By सुखी भारती | Oct 07, 2021
जैसा कि हमने पिछले अंक में यह सुखद समाचार अपने कर्ण इन्द्रियों में प्रवाह होने दिया था कि अब हम सुंदर काण्ड में प्रवेश करने जा रहे हैं। सुंदर काण्ड श्रीरामचरितमानस में सातों काण्डों में से पाँचवें चरण में प्रकट होता है। हालांकि श्रीरामचरितमानस में सातों काण्डों में प्रत्येक शब्द अमूल्य है। जिसकी तुलना की ही नहीं जा सकती। लेकिन सुंदर काण्ड का जो महत्व संसार में देखने को मिलता है, वह वर्णन से परे है। लोग संपूर्ण रामायण का पाठ न भी करवायें, लेकिन केवल सुंदर काण्ड का पाठ करवा लें, तो उन्हें लगता है, कि हम निःसंदेह सही मार्ग पर हैं। प्रभु हम पर निश्चित ही प्रसन्न होंगे। प्रत्येक मंगलवार मुख्यतः श्रीहनुमान जी के मंदिरों में तो सुंदर काण्ड का पाठ तो होता ही है। मंदिरों के बजते घंटे, लयबद्ध व मीठे स्वरों में सँवरी आरतियां, और मंदिरों के बाहर श्रीहनुमान जी के पावन दर्शनों हेतु लगी भक्तों की लंबी कतारें, मानो एक अलग ही दिव्य व विहंगम दृश्य का दर्शन करवाती हैं। आईये हम भी इससे पूर्व कि ‘सुंदर काण्ड’ का वर्णन करें, आईये श्रीहनुमान जी की पावन स्तुति में यह गान करते हैं-
‘अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रयभक्तं वातजातं नमामि।।’
अर्थात् अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान जी को मैं प्रणाम करता हूँ।
सुंदर काण्ड सुंदर क्यों है? ऐसा क्या है कि श्रीरामचरितमानस में इसे सुंदर काण्ड के नाम से सुशोभित किया गया है? तो सबसे प्रथम व श्रेष्ठ कारण, जो आध्यात्मिक गर्भ से प्रेरित है, तो वह यह है, श्रीहनुमान जी की यह लंका यात्रा, कोई रावण से मुलाकात की यात्रा के नाम से अंकित नहीं है। किसी दुष्ट राक्षस से हुई मुलाकात भला सुंदरता का क्या पैमाना होगी। माता सीता जी की वे महान विभूती हैं, जिनसे पावन भेंट के चलते ही यह यात्रा, सुंदर कहलवा पाई। सुंदर इसलिए, क्योंकि वानरों की गिरती मानसिक्ता व दशा में तभी सुखद परिर्वतन का शुभारम्भ हुआ, जब श्रीहनुमान जी इस यात्रा के लिए अपने आपको उपस्थित करते हैं। यही सुंदर घड़ी ही इस सुंदर काण्ड की प्रथम कड़ी साबित होती है। लंका के भीतर राक्षस भले ही कुरुप व डरावने हों, लेकिन लंका नगरी अथाह सुंदर है। अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान श्रीसीता जी भी, भले ही कुरुप राक्षसियों से घिरी हैं, लेकिन श्रीसीता जी की सुंदरता अपार है। जिस अशोक वाटिका में मईया विराजमान हैं, उस अशोक वाटिका की सुंदरता की भी तीनों लोकों में चर्चा है। फिर सबसे बड़ी बात कि श्रीसीता जी तो साक्षात भक्ति स्वरूपा हैं। और भक्ति को शास्त्रों में सुंदर ही कहा गया है। जिस कारण से सुंदर काण्ड का नाम सुंदर काण्ड होना स्वाभाविक ही है। नैतिक मूल्यांकन करें तो पायेंगे कि सुंदर काण्ड के आरम्भ होने की नींव भी बड़ी