Gyan Ganga: इसलिए बालि का वध करने का प्रण पूर्ण करना चाहते थे प्रभु श्रीराम

By सुखी भारती | Feb 25, 2021

विगत अंक में हम श्रीराम जी द्वारा बालि वध के प्रति अपनी प्रतिज्ञा पर मंथन कर रहे थे। प्रसंग निःसंदेह मार्मिक व अर्थपूर्ण है। कोई श्रीराम जी से पूछ ले कि कैकेई ने आपके प्रति निष्ठुरता तभी दिखाई जब उसकी आसक्ति का केन्द्र बिंदु श्री भरत जी थे। श्री भरत ही न होते तो कैकेई भला आपका बनवास क्यों मांगती? तो एक सांसारिक विश्लेषण तो यह भी कहता है कि भरत जी भी श्रीराम जी को वन भेजने हेतु जिम्मेवार हैं। भले ही उनकी व्यक्तिगत कोई भूमिका व भावना नहीं है। लेकिन उनका अस्तित्व होना ही उनकी अप्रत्यक्ष भूमिका से इनकार नहीं कर रहा। तो ऐसे में क्या श्रीराम जी भरत जी के प्रति वैर भाव पालते हैं? नहीं न! अपितु अथाह प्रेम व स्नेह की रसधरा निरंतर उनके हृदय से बहती रहती है। प्रश्न उठता है कि स्वयं के भाई के प्रति जैसी आपकी प्रीति है ठीक वैसी ही मनोभावना भले सुग्रीव की अपने भाई के प्रति नहीं। लेकिन शत्रुता वाली भी तो बिलकुल नहीं। सुग्रीव जब अपने भाई को दण्डित नहीं करना चाहता तो आपको भला क्या पड़ी है कि बालि वध का अपना प्रण पूर्ण करना ही है।

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: श्रीराम से बालि को नहीं मारने का अनुरोध क्यों करने लगे थे सुग्रीव?

तो इसके पीछे एक अन्य कारण यह भी है कि बालि को यह वरदान था कि उसके समक्ष जब भी कोई शत्रु उपस्थित होता था तो शत्रु का बल आधा रह जाता था। और वह बल बालि में प्रवेश कर जाता था। बालि को भले ही अपनी यह उपलब्ध बहिुत श्रेष्ठ लगे लेकिन श्रीराम जी को यह कतई स्वीकार नहीं था। क्योंकि प्रभु का यह मत ही नहीं है कि आपके सामने भले ही सामने वाले का बल आधा रह जाए। आप किसी का बल आधा कर देते हैं तो यह आपकी उपलब्धि नहीं अपितु कमी है। आपके बल की श्रेष्ठता इसी में है कि आप जिसके समक्ष खड़े हो तो आपको देख उसका बल दोगुना हो जाए, वह आसमां छूने लगे। आपको देख भय से कोई आधा रह जाए तो यह आपकी जीत नहीं अपितु हार है। आपको देख कोई सक्षम से अक्षम की स्थिति में आ जाए तो कोई आपके देखने से भी कतराएगा। आपका दर्शन ही अगर भयक्रांत करने वाला है तो आप तो अशुभ हुए। और अशुभ होने को अगर बालि अपनी विशेषता मानता है तो इसका अर्थ बालि मन से बीमार है। मानसिक रोगी है। बल की श्रेष्ठता तो तब है जब आपका बल किसी अति निर्बल व अक्षम व्यक्ति में भी इतना बल भर दे कि वह काल से भी लड़ने को तत्पर हो जाए। और बालि को यह भ्रम कब से हो गया कि मेरा बल मेरे पुरुषार्थ के कारण है।


सज्जनों वास्तविक्ता यद्यपि यह है कि हमारा जितना भी बल व पराक्रम होता है वह सब ईश्वरीय बल के प्रभाव से ही होता है। हमारे बल के पीछे ईश्वरीय बल का ही प्रतिबिंब छुपा होता है। श्री हनुमान जी भी जब अशोक वाटिका उजाड़ देते हैं तो अनेकों राक्षसों का वध कर देते हैं और जब उन्हें ब्रह्मपाश में बांधकर रावण के समक्ष लाया जाता है तो रावण भी श्री हनुमंत जी से कुछ ऐसा ही प्रश्न करता है−


