By अंकित सिंह | Aug 16, 2024
अपने 11वें स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की मांग की और इसे मौजूदा सांप्रदायिक नागरिक संहिता” से अलग धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता” के रूप में प्रस्तुत किया। यूसीसी को लेकर नरेंद्र मोदी का ये बयान कही ना कही विपक्षी दलों को उनपर और उनकी सरकार पर हमला करने का बड़ा मौका दे दिया है। विपक्ष भाजपा पर अपना एजेंडा लागू करने का आरोप लगा रहा है।
मोदी ने धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता को देश की मांग करार देते हुए कहा कि धर्म के आधार पर देश को बांटने वाले कानूनों का आधुनिक समाज में कोई स्थान नहीं हो सकता। मोदी ने इस संबंध में मौजूदा कानूनों को सांप्रदायिक और भेदभावपूर्ण बताया। प्रधानमंत्री मोदी ने समान नागरिक संहिता (यूसीसी) और इसके बारे में उच्चतम न्यायालय के आदेशों का उल्लेख किया तथा इस विषय पर देश में गंभीर चर्चा की जरूरत पर बल दिया। उन्होंने कहा, ‘‘देश का एक बहुत बड़ा वर्ग मानता है कि जिस नागरिक संहिता को लेकर हम लोग जी रहे हैं, वह सचमुच में साम्प्रदायिक और भेदभाव करने वाली संहिता है। मैं चाहता हूं कि इस पर देश में गंभीर चर्चा हो और हर कोई अपने विचार लेकर आए।’’ मोदी ने कहा कि देश को सांप्रदायिक आधार पर बांटने वाले और असमानता की वजह बनने वाले कानूनों का आधुनिक समाज में कोई स्थान नहीं है। उन्होंने कहा, ‘‘मैं कहूंगा कि यह देश की मांग है कि भारत में धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता होनी चाहिए। हम सांप्रदायिक नागरिक संहिता के साथ 75 साल जी चुके हैं। अब हमें धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता की ओर बढ़ना होगा। तभी धर्म आधारित भेदभाव खत्म होगा। इससे आम लोगों का अलगाव भी खत्म होगा।’’ प्रधानमंत्री ने कहा कि उच्चतम न्यायालय ने इस संबंध में कई निर्देश दिए हैं।
कांग्रेस ने बृहस्पतिवार को आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से यह कह कर संविधान निर्माता बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर का घोर अपमान किया है कि आजादी के बाद से अब तक देश में ‘‘सांप्रदायिक नागरिक संहिता’’ है। रमेश ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर पोस्ट किया, ‘‘नॉन-बायोलॉजिकल प्रधानमंत्री की दुर्भावना और विद्वेष की कोई सीमा नहीं है। आज के उनके लाल किले के भाषण में यह पूरी तरह से दिखा।’’ उन्होंने आरोप लगाया, ‘‘यह कहना कि हमारे पास अब तक ‘‘सांप्रदायिक नागरिक संहिता’’ है, डॉ. आंबेडकर का घोर अपमान है, जो हिंदू पर्सनल लॉ में सुधारों के सबसे बड़े समर्थक थे। ये सुधार 1950 के दशक के मध्य तक वास्तविकता बन गए। इन सुधारों का आरएसएस और जनसंघ ने कड़ा विरोध किया था।’’
समाजवादी पार्टी के सांसद अखिलेश यादव ने कहा किन देश के लिए सबसे बड़े मुद्दे हैं कि महंगाई कम हो, युवाओं को रोजगार मिले और समाजवादी लोगों के सपने पूरे हों। सभी लोगों की भागीदारी हो और हमारा समाज समृद्ध बने। सभी जातियों को उनका हक और सम्मान मिले। यह समय की मांग है।
