Gyan Ganga: भगवान श्रीकृष्ण से क्यों बार-बार माफ कर देने के लिए कह रहे थे अर्जुन ?

By आरएन तिवारी | May 07, 2021

आत्मा तो हमेशा से जानती है कि सही क्या है, चुनौती तो मन को समझाने की होती है। मनुष्य अपने चंचल मन को समझा नहीं पाता और जीवन का जंग हार जाता है। अर्जुन के सामने भी करीब-करीब यही स्थिति थी। युद्ध करने के लिए वे अपने मन को नहीं समझा पा रहे थे। भगवान ने गीता का उपदेश देकर अर्जुन के चंचल मन को स्थिर किया और युद्ध के लिए तैयार किया।

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आइए ! आगे के गीता प्रसंग में चलें—


पिछले अंक में हमने पढ़ा कि भगवान अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं- द्रोण, भीष्म, जयद्रथ, कर्ण आदि महारथी मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। इन महान योद्धाओं से तू बिना किसी भय के युद्ध कर, इस युद्ध में तू ही निश्चित रूप से शत्रुओं को जीतेगा।  


संजय उवाच


एतच्छ्रुत्वा वचनं केशवस्य कृतांजलिर्वेपमानः किरीटी ।

नमस्कृत्वा भूय एवाह कृष्णंसगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ॥


अब संजय महाराज युधिष्ठिर से कहते हैं- हे महाराज ! भगवान के इन वचनों को सुनकर अर्जुन ने हाथ जोड़कर बारम्बार नमस्कार किया, और फ़िर अत्यन्त भय से कांपता हुआ प्रणाम करके अवरुद्ध स्वर से भगवान श्री कृष्ण से बोला। 


अर्जुन उवाच


स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च ।

रक्षांसि भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्धसङ्‍घा: ॥


अर्जुन ने कहा- हे अन्तर्यामी प्रभु! यह उचित ही है कि आपके नाम के कीर्तन से सम्पूर्ण संसार अत्यन्त हर्षित होकर आपके प्रति अनुरक्त हो रहा है तथा आसुरी स्वभाव के प्राणी आपके भय के कारण इधर-उधर भाग रहे हैं और सभी सिद्ध पुरुष आपको नमस्कार कर रहे हैं।


त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणस्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्‌ ।

वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥


आप आदि देव सनातन पुरुष हैं, आप इस संसार के परम आश्रय हैं, आप जानने योग्य हैं तथा आप ही जानने वाले हैं, आप ही परम धाम हैं और आप के ही द्वारा यह संसार अनन्त रूपों में व्याप्त हैं।


वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्‍क: प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च ।

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते ॥


आप वायु, यम, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा तथा सभी प्राणियों के पिता ब्रह्मा भी हैं, आप ही ब्रह्मा के पिता भी हैं, आपको बारम्बार नमस्कार! आपको हजारों बार नमस्कार! मैं आपको बार-बार नमस्कार! करता हूँ।


नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व ।

अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वंसर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ॥


हे असीम शक्तिमान! मैं आपको आगे से, पीछे से और सभी ओर से ही नमस्कार करता हूँ क्योंकि आप ही सब कुछ हैं, आप अनन्त पराक्रम के स्वामी हैं, आप से ही समस्त संसार व्याप्त हैं, अत: आप ही सब कुछ हैं।


सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।

अजानता महिमानं तवेदंमया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि विहारशय्यासनभोजनेषु ।

एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षंतत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम्‌ ॥


अर्जुन कहते हैं- हे भगवन ! आपको अपना मित्र मानकर मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण!, हे यादव! हे सखा! इस प्रकार आपकी महिमा को जाने बिना मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ कहा है, हे अच्युत! यही नही हँसी-मजाक में आराम करते हुए, सोते हुए, वैठते हुए या भोजन करते हुए, कभी अकेले में या कभी मित्रों के सामने मैंने आपका जो अनादर किया है उन सभी अपराधों के लिये मैं क्षमा माँगता हूँ। अर्जुन के कहने का तात्पर्य यह है कि जो बड़े आदमी होते हैं, उनको साक्षात नाम से नहीं पुकारा जाता। उनको आदर सूचक सम्बोधन से संबोधित किया जाता है, किन्तु अज्ञान वश मैंने ऐसा नहीं किया, इसलिए आप मुझे माफ करें।  


पितासि लोकस्य चराचरस्य त्वमस्य पूज्यश्च गुरुर्गरीयान्‌ ।

न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिकः कुतोऽन्योलोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव ॥


आप इस चल और अचल जगत के पिता और आप ही इस जगत में पूज्यनीय आध्यात्मिक गुरु हैं, हे अचिन्त्य शक्ति वाले प्रभु! तीनों लोकों में अन्य न तो कोई आपके समान हो सकता हैं और न ही कोई आपसे बढ़कर हो सकता है।


तस्मात्प्रणम्य प्रणिधाय कायंप्रसादये त्वामहमीशमीड्यम्‌ ।

पितेव पुत्रस्य सखेव सख्युः प्रियः प्रियायार्हसि देव सोढुम्‌ ॥


अत: मैं समस्त जीवों के पूज्यनीय भगवान के चरणों में गिरकर साष्टाँग प्रणाम करके आपकी कृपा के लिए प्रार्थना करता हूँ, हे मेरे प्रभु! जिस प्रकार पिता अपने पुत्र के अपराधों को, मित्र अपने मित्र के अपराधों को और प्रेमी अपनी प्रिया के अपराधों को सहन कर लेता है उसी प्रकार आप मेरे अपराधों को सहन करने की कृपा करें।


(अर्जुन द्वारा चतुर्भुज रूप के लिए प्रार्थना)


अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।

तदेव मे दर्शय देवरूपंप्रसीद देवेश जगन्निवास ॥


पहले कभी न देखे गये आपके इस रूप को देखकर मैं हर्षित हो रहा हूँ और साथ ही मेरा मन भय के कारण विचलित भी हो रहा है, इसलिए हे देवताओं के स्वामी! हे जगत के आश्रय! आप मुझ पर प्रसन्न होकर अपने पुरूषोत्तम रूप को दिखलाइये।

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किरीटिनं गदिनं चक्रहस्तमिच्छामि त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।

तेनैव रूपेण चतुर्भुजेनसहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते ॥


हे हजारों भुजाओं वाले विराट स्वरूप भगवान! मैं आपके मुकुट धारण किए हुए और हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म लिए रूप का दर्शन करना चाहता हूँ, कृपा करके आप चतुर्भुज रूप में प्रकट हों।


(भगवान द्वारा विश्वरूप के दर्शन की महिमा और चतुर्भुज दर्शन)


श्रीभगवानुवाच


मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदंरूपं परं दर्शितमात्मयोगात्‌ ।

तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यंयन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम्‌ ॥


श्री भगवान ने कहा- हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के प्रभाव से तुझे अपना दिव्य विश्वरूप दिखाया है, मेरे इस तेजोमय, अनन्त विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है।


न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।

एवं रूपः शक्य अहं नृलोके द्रष्टुं त्वदन्येन कुरुप्रवीर ॥


हे कुरुश्रेष्ठ! मेरे इस विश्वरूप को मनुष्य लोक में न तो यज्ञों के द्वारा, न वेदों के अध्ययन द्वारा, न दान के द्वारा, न पुण्य कर्मों के द्वारा और न कठिन तपस्या द्वारा ही देखा जाना संभव है, मेरे इस विश्वरूप को तेरे अतिरिक्त अन्य किसी के द्वारा पहले कभी नहीं देखा गया है। यहाँ भगवान ने अर्जुन को कुरूप्रवीर अर्थात कुरुश्रेष्ठ कहा क्योंकि सम्पूर्ण कुरुवंशियों में भगवान से उपदेश सुनने की, भगवतस्वरूप को देखने और जानने की जिज्ञासा केवल अर्जुन के चित्त में हुई है। सच पूछिए तो भगवत दर्शन की और भगवान को निकट से जानने की इच्छा ही वास्तव में मानव-जीवन की श्रेष्ठता है।  


मा ते व्यथा मा च विमूढभावोदृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्‍ममेदम्‌ ।

व्यतेपभीः प्रीतमनाः पुनस्त्वंतदेव मे रूपमिदं प्रपश्य ॥


अर्जुन का भय दूर करने के लिए भगवान कहते हैं- हे मेरे परम-भक्त ! तुम मेरे इस विकराल रूप को देखकर न तो अधिक विचलित हो, और न ही मोहग्रस्त हो, अब तू पुन: सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर प्रसन्न-चित्त से मेरे इस चतुर्भुज रूप को देख। वह परम सौभाग्यशाली है, जिसके नेत्र भगवतदर्शन के लिए प्यासे रहते हैं।


अखियाँ हरी दर्शन को प्यासी

देखियो चाहत कमल नैन को, निसदिन रहत उदासी |

आये उधो फिरी गए आँगन, डारी गए गर फँसी |

केसर तिलक मोतीयन की माला, वृन्दावन को वासी |

काहू के मन की कोवु न जाने, लोगन के मन हासी |

सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिन, लेहो करवट कासी |


श्री वर्चस्व आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्तु---


जय श्री कृष्ण---


-आरएन तिवारी

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