देवऋर्षि नारद जी ने श्रीहरि जी से क्या माँगा? यही न, कि हे प्रभु! मुझे अपना रुप प्रदान कर दीजिए। निश्चित ही किसी भी श्रेष्ठ साधक का यही तो लक्ष्य होना चाहिए, कि वह उसके प्रभु के ही रूप को पा जाए। लेकिन मुनि जिस संदर्भ में श्रीहरि जी का रूप पाना चाहते थे, वह प्रसंग ही अलग था। लोग तो औषधि इस लिए लेना चाहते होते हैं, कि उनका रोग ठीक हो। लेकिन मुनि औषधि का सेवन ही इसलिए करना चाह रहे थे, क्योंकि उनको तो रोग से की प्रेम हो गया था। देवऋर्षि नारद जी अगर यह चाहते, कि उन्हें विषयों को जीतना है। और माना जाये, कि उस समस्या का एक ही मुख्य उपाय यह था, कि मुनि द्वारा श्रीहरि का ही रुप धारण किया जाये। तब तो देवऋर्षि नारद जी का आग्रह उचित था। लेकिन प्रभु का रूप अगर, विषय को साधने में सहायक हो रहा था, तो प्रभु भला इतने नादान अथवा मासूम कब से हो गए थे, कि वे सहज ही अपना रूप प्रदान करने के लिए मान जाते। वे चुप ही रहे। लेनिक तभी देवऋर्षि नारद जी के मुख से एक वाक्य ऐसा निकला, कि श्रीहरि को बोलना ही पड़ा। मुनि बोले-
‘जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा।
करहु सो बेगि दास मैं तोरा।।’
श्रीहरि ने सोचा कि कुछ भी है। मुनि भले ही विषयों की दलदल में गहरे से भी गहरे उतरते जा रहे हैं, लेकिन तब भी उनके मुख से मेरे प्रति, उनके दास भाव में भीगे शब्द निकलते ही जा रहे हैं। देखो तो, मुनि ने बातों ही बातों में कह ही दिया न, कि मैं बस उसका हित करूँ। और उस हित के लिए, मैं जो कोई भी उपाय करूँ, इससे उसे कोई लेना-देना नहीं। अब जब मुनि ने हमें कह ही दिया है, कि मैं जो भी विधि अपनाऊँ। तो हमें अब मुनि का परम हित करने में कौन रोक सकता है। लेकिन तब भी हमें मुनि को कुछ तो संकेत दे ही देने चाहिए, कि वास्तव में हमारा क्या मन है। तो श्रीहरि मुनि को संबाधित करते हुए कहते हैं-
‘जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बयन न मृषा हमार।।’
श्रीहरि जी के शब्दों पर आप तनिक ध्यान दीजिए। मुनि ने तो मात्र यह ही कहा था, कि बस कैसे भी, आप मेरा हित कीजिए। लेकिन श्रीहरि जी ने तो, यहाँ तक कह दिया, कि नारद तुम तो केवल अपने हित के बारे में ही कह रहे थे। लो हम तो तुम्हारा परम हित करने पर तुले हुए हैं। हम प्रण करते हैं, कि हम केवल और केवल वही करेंगे, जिस से आपका केवल हित ही नहीं, अपितु परम हित हो। इसके इलावा हम अन्य कुछ भी नहीं करेंगे। आप यह अच्छी प्रकार से समझ लो, कि हमारा वचन कभी भी असत्य सिद्ध नहीं होता।
मुनि ने यह वाक्य सुने, तो वे तो मन ही मन, मानों आनंद से भर गए। कि चलो अब तो भगवान भी हमारे साथ हैं। वे भी वचन दे रहे हैं, कि वे हर परिस्थिति में हमारी सहायता करेंगे। मुनि को लगा, कि अब तो आगे की वार्ता को, और आगे बढ़ाने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। तो क्यों न अपने लक्ष्य पर कार्य किया जाए। मुनि को ऐसे अपनी ही दुनिया में मस्त देख, श्रीहरि ने सोचा, कि मुनि को लग रहा है, अब मेरी बातों में रस कहाँ। लेकिन मुख्य काम की बात तो मुझे अब ही कहनी थी। लेकिन मुनि हैं, कि मेरे शब्दों के प्रति तो यह बहरे ही हुए पड़े हैं। लेकिन तब भी, यह सीख देनी तो अति आवश्यक है। ऐसा सोच श्रीहरि ने अपने वचन कहे-
‘कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी।
बैद न देइ सुनहु मुनि जागी।।
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ।
कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।’
भगवान विष्णु जी ने मुनि को मानों ठोक कर कहा, कि हे मुनि योगी सुनो! जिस प्रकार से रोग से व्याकुल रोगी, बैद्य से कुपथ्य मांगे, तो क्या वैद्य उसे वह कुपथ्य दे देता है? नहीं न। ठीक ऐसे ही मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। श्रीहरि के यह अंतिम शब्द थे। और ऐसा कह कर वे अंर्तध्यान हो गए। श्रीहरि के ऐसे गूढ़, लेकिन सरल शब्दों के भाव को, एक साधारण बुद्धि वाला भी समझ सकता था। लेकिन मुनि को कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा। वे यह समझ ही नहीं पाये, कि श्रीहरि बातों ही बातों में उसे ही रोगी कह रहे हैं। और विषय को कुपथ्य कह रहे हैं। भगवान का अंर्तध्यान होना भी उन्हें किंचित भी बुरा नहीं लगा। जबकि इससे पूर्व तो वे कभी भी नहीं चाहते थे, कि भगवान की छवि उनकी आँखों से कभी ओंझल हो। लेकिन आज मुनि को लग रहा था, कि भगवान ने जब अपना आशीर्वाद दे ही दिया है। तो अब वे यहाँ से जा क्यों नहीं रहे। भगवान जैसे ही वहाँ से जाते हैं, तो मुनि चैन का श्वाँस लेते हैं। कि चलो श्रीहरि यहाँ से हटे तो। श्रीहरि ने जाते-जाते क्या कहा, उन्हें कुछ भी समझ न आया। कारण कि माया ने उन्हें कुछ भी पल्ले नहीं पड़ने दिया। मुनि ने जब देखा कि भगवान विष्णु अब चले गए हैं, तो वे उसी क्षण, अविलम्भ वहाँ जा पहुँचते हैं, जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी।
क्या वहाँ जाकर मुनि अपने लक्ष्य में सफल हो पाते हैं? जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
-सुखी भारती