By सुखी भारती | Apr 05, 2023
भगवान श्रीराम जी ने अपने भक्तों की मंडली को मानो अपने कमंडल में जल की भाँति सहेज कर रखा था। लेकिन कमंडल में सहेजे जल को भी तो देखभाल की आवश्यकता होती ही है। शायद इसी दृष्टिकोण से प्रभु ने सभी से एक प्रश्न किया। हुआ यूँ, कि प्रभु ने चँद्रमा को असँख्य तारों में, स्वयं को एक अकेला व निडर पाया। प्रभु ने कहा, कि देखो तो चँद्रमा ने अँधकार रूपी हाथी को भी, कैसे अपने प्रकाश के बल पर पछाड़ दिया है। लेकिन साथ में यह भी देखा, कि चँद्रमा में एक कालापन-सा भी प्रतीत हो रहा है। तो प्रभु ने उस कालेपन के होने का कारण पूछ लिया, कि आखिर चँद्रमा में वह दाग क्यों है-
‘कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई।
कहहु काह निज निज मति भाई।।’
प्रभु के इस प्रश्न को श्रवण कर, सभी अनुचर प्रभु के अनुकूल उत्तर ढूँढ़ने हेतु, अपने-अपने मस्तिष्क का प्रयोग करने लगे। सर्व प्रथम सुग्रीव उत्तर देने का प्रयास करते हैं-
‘कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई।।’
सुग्रीव ने कहा, कि हे प्रभु चँद्रमा में जो कालापन है, वह कुछ और नहीं, अपितु पृथ्वी की छाया ही चँद्रमा पर पड़ रही है। जिस कारण कि चँद्रमा में कालापन दिखाई पड़ रहा है।
भगवान श्रीराम जी, चँद्रमा के उदाहरण के माध्यम से अपने सभी भक्तों के आँतरिक भावों को पकड़ना चाह रहे थे। वे वास्तव में जानना चाह रहे थे, कि आखिर उनके भक्तों की मनोदशा, किस स्तर की है। तो सुग्रीव ने कहा, कि चँद्रमा पर पृथ्वी की परछाईं पड़ रही है। अर्थात चँद्रमा है तो बहुत निडर व गुणी। लेकिन समस्या है, कि इतना सुंदर प्रकाश बिखेरने वाले चँद्रमा को आठों पहर पृथ्वी के चक्कर काटने पड़ते हैं। मानों उसे बस भागते ही रहना पड़ता है। पृथ्वी परछाईं बन कर उसके पीछे पड़ी हुई है।
श्रीराम जी ने देखा, कि सुग्रीव जैसे गुणी व ज्ञानी व्यक्ति संसार मे इक्का दुक्का ही हैं। लेकिन इनके जीवन में शायद बालि की घटना ने अभी भी अपनी परछाईं को बनाये रखा है। श्रीराम जी जानते हैं, कि सुग्रीव ने अपने जीवन का एक अमूल्य समय, बालि के भय की परछाईं में गिराया है। वह कष्टप्रद समय, इतना पीड़ादायक था, कि इसके पश्चात सुग्रीव को कितने भी सुख क्यों न प्राप्त हो रहे हों, बेचारे सुग्रीव के मन से बालि के भय की परछाईं का कालापन जा ही नहीं रहा।
किसी ने कहा, कि जिस समय चँद्रमा को राहु ने मारा, तो उस समय जो उसे चोट लगी, वह कालापन उसी के ही कारण है। सभी भिन्न-भिन्न विचार दे रहे थे। लेकिन प्रभु के मन को किसी के भी विचार हृदय की गहराई तक छू नहीं पा रहे थे। प्रभु श्रीराम जी ने सोचा, कि क्यों न हम भी इस विषय की विवेचना कर दें। तो प्रभु ने कहा-
‘प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा।
अति प्रिय उर दीन्ह बसेरा।।’
अर्थात विष चँद्रमा का बहुत प्यारा भाई है। इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। प्रभु श्रीराम जी मानो कहना चाह रहे हों, कि भाई भले ही विष के ही समान ही क्यों न हों। वह आपकी कीर्ति में काले धब्बे के समान भी क्यों न हो, आप तब भी उसे अपने हृदय से न निकालें।
श्रीहनुमान जी ने देखा, कि प्रभु ने हमें तो बोलने का अवसर ही नहीं दिया है। यह विचार कर, श्रीहनुमान जी ने कहा, कि हे प्रभु अगर आप हमारा मत पूछना चाहते हैं, तो हमें तो ऐसा एक भी कारण प्रतीत नहीं हो रहा, जिन कारणों की चर्चा सब कर रहे हैं। प्रभु ने कहा, कि ठीक है हनुमंत लाल! फिर आप ही बताओ, कि चँद्रमा में कालापन क्यों हैं। यहाँ श्रीहनुमान जी ने कुछ ऐसा कह डाला, कि सभी एक बार के लिए तो देखते ही रह गए। श्रीहनुमान जी बोले, कि क्षमा करना प्रभु! आप भी तो काले ही हो, आप कौन से गोरे हो?
यह श्रवण कर, श्रीराम जी ने कहा, कि हनुमंत लाल, यहाँ चर्चा हमारे कालेपन की नहीं, अपितु चँद्रमा में दिख रहे कालेपन की हो रही है। तो श्रीहनुमान जी ने कहा, कि क्षमा करें प्रभु! मैं भी उसी विषय पर ही हूँ। चँद्रमा में कालेपन में, और आपके कालेपन में ठीक उतनी ही समानता है, जितनी कि गुड़ और उसकी मिठास में होती है। श्रीराम जी ने यह सुना, तो वे भी सोच में पड़ गए, कि अगर इतना प्रगाढ़ संबंध, हमारे और चँद्रमा में है, तो इसका ज्ञान हमें अभी तक क्यों नहीं था। श्रीराम जी ने अपनी असर्मथता प्रगट करते हुए कहा, कि हम कुछ समझे नहीं हनुमंत लाल? तो श्रीहनुमान जी ने बड़े भोले भाव से कहा, कि हे प्रभु, यह कौन नहीं जानता, कि चँद्रमा आपका कितना बड़ा दास है। चँद्रमा का आपके प्रति प्रेम अकथनीय है। उस प्रेम का ही प्रताप है, कि आपकी श्याम मूर्ति सदैव चँद्रमा के हृदय में बसती है। यह उस श्याम मूर्ति की श्यामता की झलक के चलते ही, चँद्रमा में कालेपन के रूप में दिखाई देती है-
‘कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास।।’
श्रीराम जी ने, श्रीहनुमान जी के मुखारबिंद ऐसे विचार सुने, तो भीतर ही भीतर अतिअंत प्रसन्न हुए। और मानों कह रहे हों, कि वाह हनुमंत लाल, एक भक्त की ऐसी ही तो दृष्टि होनी चाहिए, कि उसे अपने प्रभु की परछाई कण-कण में, वह चारों ओर दृष्टिपात होनी चाहिए। ठीक वैसे जैसे तुम्हें समस्त ब्रह्माण्ड में होती है। अब आगे प्रभु क्या लीला करते हैं, जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती