By सुखी भारती | Jan 27, 2021
श्री हनुमान जी भले ही सुग्रीव को प्रभु के चरणों से जोड़ने हेतु अपना समग्र प्रयास कर रहे हैं। और सुग्रीव के लिए तो प्रभु ने यह भी छूट दी है कि सुग्रीव माया का भोग करते−करते योग की पावन अवस्था से च्युत न हो। लेकिन जीव के लिए क्या ऐसा सामंजस्य बिठाना इतना आसान है? बादल भले ही किसी पर अपनी बाहें खोलकर, खुलकर बरस पड़े लेकिन जिस अभागे ने अपने ऊपर छाता ओढ़ने की गलती अथवा जिद्द कर ली हो तो पिफर चाहे मूसलाधर बादल भी बरसे तो भी उसे नहीं भिगो सकते। ठीक इसी तरह जो जीव मायापति को छोड़कर माया को ही अपना सर्वस्व मान बैठते हैं तो भला उन्हें अहित से कौन बचा सकता है?
माया से तात्पर्य यह भी नहीं कि धन−संपदा ही माया का स्वरूप हों। यूं मानें कि प्रभु के प्रति प्रेम, श्रद्धा व समर्पण में जो भी वस्तु अथवा भाव बाध्यता पैदा करे वह भी माया की ही संज्ञा में आती है। अपने स्वामी के प्रति विश्वास में कमी अथवा दृढ़ता का अभाव भी माया का ही प्रभाव क्षेत्र हैं। विश्वास में कमी हो तो भी इतना चिंतित होने की आवश्यक्ता नहीं होती क्योंकि निरंतर सुमिरन−भजन व सेवा सत्संग से भक्ति−भाव दृढ़ हो ही जाता है। लेकिन मुख्य समस्या अथवा व्याध तो तभी है जब अपने स्वामी के प्रति संदेह का विष हृदय को विषाक्त करने लगे। संदेह तो ऐसा शूल है जो साधक की संपूर्ण भक्ति, त्याग व तपस्या को छिन्न−भिन्न कर देता है। जैसे दूध भले ही कामधेनु का ही क्यों न हो। जिसकी तुलना अमृत से की जाती है। लेकिन अगर खटाई की दो बूंदें भी उसमें गिर जाएं तो दूध को फटने से कोई नहीं रोक सकता। पूरे का पूरा दूध ही व्यर्थ हो जाता है। हमारे नयनों को ही देख लीजिए। कैसे नन्हीं सी आँखें विशाल पर्वत, समुद्र व आसमां के विराट दृश्यों को भी सहज जी अपने भीतर सहेज लेती हैं। लेकिन अगर कहीं से एक नन्हा-सा धूल का कण भी आँखों में पड़ जाए तो हमें आँखें मूंद लेने पर मजबूर होना पड़ता है। भले ही यह सब चाहे कुछ क्षणों के लिए हो लेकिन हम नेत्रहीन की अवस्था में तो पहुँच जाते हैं। ठीक वैसे ही संदेह भले ही हमें क्षुद्र सा क्यों न प्रतीत हो, लेकिन यह साधक के संपूर्ण जीवन को तहस−नहस करने के लिए काफी होता है। सुग्रीव के साथ भी कुछ ऐसा ही घट गया।
कमाल है! ईश्वर ने श्री हनुमान जी की उपस्थिति एवं अग्नि को साक्षी कर सुग्रीव को अपने गले लगा लिया। लेकिन यहीं संदेह का कांटा भी सुग्रीव के गले में फंस गया। सुग्रीव अनेकों चिंतन व समीकरणों में उलझ दुविधा की चक्की में पिसने लगा। और उसका संदेहात्मक चिंतन रसातल की गहराई में धंसता ही जा रहा था। सुग्रीव के स्थिर मन के तालाब में मानो किसी ने कंकड़ मार कर अशांत कर दिया था। अतः सुग्रीव के मन में रह−रह कर यह प्रश्न फन उठा रहा था कि क्या श्रीराम जी सच में महाबलि बालि को हरा पायेंगे? क्योंकि बालि का बल ही ऐसा था कि जब वह किसी से युद्ध करता तो शत्रु का आध बल स्वतः ही उसमें आ जाता था। जिस कारण वह आज तक अजेय था। और श्रीराम कह रहें हैं कि मैं एक की बाण में बालि का वध कर दूंगा। गणितज्ञ समीकरण तो यही परिणाम घोषित कर रहे हैं कि श्रीराम बालि को कदापि नहीं हरा सकते।
