अखिलेश यादव समझ गये हैं, शिवपाल को साथ लिये आगे बढ़ना मुश्किल है

By अजय कुमार | Sep 24, 2019

तीन−साढ़े तीन साल की तनातनी के बाद अब चाचा−भतीजे के बीच सुलह के संकेत मिल रहे हैं। यह संकेत ऐसे समय में आ रहे हैं जबकि चर्चा इस बात की हो रही थी कि अखिलेश यादव जसवंतनगर सीट से विधायक चाचा शिवपाल यादव की सदस्यता समाप्त करना चाहते हैं। गौरतलब है कि आज भले ही शिवपाल ने अपनी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बना रखी हो परंतु 2017 का विधानसभा चुनाव वह समाजवादी पार्टी के टिकट से ही जीते थे। बहरहाल शिवपाल और अखिलेश के करीब आने के संकेत कितना आगे बढ़ेंगे यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि आज की तारीख में अखिलेश और शिवपाल दोनों को ही एक−दूसरे की जरूरत है।

 

संभवतः पिछले तीन वर्षों में अखिलेश यह समझ गए होंगे कि बातें बनाने और सियासत करने में काफी फर्क होता है, हो सकता है बीते तीन वर्षों में उनका अपने दूसरे चाचा प्रोफेसर रामगोपाल यादव के प्रति भरोसा कुछ कम हो गया हो। इसलिए वह चाचा शिवपाल यादव की ओर खिंचने लगे हों। सब जानते हैं कि शिवपाल और अखिलेश के बीच जो दूरियां बढ़ी थीं, उसमें प्रोफेसर साहब का अहम रोल था। रामगोपाल और शिवपाल के बीच की दूरियों का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनाव के समय रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव के खिलाफ फिरोजाबाद से शिवपाल स्वयं चुनाव लड़ने के लिए मैदान में कूद पड़े थे, शिवपाल को जितने वोट मिले थे, अगर वह अक्षय के खाते में चले जाते तो अक्षय चुनाव जीत जाते।

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खैर, उत्तर प्रदेश की सियासत में 2014 से पहले तक समाजवादी कुनबे का डंका बजता था। समाजवादी पार्टी के बैनर तले पूरा कुनबा एकजुट खड़ा नजर आता था। तब के सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव कुनबे के मुखिया की हैसियत से जो भी फैसला करते, पूरा परिवार उसको सिर−माथे लगा लेता था। सियासी दुनिया में मुलायम सिंह का अपना मुकाम था। उन्होंने वर्षों तक यूपी ही नहीं देश की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। देश के रक्षा मंत्री रह चुके मुलायम को तमाम लोग यूटर्न वाला नेता भी मानते थे। कौन नहीं जानता है कि मुलायम की वजह से सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनते−बनते रह गई थीं। कहा जाता है कि 1999 में जब कांग्रेस सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठाने की तैयारी कर रही थी, तब उन्होंने सोनिया को समर्थन देने का वादा किया था, लेकिन बाद में वह मुकर गए और मुलायम ने ही सोनिया के इटैलियन मूल पर सवाल खड़ा कर दिया था।

 

मुलायम सिंह यादव ही थे जिन्होंने यादव बिरादरी में नया जोश−खरोश पैदा किया था। मुलायम का परिवार देश की राजनीति का सबसे बड़ा परिवार था। मुलायम कुनबे के मुखिया थे तो शिवपाल यादव उनके हाथ−पाँव हुआ करते थे। दोनों भाइयों ने अपने दम पर समाजवादी पार्टी का गठन करके उसे फर्श से उठाकर अर्श पर पहुंचाया था। मुलायम एक टीम की तरह काम करते थे। उनकी टीम में छोटे लोहिया कहे जाने वाले जनेश्वर मिश्र से लेकर रेवती रमण सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा, भगवती प्रसाद, आजम खान, अमर सिंह, राम गोपाल यादव, मयंक ईश्वर शरण सिंह, राज किशोर सिंह, ब्रज भूषण सिंह, राजा अरिदमन सिंह, कीर्तिवर्धन सिंह, आनंद सिंह, अक्षय प्रताप सिंह और यशवंत सिंह जैसे नाम शामिल थे। बाद में इसमें से कई ने मुलायम के रवैये से तो कुछ ने अखिलेश के हाथों में सपा की बागडोर आने के बाद समाजवादी पार्टी का दामन छोड़ दिया था।