सुंदर है। वह यह कि जिस समय जाम्बवान श्रीहनुमान जी को उनकी शक्तियों का स्मरण करवाते हैं, तो श्रीहनुमान जी भी यह घोषणा करते हैं कि मैं अभी सभी राक्षसों को मार कर माता सीता को प्रभु की शरण में ले आता हूँ। और निःसंदेह श्रीहनुमान जी यह महान कार्य करने में समर्थ भी थे। लेकिन इतना बल होने पर भी, श्रीहनुमान जी तुरंत ही छलाँग नहीं लगा देते। अपितु जाम्बवान से पूछते हैं, कि हे जाम्बवान! मैं सब कार्य करने में समर्थ हूँ। लेकिन मैं आपसे पूछता हूं, कि उचित क्या है। मुझे आप मार्ग दर्शन करें, कि मुझे क्या करना चाहिए-
‘सहित सहाय रावनहि मारी।
आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी।।
जामवंत मैं पूँछउँ ताही।
उचित सिखावनु दीजहु मोही।।’
स्पष्ट संदेश है कि माता सीता जी की और बढ़ने वाले कदमों में ऐसा नहीं कि मात्र बल की ही अधिकता हो। बल के साथ-साथ उसमें विनम्रता का समावेश भी होना चाहिए। किसी योद्धा का गुण केवल आगे बढ़ना ही नहीं होता, अपितु उचित समय आने पर पीछे हटने का निर्णायक साहस भी उसमें कूट-कूटकर भरा हो। श्रीहनुमान जी में अगर अपार शक्ति है, तो ऐसा नहीं कि वह शक्ति रावण की तरह बेलगाम है। उनकी शक्ति संतों द्वारा नियंत्रित है। श्रीहनुमान जी इतने विनम्र हैं कि समस्त शक्तियों के होते हुए भी, वे जाम्बवान से पूछते हैं कि मुझे उचित परामर्श तो आप ही दें कि मैं अब आगे क्या करूँ। निश्चित ही चीता में भी यही गुण विद्यमान होता है। वह जब शिकार करने बैठता है, तो वह पहले ही छलाँग नहीं लगा देता, अपितु पहले नीचे की और झुक जाता है। केवल नीचे ही नहीं झुकता, अपितु जरा-सा पीछे भी मुड़ जाता है। श्री हनुमान जी अपने भीतर यही सूत्र का पालन करते हैं। वे झुक तो रहे ही हैं, समय आने पर पीछे भी हटने का गुण प्रदर्शन करेंगे। निसंदेह इतने बड़े अभियान के लिए ऐसे दैविक गुणों का समावेश ही एक कुशल योद्धा की विशेष पहचान व लक्षण हैं। यही सिद्धांत आगे चलकर जीवन के किसी भी काण्ड को सुंदर काण्ड बनाने में सिद्ध होते हैं। सुंदर काण्ड तो सुंदर है ही। लेकिन इसीके साथ हमारा जीवन भी कैसे सुंदर हो, यही तो सुंदर काण्ड का उद्देश्य है। अर्थात सर्वप्रथम तो उन वानरों की भाँति हमारे जीवन का भी उद्देश्य निर्धारित होना चाहिए। हमारा एक ही उद्देश्य होना चाहिए कि हमें बस कैसे भी ईश्वर की भक्ति को प्राप्त करना है। भले ही इसके लिए हमें अपने प्राणों को ही क्यों न न्योछावर करना पड़े। बिना उद्देश्य प्राप्त किए, वापिस जाने की तो मानों हमें कल्पना भी नहीं करनी है। यह सब गुण हों, तो जीव का केवल वर्तमान ही नहीं, अपितु भूतकाल और भविष्य को भी सुंदर बनाने से कोई नहीं रोक सकता। आगे हम देखेंगे कि कैसे श्रीहनुमान जी की एक छलाँग ही वानरों को उनके लक्ष्य तक पहुँचा देती है...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!
- सुखी भारती