श्रीराम ने भले ही आश्वासन दिया हो कि वे मुझे राज्य व पत्नी पुनः दिलायेंगे, लेकिन क्या वे सचमुच ऐसा करने में समर्थ हैं? क्योंकि उनके स्वयं के जीवन में जब पत्नी व राज्यभिषेक का विषय आया तो वे पूर्णतः असफलता में फंसे प्रतीत होते हैं। क्योंकि उन्हें अयोध्या नरेश बनाने की यद्यपि घोषणा भी कर दी गई थी लेकिन अगली सुबह क्या हुआ? उन्हें वनों में जाने का आदेश पारित कर दिया गया। अगर श्रीराम इतने ही बलवत् व समर्थ थे तो स्वयं का राज्य हाथों से रेत की मानिंद क्यों फिसलने दिया? क्यों उन्होंने बल के आधार पर इस करूर निर्देश का प्रतिकार नहीं किया? क्यों राजा बनने के स्थान पर वे वन−वन भटकने को विवश हुए? चलो राज्याभिषेक स्थगित हो गया होता तो प्रतिकार नहीं भी करते, लेकिन यूं निर्दोष भाव होने के पश्चात भी वन−गमन के आदेश का पालन करने को विवश होना पड़ा। तो यह तो सर्वदा अनुचित था न? कम से कम तब तो प्रतिकार करते। लेकिन वे हैं कि निकल पड़े वनों की ओर! और तो और साथ में देवी सीता जी व अनुज लक्षमण जी को भी ले निकले। यूं हार मान जाने को मैं उनकी निर्बलता न मानूं तो और भला क्या कहूँ? यही नहीं साथ में यह उम्मीद भी रखूं कि वे बालि का वध कर डालेंगे और वह भी एक ही बाण में?
चलो राज्यभिषेक नहीं हुआ, वनगमन का आदेश भी पारित हो गया और श्रीराम ने बल का प्रयोग कर विरोध भी नहीं किया तो समझ आती है कि उन्होंने यह सोच लिया होगा कि अब अपनों के प्रति ही हथियार क्या उठाना? संस्कार जाग गये होंगे तो श्रीराम चुपचाप वनों में आ गये। लेकिन माता सीता जी का हरण क्या उनकी महान विफलता नहीं? माना उनका यह वादा है कि वे मेरी पत्नी को मुझे वापिस दिलायेंगे, लेकिन कुछ भी है प्रश्न उठना तो स्वाभाविक है न कि जो अपनी पत्नी की रक्षा नहीं कर पाए, वे मेरी पत्नी की क्या करेंगे? उनकी पत्नी को कोई हरण करके ले गया। जिन्हें वे वन−वन की खाक छान कर ढूंढ़ रहे हैं। जो खुद ही अपनी पत्नी को नहीं ला पाए क्या वे मेरी पत्नी को बालि के पंजों से मुक्त करा मुझे समर्पित कर पायेंगे?
सुग्रीव के मस्तिष्क में प्रश्नों का झंझावत है। उन्हें कोई किनारा मिल नहीं पा रहा है। पहली बार उनके मन में प्रश्न उठा था कि श्रीराम−लक्ष्मण बालि के भेजे हुए हैं। दूसरी बार प्रश्न उठ रहा था कि अब वे बालि की ओर, मेरी और से भेजे जायेंगे। लेकिन क्या श्रीराम−लक्षमण के प्रति मेरा ऐस चयन उचित है?
सज्जनों सुग्रीव के मन में भले ही संदेह उठा, लेकिन सुग्र्रीव की विशेषता यही है कि उसके मन में ईश्वर को लेकर दुविध हुई तो उसके पास संत हनुमान जी हैं। उनसे दुविध निवारण कर लिया। साधक को सदैव ऐसा ही करना चाहिए। साधू नहीं तो सीधे ईश्वर से ही प्रश्न कर लेना चाहिए। अगर ऐसी उपलब्ध्ता है तो। और सुग्रीव ने इस बार यही किया। अपनी शंका निवारण हेतु सुग्रीव श्रीराम से क्या कुछ कहते हैं। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः... जय श्रीराम
- सुखी भारती