 

2012 तक समाजवादी पार्टी में सब कुछ ठीकठाक चलता रहा। हालांकि अंदर ही अंदर समाजवादी पार्टी में कई धड़े बन गए थे। आजम−अमर सिंह में छत्तीस का आंकड़ा था तो शिवपाल यादव और रामगोपाल यादव भी एक−दूसरे के मुखर विरोधी थे, लेकिन मुलायम का औरा ही ऐसा था कि उनके सामने कोई कुछ बोल ही नहीं पाता था। मुलायम के नेतृत्व में ही समाजवादी पार्टी ने 2012 में आखिरी बार शानदार सफलता हासिल की थी। इसके बाद 2014 के लोकसभा, 2017 के विधान सभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश का जादू चल नहीं पाया था, जबकि 2017 के विधान सभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए उन्होंने कांग्रेस से और 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के लिए बसपा तक से तालमेल करने में परहेज नहीं किया था।

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हो सकता है कि 12 सीटों पर होने वाले विधानसभा उप−चुनाव से पूर्व चाचा−भतीजे के बीच की दूरियां मिट जाएं। दोनों ही तरफ से नरमी के संकेत मिल रहे हैं। अखिलेश से सुलह के लिए पहला कदम शिवपाल सिंह ने मैनपुरी में बढ़ाया था। शिवपाल ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा था कि उनकी तरफ से सुलह की पूरी गुंजाइश है। इसके बाद अखिलेश यादव ने लखनऊ में समाजवादी पार्टी कार्यालय में प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि शिवपाल का घर में स्वागत है। अगर वे आते हैं तो पार्टी में उन्हें आंख बंद कर शामिल कर लूंगा।

 

लब्बोलुआब यह है कि लगातार तीन बड़े चुनावों में मिली करारी हार के बाद अखिलेश यादव के सामने अपनी पार्टी को बचाए रखने की बड़ी चुनौती है। एक−एक कर सपा नेता साथ छोड़ते जा रहे हैं। पिछले दिनों कई राज्यसभा सदस्यों ने सपा का साथ छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया है। ऐसे में अखिलेश दोबारा से पार्टी को मजबूत करने में लग गए हैं। यही वजह है कि अखिलेश और शिवपाल के बीच की दूरियां भी मिटने लगी हैं। बता दें कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले वर्ष 2016 के अंत में मुलायम कुनबे में वर्चस्व की जंग छिड़ गई थी। अखिलेश ने जबरन मुलायम को पार्टी अध्यक्ष के पद से हटा कर संरक्षक बना दिया था और स्वयं पार्टी अध्यक्ष बन बैठे थे। अध्यक्ष बनने के बाद अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी पर अपना एक छत्र राज कायम कर लिया। अखिलेश और शिवपाल के बीच दूरियां मुलायम के सियासी राजनीति में सक्रिय रहते ही बढ़ गईं थीं। हालांकि मुलायम सिंह यादव सहित पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने दोनों नेताओं के बीच सुलह की कई कोशिशें कीं, लेकिन सफलता नहीं मिली और 2017 के विधान सभा चुनाव के बाद अखिलेश ने शिवपाल को पार्टी से बाहर कर दिया। कुछ समय तक शिवपाल चुपचाप बैठे रहे लेकिन ऐन लोकसभा चुनाव से पहले शिवपाल ने अपने समर्थकों के साथ समाजवादी मोर्चे का गठन किया और फिर कुछ दिनों के बाद उन्होंने अपने मोर्चे को प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) में तब्दील कर दिया। उनकी पार्टी लोकसभा चुनाव में कुछ सीटों पर चुनाव भी लड़ी थी।

 

-अजय कुमार

 

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