समान नागरिक संहिता टुकड़ों में क्यों देना चाहती है भाजपा, राज्यों की तरह केंद्र क्यों नहीं उठाता कदम?

By अजय कुमार | Nov 14, 2022

देश जब समान रूप से प्रगति और विचारों के मामले में तेजी से आगे बढ़ रहा है तो इसका असर समान रूप से समाज पर भी दिखना चाहिए। सबको एक जैसे अधिकार मिलें तो उनकी जिम्मेदारी भी एक जैसी हो। सरकार का यह कर्तव्य है कि वह देश के सभी नागरिकों को एक ही ‘चश्मे’ से देखे। इसके लिए जरूरी है कि सभी नागरिकों के लिए एक जैसा कानून बने, इसके लिए समान नागरिक संहिता से बेहतर कुछ नहीं हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी जिसकी केन्द्र से लेकर कई राज्यों में सरकारें हैं, वह स्वयं और उसके मेंटर समझा जाने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानि आरएसएस भी समान नागरिक संहिता की वकालत लम्बे समय से करता चला आ रहा है, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि बीजेपी की राज्य सरकारें तो समान नागरिक संहिता के मामले में आगे आ रही हैं, लेकिन केन्द्र की मोदी सरकार इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है। इसको लेकर सर्वोच्च अदालत भी खुश नहीं है।


यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि भाजपा ने हिमाचल प्रदेश के लिए जारी घोषणा पत्र में फिर से सत्ता में आने पर समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया है। कुछ इसी तरह की पहल चुनाव का सामना करने जा रही गुजरात सरकार ने भी की है। उसने एक समिति गठित कर राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार भी समान नागरिक संहिता के पक्ष में खड़ी है। उत्तर प्रदेश में बीजेपी के दोबारा सत्ता में आने के बाद प्रदेश में समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढ़ाये जा रहे हैं। इस संबंध में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य कहते हैं कि देश को अब इसकी जरूरत है। पूरे देश में एक कानून लागू किया जाए। उनका कहना है कि पहले की सरकारों ने तुष्टिकरण की राजनीति के कारण इस पर ध्यान नहीं दिया। समान नागरिक संहिता कानून बनाने के मामले में उत्तराखंड सरकार की तेजी भी देखने लायक है। वह कहती कुछ है और करती कुछ है। कायदे से अब उत्तराखंड सरकार को इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ना चाहिए। उसे कम से कम इतना तो करना ही चाहिए था कि प्रस्तावित समान नागरिक संहिता का कोई प्रारूप सामने लाए, जिससे उस पर विचार-विमर्श की प्रक्रिया तेज हो सके।


बहरहाल, कुछ लोगों को लगता है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू करना जरूरी हो तो इसके लिए केन्द्र को आगे आकर कानून बनाना चाहिए। क्योंकि समान नागरिक संहिता तो सारे देश में लागू करने की आवश्यकता है। यह आवश्यकता इसलिए बढ़ गई है, क्योंकि विवाह, संबंध विच्छेद, उत्तराधिकार आदि के मामले में एक देश-विभिन्न विधान वाली स्थिति है। इस विसंगति का निवारण तभी हो सकता है, जब पूरे देश में समान नागरिक संहिता लागू हो, लेकिन यह इतना आसान नहीं लग रहा है। सब जानते हैं कि बीजेपी की राज्य सरकारों को छोड़कर अन्य राज्यों की गैर बीजेपी सरकारें राजनैतिक फायदे के लिए समान नागरिक संहिता का विरोध करती रहती हैं। यह भी तय है कि मोदी सरकार यदि ऐसा कोई कानून लाती है तो पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश की गैर बीजेपी/गैर कांग्रेसी सरकारें तो इसका विरोध करेंगी ही राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़ की कांग्रेस गठबंधन वाली सरकारें भी इस कानून में रोड़ा फंसाने से बाज नहीं आयेंगी, इसीलिए मोदी सरकार समान नागरिक संहिता कानून को लेकर बैकफुट पर नजर आ रही है। कई मुस्लिम संगठन भी ऐसे किसी कानून की मुखालफत किए जाने की बात कर रहे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम बोर्ड के महासचिव हजरत मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी कहते हैं कि भारत के संविधान के तहत देश के प्रत्येक नागरिक को उसके धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करने की अनुमति है। इसे मौलिक अधिकारों में शामिल रखा गया है। इसी अधिकारों के अंतर्गत अल्पसंख्यकों और आदिवासी वर्गों के लिए उनकी इच्छा और परंपराओं के अनुसार अलग-अलग पर्सनल लॉ रखे गए हैं, जिससे देश को कोई क्षति नहीं होती है, बल्कि यह आपसी एकता एवं बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के बीच आपसी विश्वास बनाए रखने में मदद करता है। कुछ माह पूर्व बोर्ड द्वारा जारी पत्र में भी कहा गया था कि उत्तराखंड, यूपी या केंद्र सरकार की ओर से समान नागरिक संहिता का राग अलापना असामयिक बयानबाजी के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव ने इसे बढ़ती महंगाई, गिरती अर्थव्यवस्था और बढ़ती बेरोजगारी जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाने और घृणा के एजेंडे को बढ़ावा देने का प्रयास बताया था। पत्र के जरिेए बोर्ड ने कहा कि यह अल्पसंख्यक विरोधी और संविधान विरोधी कदम है और मुसलमानों के लिए यह बिल्कुल स्वीकार नहीं है। उन्होंने कहा कि बोर्ड इसकी कड़ी निंदा करता है साथ ही सरकार से ऐसे कार्यों से परहेज करने की अपील करता है।