कह लंकेस कवन तैं कीसा।

केहि कें बल छालेहि बन खीसा।।


रावण कहता है कि हे कपि! तूने मेरा बहुत नुकसान किया है। मेरी पूरी वाटिका तूने तहस−नहस करके रख दी। मैं जानना चाहता हूँ कि किसका बल पाकर तूने यह दुस्साहस किया। तो श्री हनुमान जी रावण को यही प्रति उत्तर देते हैं कि−


जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि। 

तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि।।


अर्थात् हे रावण! जिनके बल से तुमने समस्त चराचर जगत के जीत लिया है और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम हर लाए हो। मैं उन्हीं श्रीराम जी का दूत हूँ। सज्जनों देखा आपने। रावण के पास भी कोई अपना बल नहीं था। अपितु यह बल प्रभु का ही दिया हुआ था। लेकिन रावण ने उस बल का प्रयोग परमार्थ की बजाय स्वार्थ सिद्धि में किया। जिसका घातक परिणाम स्वयं के साथ−साथ समाज ने भी भोगा।

इसे भी पढ़ें: Gyan Ganga: आखिर ऐसा क्या हो गया था जो सुग्रीव प्रभु श्रीराम को ही उपदेश देने लगे थे?

बालि को लगा कि मैं तो देवताओं के राजा इन्द्र का पुत्र हूँ। राजा का पुत्र आखिर राजा नहीं होगा, तो और क्या होगा। और राजा का बल कोई न स्वीकार करे, भला ऐसे दर्शन ही भूल गया। प्रभु की दृष्टि में ऐसे बल के होने से अच्छा है कि वह मिट ही जाना चाहिए। बालि को मारने की ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा के पीछे एक सुंदर आध्यात्मिक मर्म भी हो। 


हम जानते हैं कि बालि सुग्रीव के पीछे चौबीस घंटे लगा रहा। और सुग्रीव भी बालि से इतना भयभीत है कि उससे बचने के लिए बस भागे ही जा रहा है। सुग्रीव जानता है कि बालि उसे दुनिया के किसी भी कोने में जाकर मार सकता है। लेकिन केवल ऋर्षयमूक पर्वत ही ऐसा स्थान है जहाँ बालि का जाना निषेध है। और उसका बल कार्य नहीं करता। क्योंकि वही स्थान ऋषि की तपोस्थली थी। मार्मिक अर्थ यह है कि बालि वास्तव में 'कर्म' है और सुग्रीव 'जीव।' जीव भला कितना भी दौड़ ले, भाग ले, कर्म उसका पीछा करता वहाँ पहुँच ही जाता है। कर्म से बचा नहीं जा सकता। लेकिन जीव अगर संत के स्थान की शरण लेता है अर्थात् वह स्थान जहाँ सत्संग होता है तो वहाँ बालि अर्थात् कर्म हमें छू भी नहीं पाता। हम उसके प्रभाव से बचे रहते हैं। लेकिन इतने पर भी कर्म टला नहीं है। जब कभी अवसर मिलेगा तो बालि रूपी कर्म अवश्य ही सुग्रीव रूपी जीव को अपना ग्रास बनाने में संकोच नहीं करेगा, बालि को समाप्त करने में जैसे सुग्रीव असमर्थ है ऐसे में सुग्रीव रूपी जीव अगर प्रभु को समर्पित हो जाए तो प्रभु स्वयं प्रण कर लेते हैं कि हे जीव! तू अपने कर्म के प्रति भले कोई भी भाव रखे। भले सकारात्मक या नकारात्मक मैं उसे समाप्त करके रहूंगा। तभी तू मुक्त होगा, और कर्म बंधन से मुक्त होना ही वास्तव में तेरे आनंद का सूत्र है। 


श्रीराम जी बालि वध हेतु आगे क्या लीला करने वाले हैं। जानेंगे अगले अंक में...क्रमशः...जय श्रीराम


- सुखी भारती

प्रमुख खबरें

मंत्रिमंडल ने 2022 नीलामी में खरीदे गए स्पेक्ट्रम के लिए बैंक गारंटी की आवश्यकता को किया समाप्त

Bigg Boss 18 | Vivian Dsena ने Karan Veer Mehra को टाइम गॉड की रेस से बाहर किया, नेटिज़न्स ने दी प्रतिक्रिया

Hyunda Motor India को महाराष्ट्र कर प्राधिकरण से पांच करोड़ रुपये का मांग नोटिस मिला

सरकार ने TCS का 30 लाख रक्षा कर्मियों की पेंशन से संबंधित अनुबंध का विस्तार किया