By सुखी भारती | Jul 01, 2021
जब सींह चले और निरीह वनचरों के हृदय कंपित न हों, भला ऐसे कैसे हो सकता है। श्रीलक्ष्मण जी, तो साक्षात मृत्यु के स्वामी हैं, फिर उनकी पदचाप, भला कैसे किसी की निंद्रा को अनवरत जारी रहने की अनुमति दे सकती है? किष्किंधा की ओर बहने वाली पवन भी मानो अपनी दिशा बदल कहीं दूसरी ही दिशा में बहने लगी। एक बार तो ऐसा लगा कि शायद पवन ने बहना ही छोड़ दिया है। और पवन दुबक कर कहीं दूर गुफा में जाकर सहमी व छुप सी गई है। श्रीराम जी का श्रीलक्ष्मण जी द्वारा, सुग्रीव को लाने के पीछे भी अपार दया ही झलकती है। कारण कि श्रीराम जी तो किसी बंधन में बंधे हैं नहीं। और हो सकता है कि श्रीराम जी सुग्रीव का वध कर ही डालते। क्योंकि श्रीराम जी कब प्रण साध लें और कब प्रण तोड़ दें, कोई पक्का थोड़ी न है। अगर श्रीराम जी स्वयं सुग्रीव को समझाने जाते, तो हो सकता है कि श्रीराम जी सुग्रीव को यूं विषयों में गलतान देख इतने क्रोधित हो जाते कि ‘ओन द स्पोट’ मार ही डालते। लेकिन श्रीराम जी यहाँ श्रीलक्ष्मण जी को भेजते हैं। कारण कि श्रीलक्ष्मण जी भले ही कितने ही मृत्यु के देवता हों, लेकिन श्रीराम जी की आज्ञा की अवहेलना, वे कल्पना में भी नहीं कर सकते। और श्रीराम जी को शायद इसी बात का भय था कि हम तो किसी को मारने का संकल्प लेकर पच्चास बार भी तोड़ दें, तो हमें कौन क्या कहेगा? लेकिन आनन-फानन में कहीं यह संकल्प श्रीलक्ष्मण जी ले बैठे, तो फिर सुग्रीव को बचाने वाला तीनों लोकों में कोई नहीं। तो क्यूँ न मैं श्रीलक्ष्मण जी को ही सुग्रीव के प्राणों का रक्षक बना दूं। काल महाविकराल ही जब किसी जीव का रक्षक बन जाये, तो फिर उस जीव को किसका भय? सुग्रीव के साथ कैसी सुंदर परिस्थिति बनी है, कि आज की तिथि में भले ही उसे असंख्य बालि मारने दौड़ें, लेकिन तब भी सुग्रीव सुरक्षित है। क्योंकि हमने श्रीलक्ष्मण जी की सेवा ही ऐसे लगाई है, कि वे सुग्रीव को हम तक पहुंचा कर ही दम लेंगे। और वह भी मृत रूप में नहीं, अपितु शत प्रतिशत जीवित। खैर! श्रीलक्ष्मण जी के गजराज से कदम किष्किंधा नगरी में प्रवेश कर गये हैं। और धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर ऐसी टंकार की कि पूरी किष्किंधा की धुरी अपने केंद्र से डोल गई। और घोषणा करते हैं कि मैं अभी पल भर में पूरे नगर को जला कर राख कर दूंगा-
‘धनुष चढ़ाइ कहा तब जारि करउँ पुर छार।।’
यह सुन चारों ओर भगदड़ मच गई। सभी अपने प्राणों की रक्षा के लिए यत्र-तत्र दौड़ने लगे। श्रीलक्ष्मण जी का ऐसा रौद्र रूप देख स्वयं महाकाल, भगवान शंकर भी अपने कैलाश पर ही सीमित रह गए। सब और त्राहि माम्-त्राहि माम् होने लगा। हर जिह्वा पर बस यही याचना है कि हे विधाता! बस आज बचा लो, फिर तो हम स्वयं ही किष्किंधा नगरी को त्याग देंगे। ऐसा कोहराम मचा है कि शब्दों में बयाँ होना संभव ही नहीं। इतना होने पर भी परम आश्चर्य था कि सुग्रीव को अभी भी सुधि नहीं थी कि मृत्यु उसकी चौखट पर बाहें फैलाकर खड़ी है, और उसे अपने विषय भोग से ही फुरसत नहीं है। वेस्ट