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खैर, इस प्रश्न का उत्तर सामने आना ही चाहिए कि जब भाजपा शासित राज्य सरकारें समान नागरिक संहिता की दिशा में कदम उठा रही हैं, तब केंद्र सरकार खुल कर अपना पक्ष क्यों नहीं रख रही है? तो इसका जवाब भी केन्द्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गए एक हलफनामे से मिल गया है। केंद्र ने 18 अक्टूबर 2022 को सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखते हुए कहा कि वह संसद को देश में समान नागरिक संहिता कानून बनाने या उसे लागू करने का निर्देश नहीं दे सकता है। कानून और न्याय मंत्रालय ने अपने हलफनामे में कहा कि नीति का मामला जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को तय करना है। हलफनामा अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर दायर किया गया था जिसमें उत्तराधिकार, विरासत, गोद लेने, विवाह, तलाक, रखरखाव और गुजारा भत्ता को विनियमित करने वाले व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता की मांग की गई थी। केंद्र ने याचिका को खारिज करने की मांग करते हुए कहा के यह कानून की तय स्थिति है जैसा कि इस अदालत द्वारा निर्णयों की श्रेणी में रखा गया है कि हमारी संवैधानिक योजना के तहत, संसद कानून बनाने के लिए संप्रभु शक्ति का प्रयोग करती है और इसमें कोई बाहरी शक्ति या प्राधिकरण हस्तक्षेप नहीं कर सकता है।

 

मंत्रालय ने आगे कहा कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44 एक निर्देशक सिद्धांत है जिसमें राज्य को सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करने की आवश्यकता है। प्रश्न यह भी है कि केवल चुनाव के समय ही समान नागरिक संहिता को लागू करने का वादा क्यों किया जा रहा है? क्या कारण है कि अन्य भाजपा शासित राज्य सरकारें इस दिशा में कोई पहल नहीं कर रही हैं? क्या वे भी उत्तराखंड, गुजरात और हिमाचल की तरह चुनाव के अवसर पर ही समान नागरिक संहिता को लेकर सक्रियता दिखाएंगी? जो भी हो, यह स्वागतयोग्य है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने हिमाचल भाजपा के घोषणा पत्र में समान नागरिक संहिता का उल्लेख होने पर यह कहा कि कांग्रेस भी इस संहिता के पक्ष में है। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि सरकार को इस विषय पर राजनीति करने के बजाय आम सहमति बनानी चाहिए, लेकिन उनका कथन यह तो इंगित कर ही रहा है कि कांग्रेस को यह समझ आ गया है कि वह समान नागरिक संहिता के मामले में वैसा ही रवैया अपनाकर घाटे में रहेगी, जैसा उसने शाहबानो और तीन तलाक मामले में अपनाया था। उचित यह होगा कि कांग्रेस के अन्य नेता और विशेष रूप से सोनिया गांधी, राहुल गांधी एवं मल्लिकार्जुन खरगे समान नागरिक संहिता के पक्ष में अपनी आवाज उठाएं। समान नागरिक संहिता वह विचार है, जिसे अमल में लाने का समय आ गया है। चूंकि यह एक राष्ट्रीय आवश्यकता है, इसलिए राज्य सरकारों के स्थान पर केंद्र सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में सक्रिय होना चाहिए।


-अजय कुमार

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