By नीरज कुमार दुबे | Jul 30, 2021
अमेरिकी फौजों की अफगानिस्तान से वापसी को चीन अपने लिये एक अवसर के रूप में देख रहा है। चीन का चूंकि लोकतंत्र में विश्वास नहीं है इसलिए वह वहाँ की सरकार से बातचीत ना करके तालिबान नेताओं से मुलाकात कर रहा है। यही नहीं तालिबान नेता भी चीन को सबसे भरोसेमंद दोस्त बता रहे हैं। चीन और तालिबान के बीच के रिश्तों की परतें आज की इस रिपोर्ट में एक-एक करके खोलते जाएंगे ताकि दुनिया के सामने आ सके पूरा सच।
सबसे पहले बात करते हैं तालिबान और चीनी नेताओं की मुलाकात की। मुल्ला अब्दुल गनी बरादर की अगुवाई में तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल इस सप्ताह बुधवार को अचानक चीन के दौरे पर पहुंचा और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के साथ वार्ता की। वांग यी दुनिया में घूम-घूमकर आतंकवाद की निंदा भले करते हों लेकिन अपने देश में आतंकवादियों और मानवता के घोर दुश्मन तालिबान से बातचीत करते हैं। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक बातचीत के दौरान तालिबान ने विस्तारवादी चीन को भरोसेमंद दोस्त बताया और आश्वस्त किया कि वह ‘अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी को भी करने की’ इजाजत नहीं देगा। यहां किसी को भी से सबसे ज्यादा आशय भारत से ही है। चीन की चिंता है कि अमेरिका के हटने के बाद अफगानिस्तान में भारत का महत्व बढ़ सकता है क्योंकि वह वहां विकास के ढेरों काम कर रहा है और सबसे करीबी मित्र राष्ट्र के रूप में विख्यात है। इसलिए चीन ने तालिबान को पटाना शुरू किया है कि भारत के बढ़ते प्रभाव और लोकप्रियता को रोको।
जहां तक इस बैठक की बात है तो अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो के बलों की वापसी के बीच तालिबान और चीन के बीच यह पहली बैठक है। हम आपको बता दें कि तालिबान ने सरकारी बलों के कब्जे वाले काफी क्षेत्र पर अपना नियंत्रण कर लिया है। इस बात से भी चीन इसलिए चिंता में है क्योंकि उसे लग रहा है कि उसके अस्थिर शिनजियांग प्रांत के उईगर आतंकवादी समूह और ईस्ट तुर्कीस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) अफगान सीमा से घुसपैठ कर सकते हैं। इस चिंता को काफी हद तक तालिबान ने दूर करने का प्रयास इस बैठक के दौरान किया। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजिआन ने मीडिया ब्रीफिंग में इस बात की पुष्टि की कि मुल्ला अब्दुल गनी बरादर की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल ने बीजिंग के नज़दीक बंदरगाह शहर तिआंजिन में वांग से मुलाकात की है। मंत्रालय ने वांग की बरादर और उनके प्रतिनिधिमंडल के साथ मुलाकात की तस्वीरों को सोशल मीडिया पर साझा भी किया। चीनी प्रवक्ता झाओ लिजिआन ने वांग और बरादर की मुलाकात के बाद जारी प्रेस विज्ञप्ति पढ़ते हुए बताया कि वार्ता के दौरान, वांग ने उम्मीद जताई है कि तालिबान अपने और ईटीआईएम के बीच रेखा खींच सकता है।
इस मुलाकात के दौरान मुल्ला अब्दुल गनी बरादर ने कहा कि तालिबान अफगानिस्तान में निवेश के लिए अनुकूल माहौल तैयार करेगा। इस बयान के मायने समझिये। चीन ने तालिबान को कर्ज वाले विकास का झुनझुना उसी तरह दिखाया है जैसा उसने दक्षिण एशिया के कई देशों को दिखाया और उन्हें अपने कर्ज तले ऐसा दबा लिया है कि वह पिसे जा रहे हैं। इस मुलाकात के दौरान चीन के विदेश मंत्री ने कहा कि हम अफगानिस्तान की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान करते हैं और हम अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करते और हम अफगानिस्तान के लोगों के