की एक कहावत सुग्रीव पर बिल्कुल स्टीक बैठती है कि रोम जब जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था। क्योंकि रोम का सम्राट भी इतना विलासी था कि जिस समय रोम पर दुश्मनों ने चढ़ाई कर रखी थी, नीरो उस समय तक भी भोग विलास में संलिप्त था। सुग्रीव अपनी पत्नियों व अन्य दास दासियों के साथ भोग विलासों का शिखर छू रहा था। इसलिए कह सकते हैं कि सब कुछ सुग्रीव के भाग्य के विपरीत जा रहा था। लेकिन तभी सुग्रीव को पतन की दलदल में समाते जा रही स्थिति में से किसी ने उसका हाथ पकड़ कर थाम लिया।
जी हाँ! श्री हनुमान जी सीधे सुग्रीव के उस मनोरंजन कक्ष में पहुंच गये, जहां आज से पहले श्री हनुमान जी ने जाने से सदा प्रहेज किया था। कारण कि श्रीहनुमान जी तो त्रिकाल दृष्टा हैं। उन्हें भला पूरा घटनाक्रम समझने कोई समय थोड़ी न लगना था। सुग्रीव के जीवन की यही सबसे बड़ी उपलब्धि है कि सुग्रीव भले उच्चकोटि का विषयी भी क्यों न था। लेकिन तब भी उसने कभी भी श्रीहनुमान जी का प्रतिकार नहीं किया था। मन हो अथवा न हो, सुग्रीव श्रीहनुमान जी की सीख को मान ही लेता था। उसको इतना तो पता ही था कि श्रीहनुमान जी एक पूर्ण संत हैं। और संत के वचनों की अवहेलना स्वपन में भी नहीं करनी चाहिए। संत की वाणी भले ही तुमड़ी से भी कड़वी क्यों न हो, उसे शहद मान कर ग्रहन कर लेना चाहिए। और जाने अनजाने, बेमन अथवा बलपूर्वक, सुग्रीव श्रीहनुमान जी का उपदेश काट ही नहीं पाता था। और सुग्रीव के जीवन की उसके लिए यही सबसे बड़ी संजीवनी थी। भले ही उसके जीवन के कल्याण के समस्त द्वार बंद थे। लेकिन यही एक द्वार था जहाँ से सुग्रीव की प्रत्येक व्याधि का उपचार संभव हो पा रहा था। ग्रन्थों में संत की इसीलिए तो महिमा है कि जीव अगर कितना भी दुष्ट, पापी व कुसंस्कारी क्यों न हो। संत ऐसी कला के धनी होते हैं कि सबको देवता बनाने का सामर्थय रखते हैं। शास्त्र में तो संत और भगवान में अंतर ही नहीं कहा गया है। कबीर जी महाराज कहते हैं-
‘संता कउ मति कोई निंदहु संत रामु है एको।।
कहु कबीर मै सो गुरु पाइआ जा का नाउ बिबेको।।’
आप सोच सकते हैं कि संत की महिमा कितनी अपार है? वास्तव में संसार में जीवन जीने की कला तो केवल संत ही जानते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज कहते हैं कि संसार में हरि रूपी माखन भी है और संसार रूपी छाछ भी। लेकिन अज्ञानी मनुष्य छाछ को ही सब कुछ मान कर उसके पीछे लग जाते हैं। और संत जन सत्य से भलीभाँति परिचित होने के कारण हरि को ही अपना सर्वस्व मान कर चलते हैं-
‘जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार’
जब में जब कुछ समझ में न आये तो संत की शरणागत हो जायो। उन्हें अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दो। अपने जीपन की नौका की पतवार एक बार संत के हाथों में सौंपकर तो देखें, फिर देखिए। हर व्याधि का समाधान चुटकियों में सुलभ होगा। श्रीहनुमान जी ने भी सुग्रीव की इस विकट घड़ी में कैसे सहायता की। जानेंगे अगले अंक में...(क्रमशः)...जय श्रीराम
-सुखी भारती