क्या करें! श्रीरामचरित मानस रुपी क्षीरसागर में गोता लगाने पर, बाहर निकलने का मन ही कहाँ होता है। संपूर्ण श्रीरामचरित मानव ही नहीं, अपितु इस पावन ग्रंथ का एक-एक शब्द ही अपने आप में एक गहरा सागर है। बाहर का सागर हो, तो मानव के समस्त प्रयास होते हैं, कि इस सागर में तैर कर बाहर आया जाए। पर श्रीराम चरित मानस रुपी अमृत सागर में तैर कर बाहर आने में नहीं, अपितु डूबने में ही आनंद का अनुभव होता है। अब श्रीहनुमान जी और श्रीविभीषण जी के प्रसंग को ही ले लीजिए। विगत प्रसंगों की कड़ी में हम कब से प्रयास कर रहे हैं, कि आज हम आपको इन दोनों महानुभवों के मध्य हुई वार्ता का रसपान करवायेंगे। लेकिन क्या करें, गोस्वामी जी द्वारा रचित, और श्रीराम जी द्वारा आदेशित, इस गूढ़ ग्रंथ की प्रत्येक पंक्ति व शब्द हमें कोई न कोई, महान रहस्य की और अँगुलि पकड़ कर खींच कर ले जाती है। जिसको आँखें मूँद कर आगे बढ़ने की हिम्मत ही नहीं होती। अब इस चौपाई को ही ले लीजिए। गोस्वामी जी कहते हैं, कि श्रीहनुमान जी क्या देखते हैं, कि विभीषण जी ‘राम-राम’ का सुमिरन करते हुए, अपने दिन की प्रथम दिनचर्या का शुभारम्भ करते हैं। जिसे सुन श्रीहनुमान जी के हृदय में अतिअंत हर्ष व आनंद छा जाता है-
‘राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।’
ध्यान से देखेंगे, तो श्रीविभीषण जी अपने दिवस का आरम्भ, ‘राम-राम’ शब्द के पावन उच्चारण से ही करते हैं। जिसे सुन श्रीहनुमान जी के हृदय में हर्ष व आनंद छा जाता है। चिंतन का विषय है, कि श्रीहनुमान जी राम-राम की धुन सुन क्यों प्रसन्न होते हैं। राम धुन की बजाए, कोई अपशब्द भी तो बोले जा सकते हैं। शब्द तो शब्द हैं। कुछ भी बोलने से क्या फर्क पड़ता है। श्रीविभीषण जी ‘रावण-रावण’ का उच्चारण भी तो कर सकते थे। रावण बोलने से भला क्या पाप हो जाता। इस विषय पर निश्चित ही चिंतन की आवश्यक्ता है। मात्र धार्मिक शास्त्र ही नहीं, अपितु आज का आधुनिक विज्ञान भी मानता है, कि शब्द ज्ञान के अंर्तगत, प्रत्येक शब्द का अपना एक महत्व है। उनमें से भी राम-राम शब्द का तो विशेष महत्व है। जी हाँ! आज के समय में संसार का हर व्यक्ति कहीं न कहीं अवसाद से ग्रसित है। डिप्रेशन की इस बीमारी के उपचार हेतु, जितने भी प्रयास व तरीके अपनाये जाते हैं, उनसे देखा गया है, कि अवसाद घटने की बजाए, और बढ़ता ही जा जाता है। लेकिन अवसाद ग्रसित व्यक्ति के लिए, राम-राम शब्द का प्रभाव देखिए। अवसाद ग्रसित व्यक्ति अगर राम-राम शब्द को ऊँचे स्वर में, चिल्ला-चिल्ला कर कहता है, तो उसके अवसाद का रोग कुछ ही दिनों में छू मंत्र हो जाता है। इससे केवल अवसाद ही नहीं जाता, अपितु व्यक्ति में एक नवीन ऊर्जा का भी संचार होता है। उसके मस्तिष्क के स्नायु तंत्र ऐसे-ऐसे हार्मोन का स्राव करने लगते हैं, जो शाँति, प्रसन्नता व क्षमाशीलता के लिए कारक होते हैं। और संभवतः व्यक्ति को पहले कभी सुलभ ही नहीं हुए होते। राम-राम बोलने से हमारा हृदय अधिक उदार, प्रेम व क्षमा की भावना से भरने लगता है। आपने देखा होगा कि जब किसी की शव यात्र निकलती है, सामूहिक स्तर पर यही शब्दों का प्रयोग होता है- ‘राम राम बोलो सत्त है, सत्त बोले सो गत्त है।’ अर्थात सभी राम-राम बोलो, क्योंकि राम-राम से ही गति अर्थात मोक्ष होना है। क्या मान लेना चाहिए कि हमारे सामूहिक राम-राम बोलने से उस मृत जीव की मुक्ति हो जायेगी? जी नहीं! वास्तव वह राम-राम का उच्चारण उस मृत जीव के लिए नहीं है। अपितु जो शोकाकुल परिवारिक व शुभ चिंतक उसकी अर्थी में चल रहे हैं, इस राम-राम धुन से उनके हृदयों पर ऐसा सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, कि वे इस दुख की खड़ी में बल व धैर्य महसूस करने लगते हैं। सुबह पार्कों में व अन्य सामूहिक स्थलों पर अगर सभी लोग नित्य जय श्रीराम का ऊँची ध्वनि में उच्चारण करेंगे, तो आप पायेंगे कि यह क्रिया संपूर्ण जगत के लिए लाभप्रद होगी। लेकिन हमें पता है, कि वर्तमान परिपेक्ष में, समाज राजनीतिक एवं सांप्रदायिक संक्रीर्णतायों से इतना जकड़ा हुआ है, कि सार्वजनिक स्थलों पर ऐसा करना मानों पाप सा माना जायेगा। माना कि ऐसे स्थान अभी अनुकूल प्रतीत न हो रहे हों। लेकिन अपने घरों व धार्मिक स्थलों पर तो यह संभव है ही। इससे ना केवल हमें मानसिक, दैहिक व आध्यात्मिक स्तर पर पौषण मिलेगा, अपितु समाज के लिए भी यही उत्तम होगा।
मनोविज्ञान यह भी कहता है, कि सुबह-सुबह उठकर आप जिसका भी चिंतन करेंगे, और जिन-जिन शब्दों का आप संग करेंगे, दिन भर आपके अंतःकरण पर वैसा ही प्रभाव बना रहेगा। ऐसे में प्रयोग हेतु, आप कई बार ‘रावण-रावण’ अथवा किसी गाली सूचक शब्दों का प्रयोग कर देख सकते हैं। आप पायेंगे कि आप के हृदय में दिन भर, हिंसा व कामुक विचार अधिक उठ रहे हैं। वहीं इसकी बजाए, अगर आप सुबह उठते ही, राम-राम का उच्चारण करते हैं, और कई बार करते हैं, तो आप दिन भर शाँत व उदार महसूस करेंगे। श्रीहनुमान जी ने देखा कि इस महल से तो प्रभात काल में, प्रथम शब्द ही राम-राम का प्रवाहित हो रहा है। तो निश्चित ही यह किसी साधु सज्जन का निवास है। और मैं उनसे कैसे भी, हठपूर्वक भी भेंट करुँगा। क्योंकि साधु से भेंट करने कभी भी हानि नहीं होती-
‘एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।।’
अगले अंक में देखते हैं, कि श्रीहनुमान जी एवं श्रीविभीषण जी के मध्य क्या वार्ता होती है---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती