By सुखी भारती | Aug 24, 2021
भगवान श्रीराम जी ने अपने मन की पूरी अवस्था श्रीहनुमान जी के समक्ष खोल कर रख दी। श्रीसीता जी के प्रति श्रीराम जी के मन में कितना आदर, प्रेम व बिरह भरा हुआ है, यह तो हमें मानो पता ही आज चला था। प्रभु के मन की इस अवस्था को आप क्या नाम देंगे। साधारण दृष्टि में देखने पर तो लगता है कि व्यथा सुनाना तो जीव का कार्य है और श्रीराम जी भी आज अपनी व्यथा ही तो सुना रहे हैं। तो क्या श्रीराम जी भी व्यथित होते हैं? बाहरी दृष्टि से तो यही लगता है। क्योंकि हमारे प्रभु अगर व्यथित न होते, तो यूं व्यथा क्यों सुनाते। लेकित सुना है कि प्रभु तो सदैव कथा ही सुनाते हैं। व्यथा सुनाना तो मात्र जीव का ही धर्म है। निसंदेह आपके मन में ऐसी अनेकों जिज्ञासायें उठ रही होंगी। हमारा प्रश्न उत्तर की तलाश में छटपटा रहा होगा। लेकिन सज्जनों! क्या आप जानते हैं कि प्रभु अगर ऐसी लीला भी करें, जिसमें वे व्यथित से प्रतीत हों, तो ऐसा नहीं कि वे सच में ही व्यथित होंगे। वास्तव में वे तो हमें समझा रहे हैं, कि अगर आपके जीवन में भी ऐसी विपत्ति आन पड़े, तो आप को क्या करना चाहिए। पीड़ा तो आपको सतायेगी ही। लेकिन आप को अपनी पीड़ा सुनानी किसे चाहिए। तनिक सोचिए? प्रभु के इर्द गिर्द करोड़ों वानर थे। लेकिन अपने मन की पीड़ा सुनाने के लिए श्रीराम जी ने किसको चुना। केवल मात्र श्रीहनुमान जी को। श्रीराम किसी और को भी तो अपने मन की पीड़ा सुना सकते थे। लेकिन श्रीराम जी ने ऐसा नहीं किया। कारण कि अपनी दीनता और हीनता सबको नहीं सुनानी चाहिए। दीनता व हीनता वहीं सुनायें, जहाँ पर इसका उपचार व समाधान भी संभव हो। लोहा लोहार के पास शोभा पाता है, और सोना सोनार के पास। इसी प्रकार व्यथा को सुनाना वहीं पर श्रेयष्कर है, जहां आपकी व्यथा को कोई अपनी व्यथा की मानिंद सुने। ऐसा न हो कि आपने तो कहीं अपना दुख रोया, किसी को अपना जान उसके समक्ष अपने सभी रहस्य खोल कर रख दिये। और उधर उस व्यक्ति ने आपको पूरे शहर में मशहूर कर दिया। इसलिए संसार में मात्र संत ही ऐसी विभूति होते हैं, जो आपके मानसिक, शारीरिक व आत्मिक स्तर पर उतर कर आपको समझते हैं। और वही प्रयास करते हैं, जिसमें आपका हित हो। वे पूरे मुहल्ले में हमारा प्रचार-प्रसार नहीं करते। श्रीराम जी भी यहाँ यही लीला कर रहे हैं।
लेकिन सज्जनों! कुछ विकृत मनोदशा वाले लोग यहाँ भी श्रीराम जी पर अंगुली उठाने में विलम्भ व संकोच नहीं करते। एक बार तो हमसे एक व्यक्ति ने प्रश्न भी कर दिया, कि श्रीसीता जी के पास भेजने के लिए श्रीराम जी ने उचित पात्र का चुनाव नहीं किया। इसी स्थान पर अगर श्रीहनुमान जी की जगह, श्रीराम जी सुग्रीव को चुनते, तो अधिक उचित होता। यह सुन मेरे साथ-साथ शायद आपकी भी हँसी छूट गई होगी। कारण कि परामर्शदाता ने आखिर पता नहीं किस आधार पर ऐसा वक्तव्य दे दिया। भला श्रीहनुमान जी से अधिक उचित सुग्रीव कैसे हो सकता है? सुग्रीव ने ऐसा कौन-सा तीर मार दिया, कि श्रीराम जी सुग्रीव को मुद्रिका देते, और कहते कि जाओ सुग्रीव, और श्रीसीता जी की खोज करके लाओ। जब हमने उस महान प्रश्नकर्ता प्राणी से, इसके पीछे छुपे तर्क व कारण जानने चाहे तो उसने कहा कि इसके पीछे दो ही मुख्य कारण हैं। जिनके चलते, श्रीहनुमान जी की अपेक्षा, सुग्रीव को ही श्रीसीता जी के पास भेजा जाये। पहला तर्क यह कि श्रीराम जी ने श्रीहनुमान जी को सर्वप्रथम यह कहा कि हे हनुमंत लाल! तुम जाकर श्रीसीता जी को मेरे बल की थाह बताना। कहीं ऐसा न हो कि मेरी प्रिय सीता यह सोच बैठे कि मुझमें बल ही नहीं। भला श्रीहनुमान जी प्रभु के बल का वर्णन कैसे कर सकते हैं। कारण कि जिस विभूति को स्वयं अपने बल का ही भान नहीं, भला वह प्रभु के बल का क्या वर्णन करेगा। कयोंकि जिस समय समुद्र तट पर सारे वानर सागर पार जाने के अपने-अपने बल सामर्थ का परिचय दे रहे थे, उस श्रीहनुमान जी को देखा है कि वे क्या कर रहे थे? वे अपना बल व सामर्थ्य बता ही नहीं रहे थे। उल्टे सबसे अलग-थलग वे दूर सट कर, अपने आप में ही गुम थे। उनको पता ही नहीं था, कि मेरे अंदर उड़ने का भी बल है। यह तो भला हो बूढ़े हो चुके जाम्बवंत जी का, जिन्होंने समय रहते श्रीहनुमान जी को उनके बल व सामर्थ्य का भान कराया। तब कहीं जाकर श्रीहनुमान जी अपना कार्य सम्पन्न कर पाये। इस आधार पर आप सब स्वयं ही सोचें, कि जिस योद्धा को अपने ही बल का भान नहीं है, भला वह प्रभु के बल का क्या उचित वर्णन कर पायेगा। लेकिन सज्जनों! ठीक यही प्रश्न व आपत्ति प्रभु श्रीराम जी के समक्ष उस समय भी, किसी ने रखी थी।
प्रभु श्रीराम जी ने इसका जो उत्तर दिया, वह अतिअंत मार्मिक व भावना प्रधान है। भगवान श्रीराम जी बोले, कि संसार में सबको अपना बल ही तो सदा याद रहता है। और उसी बल को आधार बना, वह अपने अहंकार का विस्तार करता रहता है। जितना अधिक बल, उतना अधिक अहंकार। माया में घिरे जीव का तो सदा ही यह प्रयास रहता है कि उसका बल सदा बढ़ता ही रहे। कारण कि इस बढ़ते बल के आधार पर ही तो उसका अहंकार सुरक्षित व विस्तार की दिशा में अग्रसर हो सकता है। इसलिए आपने देखा होगा कि प्रत्येक मायाधारी जीव अपने बल का ही बखान करता रहता है। उसको लगता है, कि संसार में उसका बल ही सबसे अधिक व उत्तम है। अब उसे किसी अन्य व्यक्ति का बल बखान करना पड़ जाये, तो उसे रत्ती भर नहीं भाता। कारण कि वह किसी अन्य के बल को स्वीकार ही नहीं करना चाहता। लेकिन श्रीहनुमान जी के संदर्भ में ऐसा नहीं है। वे इतने महाबली हैं, कि तीनों लोकों में उनके समक्ष कोई नहीं टिकता। लेकिन तब भी देखो, सब वानर अपने-अपने क्षुद्र से बल का बखान कर रहे हैं, पर श्रीहनुमान जी सामर्थवान होते हुए भी, चुप हैं। कुछ बोल ही नहीं रहे। और हमें तो ऐसे ही संदेश वाहक की आवश्यकता थी। जो अपना बल नहीं, अपितु अपने प्रभु का बल याद रखे। कारण कि श्रीसीता के पास अगर सुग्रीव को भेज भी दिया गया, तो बेचारा स्वभाव वश सुग्रीव अपने ही बल की डींगें हांकने लगेगा। कि कैसे मैंने अकेले ही सागर पार किया, और तमाम बाधाओं को लाँघते हुए, आप तक पहुंचा। लेकिन मेरी प्रिय सीता जी को किसी के बल की महिमा से भला क्या मतलब? उन्हें तो उसमें कोई रुचि ही उत्पन्न नहीं होगी। कारण कि उन्हें तो मेरे बल की महिमा सुनने से ही शांति मिलेगी। और सुग्रीव बेचारा ऐसा कर नहीं पायेगा। इसलिए श्रीहनुमान जी ही ऐसे उपयुक्त पात्र हैं, जिन्हें अपना बल भले ही न याद हो, लेकिन मेरा अर्थात् अपने प्रभु का बल अवश्य याद है। और श्रीसीता जी के समक्ष जाकर वे मेरे ही बल का बखान करेंगे। क्योंकि वही हमारी प्रिय सीता जी को धैर्य व शांति देगा। यही कारण है कि हमने श्रीहनुमान जी का चयन किया, न कि सुग्रीव का।
बल का बखान तो ठीक है। लेकिन प्रभु के बिरह के बखान के लिए प्रभु श्री हनुमान जी के पक्ष में क्या तर्क देते हैं। जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम...!
-सुखी भारती