
रावण का क्या था, वह तो था ही मूर्ख शिरोमणि। लज्जा का श्रृँगार तो उसने कभी किया ही नहीं था। किसी अन्य के साथ, अथवा भरी सभा में भले ही उसने लज्जा से किनारा कर लिया हो, लेकिन कैसे भी, एकांत में तो उसे लज्जा के इस सुंदर श्रृँगार को अंगीकार करना ही चाहिए था। लेकिन ऐसा हो न सका, और मंदोदरी को अपनी आँखों में रावण का भविष्य स्पष्ट संकेत दे रहा था। बस इतना था, कि वह अपने जीवित रहते, अपनी ही आँखों के समक्ष, अपना सुहाग लुटता नहीं देख सकती थी-
‘सयन करहु निज निज गृह जाईं।
गवने भवन सकल सिर नाई।।
मंदोदरी सोच उर बसेऊ।
जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ।।’
गिरा मुकुट अपने सिर पर रख कर, रावण ने तो सभी सभासदों को कह दिया, कि घबराने की कोई आवश्यकता नहीं। आप सभी लोग निश्चिंत होकर अपने-अपने घरों में जाओ, बाकी हम देख लेंगे। यह सुन सभी लोग सीस निवाकर अपने-अपने ठिकानों पर चले गए। लेकिन मंदोदरी बड़े भारी भय एवं चिंतन की खाई में समाती जा रही थी। मंदोदरी के चिंतन का आधार ही यह था, कि माना कि श्रीराम जी का बाण, मेरे पतिदेव के गले की बजाए मुकुट पर गलती से लग गया हो। लेकिन उसी बाण ने मेरे दोनों कर्ण कुण्डलों को, जिस सफाई व सटीकता से काटा, वह बिना दिव्य निर्देश व शक्ति के संभव नहीं है। श्रीराम जी द्वारा मेरे कर्ण कुण्डलों को काटना, अवश्य ही मेरे लिए कोई विशेष संदेश का द्योतक है। मानों श्रीराम जी कह रहे हैं, कि हे मंदोदरी, सोच मैं अपने स्थान पर बैठा-बैठा, अगर तेरे पति रावण का मुकुट गिरा सकता हूँ, तो क्या उसका सीस उसके धड़ से अलग नहीं कर सकता? कर्ण कुण्डल तो मैंने इसलिए गिरा दिए, क्योंकि हो सकता है, कि इन कर्ण कुण्डलों के भार से तुम्हें सुनाई ने दे, कि रावण को मारने के लिए मुझे रावण के समक्ष आकर युद्ध करने की भी आवश्यकता नहीं है। मैं कहीं पर भी, किसी भी परिस्थिति में रावण को संकल्प मात्र से ही मार सकता हूँ। यही सुनाने के लिए हमने आपके कानों को ढंके इन कर्ण कुण्डलों से, आज से, अभी से मुक्त कर दिया।
मंदोदरी को, प्रभु के इस विचार ने मानों अंदर तक झंझोड़ दिया। वह तत्काल ही दोनों हाथ जोड़ कर, रावण से विनती करने लगी-
‘सजल नयन कह जुग कर जोरी।
सुनहु प्रानपति बिनती मोरी।।
कंत राम बिरोध परिहरहू।
जानि मनुज जनि हठ लग धरहू।।’
मंदोदरी आँखों में अश्रुओं की धारा लिए, दोनों हाथों में विनती के स्वर ले, रावण को कहती है, कि हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए, श्रीराम जी से विरोध छोड़ दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकड़े रहिए। उन्हें जाकर शरणागत हो जाईए।
मंदोदरी ने श्रीराम जी के संबंध में समस्त ऐसी स्तुतियां एवं वेद विदित व्याख्यानों को कहा, जो कि केवल प्रभु के संबंध में ही कहे जाते हैं। रावण को मंदोदरी के इन तर्कों को श्रवण कर, निश्चित ही सजग होना चहिए था। उसे भय भी लगना चाहिए था। लेकिन रावण का ही यह दुर्भाग्य था, कि उसे श्रीराम जी, अभी भी साधारण मानव ही भासित हुए। उस पर भी रावण के मतिभ्रम का स्तर तो देखिए। वह मंदोदरी को श्रीराम जी की महिमा गाते देख, बड़ा ही आशा के विपरीत-सा लगने वाला व्यवहार करता है। कारण कि इससे पूर्व, आज तक जिसने भी उसके समक्ष, श्रीराम जी की महिमा गाई, उसने उसे या तो लात मारी, अथवा उसका भरपूर अपमान किया। श्रीहनुमान जी एवं श्रीविभीषण जी का उदाहरण हमारे समक्ष है ही। शायद रावण मंदोदरी को भी यही दण्ड देता। लेकिन रावण क्रोधित होने की बजाए, ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा। और मंदोदरी को कहने लगा, कि पगली मुझे नहीं पता था, कि तूं मेरी महिमा व सामर्थ का बखान करने के लिए, ऐसे ढंग व समय को चुनेगी। मंदोदरी रावण के यह शब्द सुन कर आश्चर्य करने लगी, कि मैंने महिमा तो श्रीराम जी की गाई है, लेकिन रावण को इसमें अपनी महिमा कैसे प्रतीत होने लगी। तो रावण ने मंदोदरी को कहा, कि तूं कह रही है, कि उस वनवासी के वश में प्रकृति, काल व समस्त चराचर जगत है। लेकिन यह सब तो पहले से ही मेरे वश में है। इसका तात्पर्य मेरा शत्रु मुझसे बलशाली न होकर, मेरे ही समान अथवा उससे भी कहीं हीन है। तो वास्तव में तुम मुझे, मेरे ही सामर्थ से परिचय करवा रही थी। वाह! हम मान गए आपको प्रिय मंदोदरी। आप बहाने से हमारी ही प्रभुता का बखान किए जा रही थीं-
‘सो सब प्रिय सहज बस मोरें।
समुझि परा अब प्रसाद तोरें।।
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई।
एहि बिधि कहहु मोरि पुभुताई।।’
मंदोदरी ने यह सुना, तो मानों उसका हृदय ही बैठ गया, कि पतिदेव का तो कालवश मतिभ्रम हो गया है। उसे सीधा समझाने पर भी उल्टा ही समझ आता है। अब मंदोदरी के मुख से पूरी रात एक बात भी न कह हुई। लेकिन रावण मंदोदरी के अंतरमन से अनजान, पूरी रात ही अज्ञानतावश बहुत से विनोद करता रहा, और यूँ ही सवेरा हो गया। रावण ऐसे ही सीधा सभा में चला गया। और मंदोदरी देखती रह गई।
यह देख गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं, कि यद्यपि बादल अमृत- जल बरसाते हैं, तो भी बेत कभी फलता-फूलता नहीं है। इसी प्रकार समझाने वाला, भले ही कोई ब्रह्मा के समान भी गुरु क्यों न मिल जाये, तो भी मूर्ख के हृदय में ज्ञान नहीं आता-
‘फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरंचि सम।।’
आगे प्रसंग किस और करवट लेता है, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती