By सुखी भारती | Dec 21, 2021
वह हृदय कितना पावन व महान होता है, जिस हृदय में साधु और भक्तों के प्रति प्रेम भाव के पुष्प खिले होते हैं। और श्रीहनुमान जी का हृदय वही प्रेम स्थली है, जहाँ पर यह प्रेम फुलवाड़ी खिली हुई है। उन्हें जैसे ही यह संकेत मिलते हैं, कि यहाँ पर तो किसी परम् भक्त का निवास लगता है। क्यों न मैं उस प्रभु प्रेमी से शीघ्राति शीघ्र मिलुं। श्रीहनुमान जी इस चिंतन में विचरण कर ही रहे थे, कि उसी समय विभीषण जी जाग गए। विभीषण जी का जागना केवल बाहर से ही जागना नहीं था। अपितु मानों उनके भाग्य का भी जगना था। कारण कि श्री विभीषण जी जैसा हीरा लंका जैसे कीचड़ में क्या कर रहा था, यह चिंतन का विषय था। यह उनके दुर्भाग्य का परिणाम था, अथवा कुछ और, यह तो प्रभु ही जानते थे। लेकिन प्रभु अपने भक्तों को ऐसी ऐसी भीषण परिस्थितियों में भी रहने की आज्ञा देते हैं, यह जानकर आश्चर्य होना स्वाभाविक है। लेकिन इसमें भी प्रभु की बहुत बड़ी लीला रही होगी। और यह निश्चित ही हमें आगे के प्रसंगों को पढ़ने के पश्चात ही समझ आयेगी। पाठको को शायद श्री विभीषण जी का व्यक्तित्व इतना रुचिकर न लगे। कारण कि समाज में श्रीविभीषण जी के सद्चरित्र को लेकर इतनी सकारात्मकता नहीं है। सकारात्मकता भी क्या कहें, सही शब्दों में कहें, तो समाज श्रीविभीषण जी को लेकर नकारात्मक भावों से ही ग्रसित है। और इसके पीछे एक ही मुख्य कारण है, कि श्रीविभीषण जी ही वे पात्र हैं, जिनके चलते लंकापति रावण का वध संभव हो पाया। लोग बाग सोचते हैं, कि कुछ भी है, विभीषण को अपने भाई के ही विरुद्ध, श्रीराम जी के पक्ष में इस स्तर पर भी नहीं खड़ा होना चाहिए था, कि वह श्रीराम को अपने भाई की मृत्यु का रहस्य ही बता देता। ऐसे आक्षेप लगाने वाले लोगों का कहना है, कि भाई तो आखिर भाई ही होता है। उसे भाई से दगा नहीं करना चाहिए था। इस आक्षेप को लेकर समाज ने श्रीविभीषण जी के मासूम व निष्कलंक चरित्र को एक कहावत में कैद कर दिया, कि ‘घर का भेदी लंका ढाये।’ यह कहावत एक योजनाबद्ध तरीके से इतनी प्रख्यात कर दी गई, कि जब भी कोई घर का सदस्य, अपने ही घर वालों को धोखा देकर हानि पहुँचाता है, तो हम धड़ल्ले से इस कहावत को बोल कर, श्रीविभीषण जी के पावन चरित्र को प्रश्नों के कटघरे में लाकर खड़ा करने का कुप्रयास करते हैं। हमारा मानना है, कि श्रीरामकथा के इस पावन गंगा प्रवाह में हमें श्रीविभीषण जी के प्रति किये गए, इस दुष्प्रचार को भी, तर्कसंगत प्रमाणों से दूर करना होगा। सर्वप्रथम अगर श्रीविभीषण जी कोई ऐसे वैसे दुष्ट पात्र होते, तो क्या श्रीहनुमान जी उनके लिए ‘सज्जन’ शब्द का प्रयोग करते? कारण कि श्रीहरि के मंदिर को देख श्रीहनुमान जी तुरंत कहते हैं- ‘इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।’
श्रीहनुमान जी को पूर्ण विश्वास था, तभी तो उन्होंने यह दावा किया कि यहाँ किसी सज्जन का वास कैसे संभव हो गया। श्री हनुमान जी को भी क्या किसी के प्रति भ्रम का डँक लग सकता है? श्रीहनुमान जी की दृष्टि को तो सब इतना पैना मानते हैं, कि भगवान का भी अगर परीक्षण व निरीक्षण करना हो, तो श्रीहनुमान जी की दृष्टि पर ही विश्वास होता है। सुग्रीव श्रीराम जी की प्ररीक्षा हेतु, श्रीहनुमान जी को ही भेजता है। और श्रीहनुमान जी भी ब्राह्मण का रुप धारण कर अपना कार्य पूर्ण करते हैं। श्रीविभीषण जी के यहाँ भी श्रीहनुमान जी ब्राह्मण का ही रुप धारण करते हैं-‘बिप्र रुप धरि बचन सुनाए।’ पूरे प्रसंग की इतिश्री में श्रीहनुमान जी पाते हैं, कि श्रीविभीषण जी तो प्रभु के परम् भक्त हैं। कहने का तात्पर्य कि श्रीविभीषण जी, श्रीहनुमान जी की दृष्टि में कहीं भी अपात्र व दुष्ट नहीं हैं, अपितु सम्मान्नीय व पूजनीय हैं। यह तात्विक चिंतन के पश्चात, तो क्या यह मान लिया जाए, कि हमारी दूरदर्शिता श्रीहनुमान जी से ऊत्तम व श्रेष्ठ है? इतना ही नहीं, भगवान श्रीराम जी भी जब श्रीविभीषण जी से सागर के इस पार भेंट करते हैं, तो पता है, श्रीराम जी किन शब्दों का प्रयोग करते हैं? श्रीराम कहते हैं-
‘तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें।।’
अर्थात हे विभीषण! क्या तुम जानते हो कि मुझे आप जैसे संत ही प्रिय हैं। और इस धरा पर, मेरे अवतरण का लक्ष्य भी यही है, कि जब आप जैसे संत इस धरा पर सुशोभित हैं, तो भला ऐसे श्रेष्ठ व परम् संतों को छोड़, मैं क्षीरसागर या बैकुण्ठ में निवास क्यों करुँगा। इसलिए मैं साक्षात मानव देह धारण करके इस धरा पर अवतरित हो जाता हूँ। सज्जनों! श्रीराम जी भी श्रीविभीषण जी को संत की उपाधी ही दे रहे हैं। और एक हम लोग, पता नहीं कैसे अनूठे विद्वान हैं, कि श्रीविभीषण जी को धोखेबाज व कपटी जैसे निकृष्ट शब्दों से कलंकित करने का पाप कर रहे हैं। क्या हम श्रीराम जी और श्रीहनुमान जी से अधिक श्रेष्ठ, सयाने व अर्तयामी हैं? हम लोग मानते तो श्रीराम जी व रामायण को ही होंगें, लेकिन विभीषण जी को लेकर जो धारणा कुटिल समाज की है, अनुसरण हम उसी का ही करते हैं। श्रीराम जी, श्रीहनुमान जी अथवा गोस्वामी तुलसीदास जी हमें क्या सिखा रहे हैं, इससे हमें कोई सरोकार नहीं। सीधे शब्दों में कहें, हम प्रभु को, और धार्मिक ग्रथों को तो मानते हैं, लेकिन उनकी शिक्षायों को नहीं मानते। ऐसी विकृत मानसिकता से हमारे चरित्र व मंगलमयी भविष्य का निर्माण कदापि संभव नहीं। ऐसी बिमार सोच समाज को जोड़ने का नहीं, अपितु तोड़ने का ही कार्य करती है। हम यह क्यों नहीं सोचते कि हमारे भगवान श्रीराम, भला किसी को पहचानने में भूल कैसे कर सकते हैं। लेकिन हमें महापुरुषों के आविष्कार और शौधों से वास्ता थोड़ी न है। हमें तो बस वही मानना है, जो आज के समाज ने हमारी बुद्धि में रोपित कर दिया। इसी लिए तो संत समाज हमें दिशा देते हुए कहते हैं, कि अपने सनातन ग्रंथों का नित्य अध्यन किया करें। इसलिए नहीं कि इन धार्मिक शास्त्रें के पाठ से मोक्ष प्राप्त हो जायेगा। अपितु इसलिए कि आपको अपनी संस्कृति, धर्म व ज्ञान का बोध होगा। फिर कोई भी आकर आपके ईष्ट देवतायों पर अँगुलि उठाने का दुसाहस नहीं करेगा। धर्म व धार्मिक शास्त्र हमारे जीवन की जड़ हैं। हम इसे जितना गहरा व बल का धनी रखेंगे, हम उतनी ही लंबी आयु तक टिके रहेंगे। अन्यथा विधर्मी तो घात लगाकर बैठे ही हैं। जैसे ही उन्हें अवसर मिला। वे अपने दुस्साहस से पीछे नहीं हटेंगे।
श्रीहनुमान जी विभीषण जी से क्या वार्ता करते हैं, जानते हैं, अगले अंक में---(क्रमशः)---जय श्रीराम।
- सुखी भारती