मई 1986 में दिल्ली में पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा अध्यक्ष के रूप में अपने भाषण में लालकृष्ण आडवाणी ने शाहबानो मामले में फैसले को पलटने की आलोचना की और कहा, “शाहबानो मामले में इस साल की लंबी बहस का एक अच्छा परिणाम यह हुआ है कि इसने देश में संविधान के अनुच्छेद 44 (यूसीसी) के बारे में गहरी जागरूकता पैदा की है… (और) मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार की तत्काल आवश्यकता है।” पुणे में वी डी सावरकर की याद में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने भी राजीव सरकार के फैसले की आलोचना की और याद दिलाया कि सावरकर जैसे सुधारक ने महिलाओं के बीच कोई भेदभाव नहीं किया। संकेत यह देने की कोशिश हुई कि कांग्रेस ने मुस्लिम समाज के शक्तिशाली वर्गों को खुश करने के लिए महिलाओं के बीच धार्मिक भेदभाव किया।
समान नागरिक संहिता हमेशा से भाजपा के एजेंडे में रहा है। हालांकि, जब 1998 से 2004 तक वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में आई, तो भाजपा ने अपने मुख्य एजेंडे को ठंडे बस्ते में डाल दिया, ताकि उन सहयोगियों को अलग-थलग न किया जा सके, जिनका मुस्लिम समर्थन आधार भी था। इस समय तक, समान नागरिक संहिता की मांग ने अपना राजनीतिक अर्थ बदल दिया था। 1947 और 1950 के बीच, इसे समान लैंगिक सुधारों की शुरुआत करने के प्रयास के रूप में देखा गया था, लेकिन 1980 के दशक के उत्तरार्ध से यह हिंदुत्व की मांग बन गई और गैर-भाजपा हलकों में इसे "अल्पसंख्यक समुदाय को परेशान करने की चाल" के रूप में देखा गया।
मोदी सरकार के पहले दो कार्यकालों के दौरान, अयोध्या में राम मंदिर बना और अनुच्छेद 370 को भी खत्म कर दिया गया। ये दोनों भी भाजपा के मुख्य एजेंडों में शामिल थे। यूसीसी फिलहाल भाजपा का आखिरी अधूरा वैचारिक एजेंडा है और पीएम मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में स्पष्ट संकेत दिया कि वे इसे लागू करने पर विचार करेंगे। हालांकि, उन्होंने इसे "धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता" के रूप में पेश करने का विकल्प चुना ताकि यह संकेत दिया जा सके कि विपक्ष इस मुद्दे पर भाजपा के साथ एकमत नहीं है, यह इस बात का संकेत है कि उसके धर्मनिरपेक्ष दावे "तुष्टिकरण की राजनीति" के लिए एक पर्दा हो सकते हैं।
यूसीसी के दृष्टिकोण के बारे में एक बड़ी जटिलता यह थी कि हिंदू कोड बिल, जिसका उद्देश्य हिंदू व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करना था, 1940 के दशक और 1950 के दशक के एक बड़े हिस्से में काम कर रहा था, जब ऐसे कानूनों को लिंग-न्यायसंगत बनाने के लिए चार कानून पारित किए गए थे। चार कानून हिंदू विवाह अधिनियम, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, और हिंदू दत्तक ग्रहण और रखरखाव अधिनियम थे, जो हिंदुओं, सिखों, बौद्धों और जैनियों पर लागू होते थे।
हालांकि, तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने रूढ़िवादी वर्गों और खुद राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के विरोध के बीच इन कानूनों को आगे बढ़ाया, उन्होंने सोचा कि मुस्लिम समुदाय को अपने भीतर यह तय करने देना बेहतर होगा कि वे व्यक्तिगत कानून सुधारों के लिए कब तैयार हैं। इसका मतलब यह हुआ कि हिंदू कोड बिल ने चार सुधारित कानूनों को जन्म दिया, लेकिन मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में सुधार नहीं किया गया, जो यूसीसी के पीछे संवैधानिक दृष्टिकोण के विपरीत था।