प्रति मैत्रीपूर्ण नीति का पालन करते हैं। कमाल का दोहरापन है चीन का। कहता कुछ है करता कुछ है। चीनी मंत्री बयान दे रहे हैं कि हम अफगानिस्तान की संप्रभुता का सम्मान करते हैं और वहाँ के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करते लेकिन हस्तक्षेप तो कर रहे हैं। अफगान सरकार के दुश्मन तालिबान से बातचीत करके, उसे बढ़ावा देकर, उसे हथियार देकर, उसे मान्यता देकर क्या अफगानिस्तान की संप्रभुता और अखंडता का सम्मान किया जा रहा है? जिस तालिबान के खिलाफ आम अफगानी बंदूक लेकर खड़ा हो चुका है उस तालिबान को समर्थन देना...ये रिश्ता क्या कहलाता है।
अब जरा बात पाकिस्तान की हो जाये। तालिबान का हमजोली पाकिस्तान जो पहले ही अपनी आतंकी करतूतों के चलते तमाम तरह के अंतरराष्ट्रीय आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है, वह अब कह रहा है कि तालिबान की हरकतों के लिए उसे जिम्मेदार नहीं ठहरायें। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा है कि अमेरिका तथा उसके सहयोगियों के सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में तालिबान समूह की कार्रवाई के लिए इस्लामाबाद को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इमरान खान ने कहा है कि ‘तालिबान जो कर रहा है या नहीं कर रहा है उसका हमसे कोई लेना-देना नहीं है। हम इन सब चीजों के लिए जिम्मेदार नहीं हैं, न ही हम तालिबान के प्रवक्ता हैं। अब इमरान खान यह बात बड़े जोशोखरोश से बोल तो रहे हैं लेकिन वह यह क्यों नहीं बताते कि तालिबान के हाथों में बंदूक किसने दी है? तालिबान को फंड कौन मुहैया कराता है? तालिबान को लड़ने का प्रशिक्षण देने में मदद कौन करता है? है कोई जवाब इमरान खान के पास?
दूसरी ओर, अफगानिस्तान को अधर में छोड़ कर जाने पर दुनियाभर में आलोचना का सामना कर रहे अमेरिका को अब तालिबान के खिलाफ युद्ध में अपना साथ देने वाले लोगों की सुरक्षा की चिंता सता रही है। तभी अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा है कि कुवैत और अन्य देशों के साथ वाशिंगटन इस बारे में बातचीत कर रहा है कि क्या वे अफगानिस्तान में अमेरिकी युद्ध का समर्थन करने वाले अफगानों को अपने यहां रख सकते हैं क्योंकि युद्धग्रस्त देश में रहने पर वे तालिबान के हमले का सामना कर सकते हैं।
उल्लेखनीय है कि अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से वापसी पूरी होने पर बाइडन प्रशासन अफगान वार्ताकारों, चालकों और दो दशक लंबे चले युद्ध में अमेरिकी बलों की मदद करने वाले अन्य लोगों को शीघ्रता से सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने के लिए भारी दबाव का सामना कर रहा है। दरअसल जिन-जिन लोगों ने अमेरिका की मदद की थी वह अब तालिबान की ओर से बदले की कार्रवाई के खतरे का सामना कर रहे हैं।
दूसरी ओर, जहां तक अफगान मामले पर भारत के रुख की बात है तो शांतिपूर्ण, सुरक्षित और स्थिर अफगानिस्तान में भारत की गहरी रुचि है। एक नेता और क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण साझेदार के रूप में भारत ने अफगानिस्तान की स्थिरता और विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और आगे भी ऐसा करना जारी रखेगा। भारत का मानना है कि अफगानिस्तान में भविष्य में बनने वाली किसी भी सरकार को समावेशी होना चाहिए और उसमें अफगान लोगों का पूर्ण प्रतिनिधित्व होना चाहिए। भारत यह भी मानता है कि किसी भी ताकत के जरिये व लोगों के अधिकारों को कुचलकर सत्ता को कब्जे में लेना ठीक नहीं है। भारत जियो और जीने दो के सिद्धांत पर चलने वाला देश है।
-नीरज कुमार दुबे